Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6131
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  06.40 I

।। अध्याय     06.40 ।।

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 6.40

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥

“śrī-bhagavān uvāca,

pārtha naiveha nāmutra,

vināśas tasya vidyate..।

na hi kalyāṇa-kṛt kaścid,

durgatiḿ tāta gacchati”..।।

भावार्थ: 

श्री भगवान ने कहा – हे पृथापुत्र! उस असफ़ल योगी का न तो इस जन्म में और न अगले जन्म में ही विनाश होता है, क्योंकि हे प्रिय मित्र! परम-कल्याणकारी नियत-कर्म करने वाला कभी भी दुर्गति को प्राप्त नही होता है। (४०)

Meaning:

Shree Bhagavan says:

O Paartha, neither here nor there does his destruction ever happen, for whoever performs virtuous acts does not go into distress, my dear.

Explanation:

Arjuna had posed a question about the fate of a meditator who does not attain perfection before death. Shri Krishna responds by unequivocally asserting that nothing harmful or distressful will happen to the meditator while he is in this world, or in any other world. In fact, he will attain a better state, both from a material as well as spiritual standpoint.

We have to carefully parse the meaning of Shri Krishna’s words. He is in no way implying that the meditator will somehow attain material success due to his meditation. The common standard for attaining success in our world is wealth, power and fame, none of which is guaranteed as a result of meditation. Shri Krishna wants us to understand is that one who takes up meditation sincerely will automatically develop dispassion towards wealth, power and fame. He will not care whether he attains material success or not. So therefore, a lack of material success will not cause him distress.

But that does not mean that the meditator obtains a pitiable state. In fact, by sincerely practicing mediation, the seeker will be in tune and in harmony with the world. Then the world itself will take care of all the seeker’s needs. This is not an alien concept. When someone is in tune with any organization like one’s family, workplace, or school, when that person puts the needs of the organization above his personal and selfish needs, the organization ensures that such a person receives whatever he wants, and ensures that he does not get into any distress.

The word Taata is a word of endearment, which literally means “son.” By addressing Arjun as Tāata in this verse, Shree Krishna is demonstrating his affection for him. The son is affectionately addressed as Tāta. The Guru is like a father to his disciple, and hence the Guru too sometimes affectionately addresses the disciple as Tāta. Here, by displaying his affection and grace toward Arjun, Shree Krishna wishes to indicate that God takes care of those who tread on his path. They are dear to God because they engage in the most auspicious kind of activity, and “the doer of good never comes to grief.” This verse asserts that God preserves the devotee both in this world and the world hereafter. This pronouncement is a great assurance to all spiritual aspirants.

Next, Shri Krishna addresses the second part of Arjuna’s question, which is: what happens to the meditator when he dies before gaining perfection in meditation? Shree Krishna then goes on to explain how God preserves the efforts of the yogi who does not complete the journey in the present life.

।। हिंदी समीक्षा ।।

श्रीभगवान् बोले हे पार्थ उस योगभ्रष्ट पुरुष का इस लोक में या परलोक में कहीं भी नाश नहीं होता है। पहले की अपेक्षा हीन जन्म की प्राप्ति का नाम नाश है सो ऐसी अवस्था योगभ्रष्ट की नहीं होती। क्योंकि हे तात शुभ कार्य करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को अर्थात् नीच गति को नहीं पाता। पिता पुत्ररूप से आत्मा का विस्तार करता है अतः उस को तात कहते हैं तथा पिता ही पुत्ररूप से उत्पन्न होता है अतः पुत्र को भी तात कहते हैं। शिष्य भी पुत्र के तुल्य है इसलिये उस को भी तात कहते हैं।

