।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.38 ।I
।। अध्याय 06.38 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 6.38॥
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥
“kaccin nobhaya-vibhraṣṭaś,
chinnābhram iva naśyati..।
apratiṣṭho mahā-bāho,
vimūḍho brahmaṇaḥ pathi”..।।
भावार्थ:
हे महाबाहु कृष्ण! परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग से विचलित हुआ जो कि न तो सांसारिक भोग को ही भोग पाया और न ही आपको प्राप्त कर सका, ऎसा मोह से ग्रसित मनुष्य क्या छिन्न-भिन्न बादल की तरह दोनों ओर से नष्ट तो नहीं हो जाता?
Meaning:
Unsuccessful in both ways, with no worldly glory, distracted in the spiritual path, doesn’t the seeker get destroyed like a scattered cloud, O mighty armed?
Explanation:
Arjuna further elaborates upon his question to Shri Krishna with regards to the promise of meditation. To understand this better, let’s examine a saying in Hindi: “dhobi ka kutta, na ghar kaa na ghaat kaa”. Loosely translated, it refers to a situation where someone has two jobs but because he cannot do either job properly, he loses from both sides in the end.
The desire to attain success is natural to the jīva. It comes from being a part of God, who is all-perfect, and hence the soul too wishes to be perfect and successful like its source—God. Success can be attained in two realms—material and spiritual. Those who consider the world to be a source of happiness strive for material advancement. And those who consider spiritual wealth to be the real treasure worthy of possessing, strive for it by rejecting material endeavours. However, if such spiritualists fail in their attempt, they are apparently left with neither spiritual nor material assets.
Arjuna wanted Shri Krishna to tell him whether someone who follows the spiritual path, but is not able to attain fulfillment, ends up in a similar situation. Arjuna uses the analogy of a cloud that neither provides rain, nor does it vanish. This in-between situation makes it an easy target for winds to scatter the cloud from one place to another.
If we were to frame this as an economic problem, Arjuna is speaking about opportunity cost, which is the loss incurred in one activity by spending time in another activity. If the seeker devotes a large amount of his time and effort towards meditation, but fails to attain the desired outcome, is it worth it? He could have very easily have devoted this time to worldly pursuits and obtained wealth, status and thereby secured his worldly position.
Instead, the seeker is “ubhaya-vibhrashta” or unsuccessful from both sides. One side is “apratishtha” or lack of worldly glory, and the other is “vimoodha brahmana pathi” or distracted in progress on the spiritual path. Arjuna, the pragmatic soldier, does not want to get into such a compromising position. Thinking in this manner, Arjun asks whether their position is like that of a broken cloud. A cloud, which breaks away from the group of clouds, becomes worthless. It neither offers sufficient shade, nor does it increase its weight and become rain-bearing. It merely blows in the wind and perishes like a non-entity in the sky. Arjun asks whether the unsuccessful yogi suffers a similar fate, with no position in any sphere. He adds one more element to this question in the next shloka, after which he lets Shri Krishna answer.
।। हिंदी समीक्षा ।।
मनुष्य के पास दो विकल्प उपलब्ध है, जिस में एक उसे प्रकृति ने आनंद और सुख में दिया है, किंतु वह कष्ट और दुख भी ले कर आता है और जो अनित्य भी है। किंतु प्रकृति के सुख को इनकार नहीं कर सकते, इस लिए जीव में जीने की जीविषिका रहती है। दूसरा विकल्प नित्य और परमानंद का है, जिस में जीव मन, इंद्रियों और बुद्धि से जनित सुखों को अनित्य मान कर त्याग कर अपने ब्रह्म स्वरूप मूल स्वरूप में प्राप्त होता है। द्वितीय सुख का मार्ग तप और त्याग का है, इसलिए इस को प्राप्त करने में जीव को एक जन्म पर्याप्त हो भी सकता है और नही भी। अर्जुन का प्रश्न यही है कि यदि द्वितीय विकल्प में चलने वाला मनुष्य बीच मार्ग में भ्रष्ट हो जाए या विकल्प को एक जन्म में पूरा न कर पाए, तो उस का क्या होगा। क्योंकि द्वितीय विकल्प के कारण वह प्रथम विकल्प के सुख से भी वंचित रह जाएगा।
