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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  06.39 I

।। अध्याय    06.39  ।।

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 6.39

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥

“etan me saḿśayaḿ kṛṣṇa,

chettum arhasy aśeṣataḥ..।

tvad-anyaḥ saḿśayasyāsya,

chettā na hy upapadyate”..।।

भावार्थ: 

हे श्रीकृष्ण! मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से केवल आप ही दूर कर सकते हैं क्योंकि आप के अतिरिक्त अन्य कोई इस संशय को दूर करने वाला मिलना संभव नहीं है। (३९)

Meaning:

To dispel this doubt of mine, O Krishna, only you are worthy. For, other than you, no one is fit to dispel this doubt.

Explanation:

Arjuna offers one last point in his question to Shri Krishna with regards to the promise of meditation. Earlier, Arjuna wanted to know the fate of the seeker who strives hard but does not reach the state of the perfected meditator before he dies. He then added an illustration of the cloud that is helplessly scattered by winds, comparing it to a seeker who achiever neither spiritual nor material success. Arjuna makes a final point in this question by reminding Shri Krishna that only he can answer this question.

Doubts arise from ignorance and the power to dispel doubts comes from knowledge. Scholars of the scriptures possess theoretical knowledge, which is not good enough to dispel doubts, because the scriptures contain many apparent contradictions that can be reconciled only by realization. The God-realized Saints do possess realized knowledge that is limited in extent. They do not become all- knowing. Such realized Saints do possess the power to dispel doubts, but they cannot compete with God, who is all- knowing. God alone is sarvajña (omniscient) and sarva- śhaktimān (all- powerful), and hence he is supremely competent in removing all ignorance, just as the sun is competent in repealing the darkness.

By now, Arjuna had come to the conclusion that Shri Krishna was something more than his friend and charioteer. In some shlokas, Shri Krishna even referred to himself as Ishvara. Only one who is beyond the material world can answer a question that transcends the material world, and that is Ishvara himself.

He says why I am asking you; because there cannot be any person other than you who can destroy this doubt. You are beyond time, timeless knowing every incidents of past, present and future and also giver of karmphal i.e. final output of work. Therefore, Arjuna found it fit to ask such a question to Shri Krishna.

The answer to this question is given by Shri Krishna in the upcoming shlokas. These shlokas comprise the final portion of the sixth chapter.

।। हिंदी समीक्षा ।।

हे कृष्ण मेरे इस संशय को निःशेषता से काटने के लिये अर्थात् नष्ट करने के लिये आप ही समर्थ हैं क्योंकि आप को छोड़ कर दूसरा कोई ऋषि या देवता इस संशय का नाश करनेवाला सम्भव नहीं है। अतः आप को ही इस का नाश करना चाहिये।

अर्जुन जो मोह से ग्रसित युद्ध भूमि में खड़ा था, अब तक के वार्तालाप से उस की मनस्थिति में प्रवर्तन शुरू हो गया है। इसलिए वह जिसे अपना सखा, सारथी और शुभचिंतक समझता था, उसे ईश्वर स्वरूप समझ कर प्रार्थना कर रहा है कि उस की शंका का निवारण वही व्यक्ति कर सकता है जो काल से परे, भूत, भविष्य और वर्तमान को जानता हो एवम जिस के द्वारा जीव के कर्म फलों का निर्धारण होता हो, जो इस सृष्टि का रचियता हो।

इस प्रकरण के अन्तिम श्लोक में अर्जुन स्पष्ट कहता है कि हे कृष्ण आप मेरे इस संशय को दूर कीजिए। केवल भगवान् कृष्ण ही अर्जुन के इस संशय का निराकरण करके उसके मन के विक्षेपों को शान्त कर सकते थे।  चतुर्थ अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को जन्मों को जाननेवाला, अजन्मा, अविनाशी एवम सब प्राणियों के ईश्वर, सब के गुणकर्मानुसार सब के रचयिता तथा पांचवे अध्याय में सब लोक के महान ईश्वर के रूप में घोषित किया था, इसलिये अर्जुन का विस्वास एवम श्रद्धा इतनी अधिक बढ़ गई थी कि वो कहता है आप के सिवाय अन्य कोई भी उस की इस शंका का निवारण नही कर सकता। अतः वह श्री कृष्ण से निःशेषता अर्थात जिस के बाद कोई संशय न रहे, इस प्रश्न का उत्तर चाहता है।

यहां अर्जुन मृत्यु के बाद की गति या रहस्य को जानना चाहते है। इस प्रश्न से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उसकी पूर्व की शंका पूर्णत निवृत्त हो चुकी थी। उस