मेरी दृष्टि स्वतः प्राणिमात्र के हित में रहती है। जो मनुष्य मेरी तरफ चलता है अपना परमहित करने के लिये उद्योग करता है वह मुझे बहुत प्यारा लगता है क्योंकि वास्तव में वह मेरा ही अंश है संसार का नहीं। उस का वास्तविक सम्बन्ध मेरे साथ ही है। संसार के साथ उस का वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। उस ने मेरे साथ इस वास्तविक सम्बन्ध को असली लक्ष्य को पहचान लिया तो फिर उसकी दुर्गति कैसे हो सकती है उस का किया हुआ साधन भी नष्ट कैसे हो सकता है हाँ कभी कभी देखने में वह मोहित हुआ सा दीखता है उस का साधन छूटा हुआ सा दीखता है परन्तु ऐसी परिस्थिति उस के अभिमान के कारण ही उसके सामने आती है। मैं भी उस को चेताने के लिये उस का अभिमान दूर करने के लिये ऐसी घटना घटा देता हूँ जिस से वह व्याकुल हो जाता है और मेरी तरफ तेजी से चल पड़ता है। जैसे गोपियोंका अभिमान (मद) देख कर मैं रास में ही अन्तर्धान हो गया तो सब गोपियाँ घबरा गयीं जब वे विशेष व्याकुल हो गयीं तब मैं उन गोपियों के समुदाय के बीच में ही प्रकट हो गया और उन के पूछने पर मैंने कहा  तुम लोगों का भजन करता हुआ ही मैं अन्तर्धान हुआ था। तुम लोगों की याद और तुम लोगों का हित मेरे से छूटा नहीं है। इस प्रकार मेरे हृदय में साधन करनेवालों का बहुत बड़ा स्थान है। इस का कारण यह है कि अनन्त जन्मों से भूला हुआ यह प्राणी जब केवल मेरी तरफ लगता है तब वह मेरे को बहुत प्यारा लगता है क्योंकि उसने अनेक योनियों में बहुत दुःख पाया है और अब वह सन्मार्ग पर आ गया है। जैसे माता अपने छोटे बच्चे की रक्षा पालन और हित करती रहती है ऐसे ही मैं उस साधक के साधन और उस के हित की रक्षा करते हुए उस के साधन की वृद्धि करता रहता हूँ।

भगवान् स्पष्ट आश्वासन देते हैं कि कोई भी शुभ कर्म करने वाला न इहलोक में और न परलोक में दुर्गति को प्राप्त होता है। वर्तमान में पुण्य कर्म करने वाला भविष्य में कभी दुख नहीं पायेगा क्योंकि भूत और वर्तमान का परिणत रूप ही भविष्य है।अर्जुन को योगभ्रष्ट के नाश की आशंका होने का कारण यह था कि जीवन की निरन्तरता और नियमबद्धता को वह ठीक से समझ नहीं पाया था। जन्म और मृत्यु के साथ ही जीव के अस्तित्व का प्रारम्भ और नाश हुआ समझना दर्शनशास्त्र की प्रारम्भिक अवस्था में ही संभव है। वस्तुत ऐसे सिद्धांत को दर्शन भी नहीं कहा जा सकता। साहसिक बुद्धि के जो जिज्ञासु साधक जीवन के नियम एवं अर्थ तथा विश्व के प्रयोजन को जानना चाहते हैं उन्हें यह स्वीकारना पड़ेगा कि मनुष्य का वर्तमान जीवन सत्य के वक्षस्थल को सुशोभित करने वाले अनन्त सौन्दर्य के कण्ठाभरण का एक मुक्ता है। भूत का परिणाम है वर्तमान और प्रत्येक विचार ज्ञान एवं कर्म के द्वारा हम भविष्य की रूपरेखा खींच रहे होते हैं। हिन्दुओं में देहधारी जीव के पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म में विश्वास किया जाता है। इसी को पुनर्जन्म का सिद्धांत कहते हैं। इसी सिद्धांत के आधार पर श्रीकृष्ण यहाँ योगी के विनाश अथवा दुर्गति की संभावना को नकारते हैं। हो सकता है कि कभीकभी साधक का पतन होते हुए या मृत्यु होती हुई दिखाई दे किन्तु उनका विनाश नहीं होता। आज का परिणत रूप भविष्य है।

