।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.44 ।I
।। अध्याय 06.44 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 6.44॥
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥
“pūrvābhyāsena tenaiva,
hriyate hy avaśo ‘pi saḥ..।
jijñāsur api yogasya,
śabda-brahmātivartate”..।।
भावार्थ:
पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण वह निश्चित रूप से परमात्म-पथ की ओर स्वत: ही आकर्षित हो जाता है, ऎसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों का उल्लंघन करके योग में स्थित हो जाता है। (४४)
Meaning:
Though helpless, he is pushed due to his prior effort, because even the seeker of yoga transcends the words of brahman.
Explanation:
Previously, Shri Krishna described the fate of the unfulfilled meditator who is born into a family of yogis. Here, he describes the fate of the other type of unfulfilled meditator who is born into a prosperous family. Shri Krishna says that even though such a person will indulge in sense pleasures, his previous efforts will push him towards rekindling his spiritual journey. This attraction or push towards spirituality will give him the potential of transcending his material pleasures.
Karma yoga teaches us how to conduct our life without gathering impressions or samskaaraas that give rise to further selfish desires. These impressions, if not destroyed, are carried over from one life into the next, and result in activation of further selfish desires. The unfulfilled meditator who is born into a prosperous family is compelled to fulfill all of his desires because this family has enough wealth for him to do so. He is “avashaha” or helpless in this regard, due to his propensity for desires.
Once spiritual sentiments have sprouted, they cannot be wiped out. The soul with devotional sanskārs (tendencies and impressions) from the present and past lifetimes gets naturally inspired toward spirituality. Such an individual feels drawn toward God, and this pull is also referred to as “the call of God.” Based upon the past sanskārs the call of God sometimes becomes so strong that it is said, “The call of God is the strongest call in one’s life.” People who experience it reject the entire world and the advice of their friends and relatives to tread the path that draws their heart. That is how in history, great princes, noblemen, wealthy businesspersons, etc. renounced the comfort of their worldly position to become ascetics, yogis, sages, mystics, and swamis. And since their hunger was for God alone, they naturally rose above the ritualistic practices prescribed in the Vedas for material advancement.
However, in addition to his propensities being carried forward into his new life, his spiritual efforts are also carried forward. At some point in his life, these propensities will manifest in the form of an involuntary push or attraction towards spirituality. Just like the seeker born into a yogic family is pulled, this seeker will also find himself pulled, as it were, towards satsangs, discourses and gurus. But unlike the other type of seeker who knows exactly what to do in this situation, this seeker may not know what or why this attraction happens.
Shri Krishna further says that this pulls towards spiritual has the potential to take him out of his current state of indulgence in material pleasures. We have seen that engaging selfishly in the material world further ensnares us in the cycle of karma or action and reaction, which is given in the Vedas, referred here as “shabda-brahman” or the words of brahman. But it is only through determination and effort that this seeker can transcend the cycle of karma. However, if he indulges in selfish desires, he will stray from the spiritual path.