की पूर्व शंका समत्वयोग की अशक्यता के सम्बन्ध में थी जिसका मुख्य कारण था मन का चंचल स्वभाव।जो कोई भी जिज्ञासु साधक सम्पूर्ण हृदय से साधना करता है उसके मन में एक शंका के निवृत्त होने पर अन्य शंकाएं और प्रश्न उठते रहते हैं। संशयनिवृत्ति का उपाय है मनन। सत्संगत से भी विचार प्राप्त होकर संशय दूर हो जाते हैं। प्रत्येक साधक की साधना एवं भावना के आधार पर उसे देहत्याग के पश्चात् श्रेष्ठ जीवन का आश्वासन भगवान् देते हैं।

पातंज्जल योग के ध्यान योग के इस अध्याय में अर्जुन का प्रश्न कर्मयोग की सम्पूर्ण व्याख्या को ले कर है जिस में हमने अभी तक सांख्य योग, ज्ञान योग, ध्यान योग एवम ज्ञान युक्त कर्म सन्यास योग द्वारा पढा है। जीवन का अंतिम लक्ष्य उस परमानंद को प्राप्त करना है जिस के आनंद का अंत नहीं। अतः यह मार्ग इतना भी सरल नही कि आज शुरू करे और कल से योगी बन गए। यह एक सतत प्रक्रिया है जिस में एक से ज्यादा भी जन्म लग सकते है। कर्मयोग जीवन को जीने की कला एवम मार्ग है, जिस से हम यथा शीघ्र उस परमानंद को प्राप्त हो।

मेघनाथ और हनुमान जी का युद्ध हुआ, मेघनाथ ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया और हनुमान जी को बांध दिया। फिर उसे संशय हुआ कि यह ब्रह्मास्त्र से बंधा हुआ वानर यदि छूट गया तो क्या होगा, उस ने रस्सी से भी उन्हें बांध दिया। जैसे ही रस्सी से हनुमान को बंधा तो ब्रह्मास्त्र ने विचार किया कि इसे में सामर्थ्य पर संशय है और रस्सी पर अधिक विश्वास है मेरी आवश्यकता नहीं और ब्रह्मास्त्र ने हनुमान जी को मुक्त कर दिया। संश्यात्मा विनश्यति जो मन में संशय ले कर चलता है, वह कभी भी स्थिर नहीं हो सकता। ईश्वरवाद या भौतिकवाद में संशय चिंतन का विषय हो सकता है किंतु आत्मवाद में संशय को कोई स्थान नहीं। इसलिए जिज्ञासु को चाहिए कि गुरु पर पूर्ण विश्वास के साथ रखते हुए अपने संशय का निवारण भी करते रहे। यदि गीता पढ़ भी रहे है और कामना और आसक्ति एवम फल की इच्छा के बिना कोई कर्म नहीं हो सकता मान भी रहे है तो ऐसा संशय रख कर गीता पढ़ने से कोई लाभ नहीं, अर्जुन की भांति अपने संशय का भी निवारण योग्य गुरु से कर लेना चाहिए।

किसी से प्रश्न पूछने से पूर्व श्रद्धा- विश्वास होना आवश्यक है। श्रद्धा एवम विश्वास उस के ज्ञान एवम उस के प्रति समर्पण है। किंतु अंधश्रद्धा नही। कभी कभी प्रश्न पूछने वाला अपने ही ज्ञान से परखना भी चाहता है तो यह अभिमान या गर्व है। जो सिर्फ प्रश्न पूछना चाहिये, इसलिये प्रश्न करते है किंतु उन्हें क्या करना है यह वह लोग पहले से ही तय रखते है। इसलिये अधूरे या रिक्त रहते है।

कुछ लोग संशय ले कर चलते है कि सामाजिक और भौतिक जीवन अध्यात्म से अधिक आवश्यक है, क्योंकि अध्यात्म से उन की आवश्यकता या जीवन नही व्यतीत हो सकता। तो उन्हे अध्यात्म का भी श्रद्धा और विश्वास के अभाव में कोई लाभ नहीं हो सकता। वे अध्यात्म यदि पढ़ेंगे तो उस का भी व्यापार ही करेंगे।

अगले पाँच श्लोकों में भगवान् उन योगियों की गति को बताते हैं जिनकी साधना मृत्यु के कारण अपूर्ण रह जाती है अथवा मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण वे योग से पतित हो जाते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।।6.39।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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