पूर्व में हम ने  कर्म- कार्य- कारण पढ़ा था। अतः किसी भी कर्म का फल लिप्त भाव से या निर्लिप्त भाव से किया हो प्राप्त अवश्य होता है, निष्काम भाव होने से लालसा या कामना नही रहती। इसलिये पतन का कारण संचित कर्मो का फल होता है किन्तु अच्छे कर्मों से कभी भी आगे चल कर दुर्गति नही हो सकती, इस का पूर्ण आश्वासन आज श्री कृष्ण ने दे दिया। पढ़ने वाला परीक्षा के समय ध्यान न देने से फेल हो सकता है किंतु जो भी उस ने पढ़ा है वो समाप्त नही होता और पुनः प्रयास करने से आगे चल कर पास भी होगा और सफल भी। क्योंकि असफल होने से भी उस के ज्ञान एवम अनुभव में वृद्धि ही होगी,  कमी नही। सतत प्रयत्न कभी भी विफल नहीं होता। जो आज सफल है यह उस का सतत प्रयास है जो विफलता के मार्ग से निकला है।

असफल प्रयत्न सफलता की ओर पहला कदम होता है। किसी भी कार्य को करने से या तो सफलता मिलती है या अनुभव। फिर पुनः शुरू करने से पूर्व के अनुभव का लाभ मिलता ही है। यही सब से बड़ा आश्वासन भगवान श्री कृष्ण पुर्नजन्म के लिये अर्जुन को बता रहे है, जीव का लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करना है, किन्तु किन्ही कारणों से वह ज्ञान की खोज में अज्ञान के मार्ग में चला भी गया तो अज्ञान के फलों को भोगने के बाद, पुनः ज्ञान के मार्ग पर जहां से छोड़ा था, शुरू कर देता है। हम संसार मे अनेक विलक्षण बुद्धि और आचरण से युक्त बालक देखते है जो वह सब यथाशीघ्र सीख जाते है, जो अन्य बालक सीखने में वर्षो लगा देते है। उन का अध्यात्म के प्रति झुकाव भी स्वाभाविक होता है।

गीता के अंतिम अध्याय में भगवान कहते है, जिन्हे समझ में न भी आए, किंतु जो गीता का पाठ श्रद्धा, विश्वास और प्रेम से श्रवण भी कर लेते है, उन के लिए भी सत्व का द्वार खुलना शुरू हो जाता है।

परमात्मा का यह भी कहना है, जो जो मुझे जिस भाव, कामना और आसक्ति से मेरे जिस भी स्वरूप में मुझे पूजता  है, मैं उसे उसी देव के माध्यम से उस देव की यथाशक्ति उस के कामना की पूर्ति करता हूं।

एक जगह गीता में भी कहा गया है कि इस देह को त्यागते समय जो भी आसक्ति या कामना रहती है, मनुष्य उसी के अनुसार अगले जन्म की योनि को प्राप्त होता है।

अतः यह सृष्टि का संचालन योगमाया से प्रकृति एक नियम के अंदर करती है। इसलिए भगवान अर्जुन को आश्वत करते है कि सत्व गुणों के अंदर जिस भी जीव ने जितनी भी प्रगति की है, वह नष्ट नही होती और अगले जन्म में वह जीव और भ्रष्ट योगी वही से अपनी सत्व गुण की यात्रा प्रारंभ करता है, जहां वह पूर्व जन्म में छोड़ आया था।