So therefore, it is incumbent upon all spiritual seekers to continuously strive towards attaining their spiritual goals, no matter what their history is. Shri Krishna speaks more about this determination and effort in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
इस श्लोक के द्वारा भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के उस प्रश्न का उत्तर देते है जिस में वो पूछता है कि साधन में लगा हुआ शिथिल प्रयत्न वाला साधक अन्त समय में योग से विचलित हो जाता है तो वह योग की संसिद्धि को प्राप्त न होकर किस गति को जाता है। पूर्व के श्लोक में यह तो स्पष्ट किया गया है कि ऐसा जीव स्वर्ग में जा कर फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमंत परिवार में जन्म लेता है। जन्म के पश्चात निष्काम योगभ्रष्ट की भांति योगी परिवार में जन्म लेने पर उसे पूर्व जन्म के संस्कार उसे भी मिलते है। यही संस्कार समय आने पर उसे अपनी अधूरी यात्रा को पूर्ण करने लिए खींचते है। फिर संसार के समस्त ऐश्वर्य होने के बाद भी, वह जीव अपनी यात्रा को पूर्ण करने में लग जाता है। यह खिंचाव जीव को जाने या अनजाने में ही सही, उस मार्ग पर ले आता है, जहां से उस में पूर्व जन्म में अपनी योग की साधना को छोड़ा था।
किन्तु जिस प्रकार बैंक में हमारे खाते में जमा राशि वही होगी जो पासबुक में दर्शायी गयी होती है। बैंक से हमे उस राशि से अधिक धन नहीं प्राप्त हो सकता और न ही कम राशि दिखाकर हमें धोखा दिया जा सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति के हृदय के विकास में भी कोई भी देवता उस व्यक्ति को उसके प्रयत्नों से अधिक न दे सकता है और न कुछ अपहरण कर सकता है। प्रतिदिन के जीवन में अनुभूत अखण्डता के समान ही प्रत्येक जन्म पूर्व जीवन की अगली कड़ी है। जैसे आज का दिन बीते हुए कल का विस्तार है। इस तथ्य को सम्यक् प्रकार से ध्यान में रखकर इस श्लोक का मनन करने पर इसका तात्पर्य सरलता से समझ में आ जायेगा। जिस व्यक्ति ने अपने पूर्व जन्म में योग साधना की होगी वह उस पूर्वभ्यास के कारण अपने आप अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होगा। हमारे इस लोक के जीवन में भी इस तथ्य की सत्यता प्रमाणित होती है। एक शिक्षित तथा सुसंस्कृत व्यक्ति के व्यवहार और संभाषण में उसकी शिक्षा का प्रभाव सहज ही व्यक्त होता है जिसके लिए उसे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। कोई भी सुसंस्कृत व्यक्ति दीर्घकाल तक सफलतापूर्वक मूढ़ पुरुष का अभिनय नहीं कर सकता और उसी प्रकार न हीं एक दुष्ट व्यक्ति सभ्य पुरुष जैसा व्यवहार कर सकता है। कभी न कभी वे दोनों अनजाने ही अपने वास्तविक स्वभाव का परिचय सम्भाषण विचार और कर्म द्वारा व्यक्त कर देंगे। इसी प्रकार योगभ्रष्ट पुरुष भी जन्म लेने पर अवशसा हुआ स्वत ही योग की ओर खिंचा चला जायेगा। यदि जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं तब भी उन सभी में जिस सम और शान्त भाव में वह रहता है वह स्वयं उसके लिए भी एक आश्चर्य ही होता है। यह मात्र सिद्धांत नहीं है। समाज के सभी स्तरों के जीवन में इसका सत्यत्व प्रमाणित होता है। पूर्व संस्कारों की शक्ति अत्यन्त प्रबल होती है। एक लुटेरा भी दृढ़ निश्चयपूर्वक की गई साधना के फलस्वरूप आदि कवि बाल्मीकि बन गया। ऐसे अनेक उदाहरण हमें इतिहास में देखने को मिलते हैं। इन सबका सन्तोषजनक स्पष्टीकरण यही हो सकता है कि जीव का अस्तित्व देह से भिन्न है जो अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न शरीर धारण करता है। इसलिए उसके अर्जित संस्कारों का प्रभाव किसी देह विशेष में भी दृष्टिगोचर होता है। योगभ्रष्ट पुरुष पुन साधना मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। उसे चाहे राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया जाय अथवा बाजार के कोलाहल या किसी गली के असम्मान पूर्ण स्थान पर बैठा दिया जाय सभी स्थानों पर उसकी सहृदयता और उसका दार्शनिक