कर्म के दो प्रकार के फल है 1) साम्य बुद्धि से किन्तु शास्त्र की आज्ञा के अनुसार कर्म करने पर तो स्वर्ग की प्राप्ति होती है, 2) और निष्काम बुद्धि से करने पर वह बंधक न हो कर मोक्षदायक हो जाता है। परंतु इस अधूरे मनुष्य को कर्म के स्वर्ग आदि काम्य फल नही मिलते, क्योंकि उस का स्वर्ग प्राप्ति का हेतु नही रहता; और साम्य बुद्धि पूर्ण न होने के कारण उसे मोक्ष मिल नही सकता, इसलिये अर्जुन अपने मन मे यह शंका उत्पन्न हुई कि बेचारे को न तो प्रकृति के सुख मिले, न तो स्वर्ग मिला न ही मोक्ष – कहीं उस की स्थिति तो ऐसी तो नही हो जाती की ” दोनों दीन से गए पांडे, हलुआ मिले न मांड” । अपनी इसी शंका को पिछले श्लोक में पूछे गए प्रश्न को अधिक विस्तार से उदाहरण के साथ अर्जुन और स्पष्ट करते हुए कहते है।
सम्भव है कि ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग पर चलता हुआ कोई श्रद्धावान् साधक मृत्यु का ग्रास बन जाए अथवा पर्याप्त संयम के अभाव में योग से पतित हो जाए। जैसे कभी कभी ग्रीष्म ऋतु में पर्वतों के पार्श्व भाग से कोई छत्रवत् मेघमालिका ऊर्ध्वदिशा में उठती हुई दृष्टिगोचर होती है। परन्तु तीव्र वेग से प्रवाहित वायु के स्पर्श से वह मेघ खण्ड अनेक छोटे छोटे मेघखण्डों में विभक्त हो जाता है। ये मेघखण्ड पूर्णतया प्रबल वायु की दया पर आश्रित इतस्तत लक्ष्यहीन भ्रमण करते रहते हैं। ग्रीष्म ऋतु के ये मेघ न कृषकों की अपेक्षाएं पूर्ण कर सकते हैं और न तृषितों की पिपासा को ही शान्त कर सकते हैं। किसी सुरक्षित स्थान को न प्राप्त कर अन्त में वे स्वयं भी नष्ट हो जाते है। अर्थात वह आश्रय रहित और ब्रह्मप्राप्ति के मार्ग में मोहित हुआ पुरुष कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों ओर से भ्रष्ट होकर क्या छिन्नभिन्न हुए बादल की भाँति नष्ट हो जाता है अथवा नष्ट नहीं होता। अर्जुन का प्रश्न है कि क्या इस योगभ्रष्ट पुरुष की गति भी उस मेघ के समान ही नहीं होगी। अर्जुन का यह प्रश्न उन लोगो के लिए जिन की कामनाये प्रकृति के क्षणिक सुखों जैसे घर, परिवार, पत्नी, पुत्र, भौतिक सुविधाओ में बसती है और दूसरी ओर ईश्वर की प्राप्ति के लिए योग भी करते है। योग की प्रवृति एवम कामनाओं में वो न तो प्रकृति के सुखों को भोगते है एवम कामनाओं के रहते वो योग में समत्व को प्राप्त होते है किंतु जीवन समाप्त हो जाता है। अतः पुनर्जन्म में उन को फिर शून्य से शुरू होना है या फिर इस जन्म के प्रयास उस को आगे समत्व की ओर ले कर जाते है।
जब हम कुछ समझाने में या पूछने में असमर्थ सा महसूस करते है तो प्रायः कुछ उदाहरण का भी सहारा लेते है, यहां अर्जुन मेघ का सहारा लेता है जिन का लक्ष्य बरस कर जन जीवन के लाभ के लिये कार्य करे। किन्तु हवा के कारण वह न तो स्थिर हो पाता है, न ही बरस पाता, और छिन्न-भिन्न हो जाता है।
योग से मन को नियंत्रित करने वाला ज्योतिषी, सिद्धियां, यंत्र-तंत्र, विधि-विधान, आत्मा, भूत, प्रेत आदि के द्वारा भूत-भविष्य को खोजने और सुधारने में लग जाता है। उस के कर्म कांड, नियम, प्रतिबंध और बाहरी और आंतरिक नशा इतना फैल जाता है कि समतत्व को प्राप्त करने से पूर्व ही उस का जीवन समाप्त हो जाता है। मनुष्य की उत्सुकता, आशंका, भविष्य के प्रति अनिश्चितता, असुरक्षा का भय उस के मन को स्थिर नही होने देता।
व्यवहार में हम धार्मिक प्रवृत्ति अथवा सदगुणी व्यक्ति को देखते है जो कामना मोक्ष की रखता है, इच्छाएं स्वर्ग या वैकुंठ जाने की करता है और जीवन व्यवसाय, कर्म, गृहस्थी में व्यतीत करता है। हम इन्हें धार्मिक व्यक्ति मानते है जो कामना और आसक्ति से मुक्त नही है किंतु उस में सत्व गुण की प्रधानता तमोगुण से अधिक होने से मोक्ष की ओर बढ़ने की गति धीमी होती है। यदि अगले जन्म में उसे पुनः शून्य से शुरू करना पड़ा तो वह कभी भी मोक्ष या मुक्ति को प्राप्त नही होगा।
अर्जुन यह प्रश्न और भी क्यों पूछता है इस का कारण अगले श्लोक में अर्जुन द्वारा क्या बताया जाता है, पढेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।। 6.38।।
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