।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.46 ।I Additional II
।। अध्याय 06.46 ।। विशेष II
।। कर्मयोग विशिष्यते ।। अर्जुन तू योगी बन जा ।। विशेष 06.46 ।।
घ्यान योग के उपसंहार में इस श्लोक गीता की व्याख्या पर सभी टीकाकारों की अपनी अपनी व्याख्या रही है। योग शब्द का शाब्दिक अर्थ है जुड़ना।। कुछ योग शब्द को पतंजलि योग शास्त्र के अष्टांग योग से जोड़ते है। पतंजलि योग शास्त्र भी सांख्य योग का समर्थक है, इसलिए योगी शब्द सन्यासी का पर्याय भी माना गया। किंतु गीता में योग का वास्तविक अर्थ कामना, आसक्ति, लोभ, मोह, काम, क्रोध, वासना और अहम से मुक्त हो कर परमात्मा से जुड़ना है। आधुनिक युग में तो गेरूवें वस्त्र और माला धारण करना और दो चार कसरती सीख जाना भर ही योगी हो जाता है, चाहे वह इन सब के साथ अपने भोग विलास की जिंदगी को नही त्याग पा रहा हो, किंतु प्रवचन देने के उस के पास विभिन्न शास्त्रों की खूब जानकारी कंठस्थ हो। कुछ योगी तो भजन और कीर्तन के गायन में भी उपाधि धारण किए रहते है।
इसलिये हम सर्वप्रथम गीता के पृष्ठभूमि पर ध्यान दे तो गीता का प्रारम्भ अर्जुन के युद्ध भूमि में स्वजनों से युद्ध करने की भावना में मोह, भय और अहम का भाव था, जिस के कारण वह युद्ध छोड़ कर संयास लेने को तैयार था।
किन्तु बाद में भगवान श्री कृष्ण द्वारा निष्काम कर्म योग से उस ने सांख्य योग एवम कर्म योग में सन्यास एवम समतत्व भाव को समझने की तैयारी की। समतत्व भाव के लिये इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवम चेतन में एकत्व भाव एवम मन को वश में करने की विधि ध्यान योग में सुनी। किन्तु मन को वश में करने की प्रक्रिया अनिश्चित होने से उसे शंका थी कि यदि वह एक जन्म में पूरी न हो तो क्या होगा।
भगवान श्री कृष्ण द्वारा जब यह आश्वस्त किया गया कि कोई भी एकत्व की प्रक्रिया व्यर्थ नही जाती और निरंतर अगले जन्म में पूर्व जन्म में जहां से छूटी है वही से शुरू होती है, तो अब क्या करना चाहिये।
परब्रह्म से एकत्त्व भाव से जीव का जुड़ना ही योग है। अर्जुन का प्रश्न था कि सांख्य और कर्म में कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है, तो भगवान ने स्पष्ट कहा है कि सन्यास और कर्मयोग दोनो मार्ग निःश्रेयस अर्थात मोक्षदायक है, तो भी दोनो में कर्मयोग की श्रेष्ठता या योग्यता विशेष है। क्योंकि कर्मयोग में ही इन्द्रियों को मन से रोक कर अनासक्त बुद्धि के द्वारा कमेंद्रियों से कर्म करने वाले की योग्यता विशिष्यते अर्थात विशेष है। इसलिये अर्जुन तू कर्म कर और युद्ध कर।
जंगल जा कर या उपवास आदि कष्ट दायक व्रतों या हठ योग के साधनों से सिद्धि प्राप्त करने वाला तपस्वी होता है। ज्ञान से अर्थात सांख्य मार्ग से कर्म को त्याग कर सिद्धि प्राप्त करने वाला ज्ञानी होता है और निरे काम्य कर्म करनेवाले स्वर्ग परायण कर्मठ मीमांसकों को कर्मी कहा गया है। गीता का कहना है कि सिद्धि प्राप्ति है लिये तपस्वी, ज्ञानी या कर्मी कोई भी हो, इन सब मे निष्काम भाव से समतत्व के साथ कर करने वाला योगी ही सर्वश्रेष्ठ होता है।
निष्काम भाव में समतत्व को प्राप्त करने के पश्चात कर्म अकर्म हो जाते है और सृष्टि यज्ञ चक्र का भाग हो जाते है। जीव के जन्म और इस संसार का कुछ तो उद्देश्य होता ही होगा। अतः संसार मे निर्लिप्त हो कर कर्म करने का अद्वितीय उदाहरण स्वयं परब्रह्म मानव अवतार में भगवान श्री कृष्ण दे ही रहे है।
अतः गीता का पठन करने वाले या गीता को आत्मसात करने वालो के लिये यह श्लोक स्पष्ट संदेश देता है और भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते है कि किसी भी तपस्वी से, अध्ययन करने वाले निष्क्रिय ज्ञानी से, या फल की आशा में कर्म करने वाले से निष्काम कर्मयोगी जो समत्व एवम एकत्त्व भाव के अनुसार आचरण करे, श्रेष्ठ है। कौन सा मार्ग चुनना चाहिये, इस दुविधा में पड़ने की बजाय सर्वश्रेष्ठ उपाय यही है कि हम आपने को एकत्त्व एवम समत्व भाव के साथ परब्रह्म को समर्पित हो कर कर्म करे। इसलिये भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन! तू योगी हो जा। क्योंकि योगी ही परब्रह्म को समर्पित हो कर निमित हो कर निष्काम कर्म करता है, वह जो भी करता है, वह परब्रह्म द्वारा प्रेरित अकर्म ही है। वह कर्म, सांख्य, ध्यान या भक्ति योग के किसी भी योग के कर्मकांड में नही पड़ कर, ईश्वर को समर्पित हो कर निमित हो कर कर्म करता है, इस को अगले श्लोक में स्पष्ट भी किया गया है।
अध्याय 18 के श्लोक 7 में भी भगवान यही कहते है कि कामना, मोह, आसक्ति में पड़ कर यदि मनुष्य किसी भी सात्विक या कर्तव्य कर्म को करने से इंकार करता है, तो यह एक तामसी कृत्य ही माना जाएगा।
निष्काम कर्मयोग में सांख्य, ध्यान एवम भक्ति का समन्वय को महृषि व्यास जी ने अति उत्तम विधि में गीता के माध्यम से प्रस्तुत किया है। अनेक सन्यासी, महापुरुषों एवम निष्काम कर्मयोगियों ने इसी से प्रेरणा ले कर ज्ञान अर्जित कर के लोकसंग्रह हेतु निष्काम भाव से कर्म कर के उदाहरण स्वरूप जीवन जिया है, जिन को आदर्श मान कर जन जन प्रेरणा आज भी लेता है।
।। हरि ॐ तत सत।। विशेष 6.46 ।।
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