स्वभाव छिपा नहीं रह सकता। चाहे वह संसार की समस्त सम्पत्ति का स्वामी हो जाये चाहे राजसत्ता की असीम शक्ति उसे प्राप्त हो जाये चाहे अपार आदर और स्नेह उसे मिले किन्तु इन समस्त प्रलोभनों के द्वारा उसे योगमार्ग से लंबे समय तक विचलित नहीं किया जा सकता। महात्मा बुद्ध का जीवन चरित्र इस का प्रत्यक्ष उदाहरण है। यदि सम्पूर्ण जगत् उस के विचित्र व्यवहार एवं असामान्य आचरण को विस्मय से देखता हो तो वह स्वयं भी अपनी ओर सबसे अधिक आश्चर्य से देख रहा होता है इस ध्यानयोग की महत्ता को दर्शाते हुए भगवान् कहते हैं कि जो केवल योग का जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है।
गीता के इस श्लोक में शब्द ब्रह्म का अर्थ हम वैदिक यज्ञ-याग आदि से काम्य कर्म। क्योंकि ये कर्म वेदविहित है और वेदों पर श्रद्धा रख कर ही ये किये जाते है तथा वेद अर्थात सब सृष्टि के पहले पहल का शब्द यानी शब्दब्रह्म है। इसलिये मनुष्य पहले सभी कर्म काम्य बुद्धि से करता है फिर जैसे जैसे इस कर्म से चित्त की शुद्धि होती जाती है, वैसे वैसे आगे निष्काम बुद्धि से कर्म करने को प्रवृत्त होता है। आत्मशुद्धि या चित्तशुद्धि के बाद काम्य कर्म की आवश्यकता नहीं रहती, उस का प्रत्येक कर्म ही ब्रह्म के लिए है, अतः वह शास्त्र द्वारा बताए विधि विधानों का उल्लंघन भी करता हुए, ब्रह्मसंथ के अनुसार क्रियाएं करता है अर्थात प्रकृति उस को निमित्त बना कर कार्य करती है और वह दृष्टा बन कर उन कार्यों का साक्षी मात्र होता है।
ब्रह्म से दो प्रकार माने गए है, एक सगुण एवम दूसरा निर्गुण। सगुण ब्रह्म से शुरुवात होते होते निर्गुण ब्रह्म की ओर खिंचते चले जाते है। इसलिये भगवान कहते है कि पहले से जितना हो सके उतना ही शुद्ध बुद्धि से कर्म योग का आचरण करना शुरू करे, थोड़ा ही क्यों न हो, इस रीति से जो भी कर्म करेंगे वो अगले जन्म संचित होगा और फिर अगले जन्म में अधिक सद्बुद्धि से निष्काम कर्म की ओर बढ़ेंगे। इस प्रकार उत्तरोत्तर निष्काम की ओर बढ़ते हुए अंत मे पूरी सद्गति मिलती है। क्योंकि अनेक जन्मों के बाद ही वासुदेव की प्राप्ति होती है। कर्मयोग का ज्ञान मिलते ही एक जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है और यह जिज्ञासा ही बढ़ते बढ़ते शब्दब्रह्म से परे निष्काम कर्मयोग की ओर ले जाती है और जीव स्वतः ही निष्काम हो कर लोकसंग्रह के कार्यो की ओर प्रवृत्त हो जाता है।
कामना की बुद्धि से किये कर्म आगे चल कर जब कार्य कारण के सिंद्धान्त के अनुसार फल देने लगते है तो स्वतः ही व्यक्ति में जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है जो उसे निष्काम कर्म की ओर खींचती है। हम सब यदि आज मिल कर गीता का अध्ययन कर रहे है तो यह भी पूर्व जन्म के संचित निष्काम कर्म की एक कड़ी है, जो जिज्ञासा बन कर हमें अध्ययन करने को प्रेरित कर रही है और जो हमे शनैः शनैः निष्काम कर्म की ओर ले जाएगी और हम लोक संग्रह हेतु कार्य करने लग सकते है। यही निष्काम कर्म हम सब को ज्ञान युक्त समत्व भाव के मार्ग से परमात्मा से मिलवाएगा। इस के कितने भी जन्म क्यों न हो किन्तु एक बार यदि शब्दब्रह्म से निष्काम कर्मयोग का मार्ग अपना लिया तो मुक्ति अवश्य ही मिलेगी। कामना से ग्रसित शिथिल योग पुरुष के प्रयास कभी भी निष्फल नही हो सकते। जिस प्रकार लिखते लिखते किसी को झपकी लग गयी तो उस का लिखा मिटता नहीं। वरन नींद खुलने के उपरांत अपने लिखे का पुनः आवरण कर के वो आगे लिखना शुरू कर देता है। फिर योगी तो वेदोक्त वर्णाश्रम के विधि विधान से मुक्त है इसलिये पूर्व जन्म में जितना कुछ योग मार्ग में अभ्यास किया था, इस जन्म में उस पूर्वाभ्यास के बल से उस से आगे की ओर ही बढ़ता है। श्रीमंत में जन्म लिया योगभ्रष्ट जीव समस्त संसाधनों के उपलब्ध होने बावजूद अपने पूर्व जन्म की जिज्ञासा एवम कर्म के कारण भोग प्रवृति में नही पड़ता, इस का प्रत्यक्ष उदाहरण महात्मा बुद्ध है।
अगले श्लोक में कामनासहित योगभ्रष्ट जीव जन्म के बाद कैसे और किस प्रकार परमात्मा की तरफ खिंचता है तब उस की क्या दशा होती है यह आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।।6.44।।
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