यद्यपि हम विस्तार से आगे पढ़ेंगे किंतु मेरी अल्प बुद्धि से मुझे पूर्णजन्म के सिद्धांत में यह समझ में आता है कि जीव का सूक्ष्म और स्थूल दो शरीर है। स्थूल शरीर से वह कर्म करता है। जिस में मनुष्य जन्म में उसे कर्म का अधिकार होने से उस के फल को भोगता है किंतु शेष सभी योनियों में वह कर्म स्वभाव से करता है और अपने कार्मफलों को भोगता है। मनुष्य जीवन में बुद्धि से वह कर्म स्वभाव में सत्व गुणों की ओर बढ़ता हुआ, गुणातित होने का प्रयत्न करता है। किंतु स्थूल शरीर तामसी प्रवृति होने पर उसे पशु जीवन को ओर खींचता रहता है। यही संघर्ष है जिस पर उसे विजय पाना है। अतः मृत्यु होते ही कहते है मस्तिष्क 4 या 5 घंटे सक्रिय रहता है और इसलिए मृत्यु के समय भगवान के नाम को उसे सुनाया जाता है। इस बीच वह कामना और आसक्ति के कारण 10 – 12 अपने स्थूल शरीर के प्रति आकर्षित रहता है किंतु सांसारिक पद्धति में उस के स्थूल शरीर को जला देने से, वह उसे प्राप्त नहीं होता। उस के बाद कर्मफल और मृत्यु के समय की तीव्र कामना, मोह या आसक्ति से एक आकर्षण शक्ति का निर्माण होता है और जब जीव को अपना शरीर नही मिलता तो वह उस आकर्षण शक्ति के अनुसार अन्य शरीर को खोजता हुआ, उस योनि में प्रविष्ट हो जाता है। यदि यह आकर्षण शक्ति अत्यंत तीव्र न हो तो वह अपने पुण्य फलों को भोगने भूत, पिशाच, यक्ष, पितर या देवता बन कर अन्य लोक चला जाता है और भोग समाप्त होने पर शेष कर्मफलों के भोग के अनुसार नए शरीर अर्थात योनि को प्राप्त होता है। जो भ्रष्ट योगी है, उन्हे मुक्ति के लिए शिक्षित अर्थात उच्च परिवार मिलता है जिस से वह अपने योग को पूरा कर सके। हम बचपन से कई बालक में अद्वितीय प्रतिभा देखते है यह उन के पूर्व जन्म से होता है। शंकराचार्य, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती आदि अनेक प्रतिभाएं हम इस के उदाहरण में देख सकते है। सूक्ष्म शरीर लिंग स्वरूप में रहता है जिस में कर्म के फल संस्कार स्वरूप में जुड़े है, आत्मा तो नित्य, साक्षी और अकर्ता है, केवल अज्ञान से  बंधी होने से वह इस सूक्ष्म शरीर के साथ साथ घूमती रहती है। भगवान इसी संस्कार में पूर्व जन्म में अज्ञान को मिटाने के जो भी प्रयास जीव करता है, संचित रहने और आगे के जन्म में उसी स्तर से शुरू होने की बाद कहते है।

इसे उदाहरण से समझे तो एक कार का ऑपरेटिंग सिस्टम सूक्ष्म शरीर है, स्थूल शरीर उस की बॉडी है और जीव चालक है। कार को चलाने के लिए ऊर्जा चाहिए और शरीर को चलाने को भी वही चाहिए। पंच कोश शरीर का ऑपरेटिंग सिस्टम है जिस में मनोमय कोश सूक्ष्म शरीर है और शरीर बॉडी है। कार के चालक को अज्ञान है कि वह कार चलाता है, जब की कार ऑपरेटिंग सिस्टम और बॉडी से चलती है, वह लक्ष्य अर्थात दिशा निर्देश मात्र तय करता है। इस को और भी विस्तार से आगे पढ़ेंगे। किंतु अभी इसे समझना और याद रखना आवश्यक है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि साधक का कभी वास्तविक पतन नहीं होता। आत्मिक विकास की सीढ़ी पर एक भी सोपान चढ़ने का अर्थ है पूर्णत्व की ओर बढ़ना।योगसिद्धि को जो प्राप्त नहीं हुआ उसकी निश्चित रूप से क्या गति होती है, यह हम आगे के श्लोक में पढेंगे।

।। हरि ॐ तत सत।। 6.40।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

Leave a Reply