।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.27 ।।I
।। अध्याय 06.27 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 6.27॥
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥
“praśānta-manasaḿ hy enaḿ,
yoginaḿ sukham uttamam..।
upaiti śānta-rajasaḿ,
brahma-bhūtam akalmaṣam”..।।
भावार्थ :
योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है। (२७)
Meaning:
Supreme joy certainly obtains this yogi with serene mind, whose passion has been quietened, who has become the eternal essence, and who is without sin.
Explanation:
In one of the most classic shlokas of this chapter, Shri Krishna does something which is next to impossible – he puts the result of meditation into words that we can understand. He says that supreme joy comes to the meditator whose mind is quiet and free from sin, who has calmed his passions and who has identified with the eternal essence.
What is our situation in life for the most part? We constantly run after sukham or joy. If there is any chance of happiness that is within reach, we run after it.
Unfortunately, whenever we run after joy, joy tends to run away from us. It is hard to catch. In the rare instance that we possess joy, we beg it to stay. We do not ever want it to leave us. This is also easier said than done.
Shri Krishna says that in the case of the meditator, it is joy that runs after him. It comes to the meditator and asks him “shall I stay with you?”. The meditator becomes what is sought after, joy becomes the seeker. Moreover, it is not ordinary joy that comes after the meditator. It is the most supreme joy.
This is the difference between a bhogi and a yogi. A bhogi runs after joy, but joy runs after a yogi.
Now, how is the mind of such a yogi? It is extremely quiet, like a calm lake. He can view any kind of situation that impacts him with such dispassion that it is like watching the situation happen to an unrelated person. If it is a disturbing situation, let’s say he suffers an accident, he smiles just like we smile at a character in a movie. There are absolutely no complaints for any situation from a yogi.
Next, Shri Krishna says that the yogi is “shaanta rajasam”, he has silenced the quality of passion within him. Rajas, the mode of nature that causes us to go outside ourselves, is present in visible as well as in subtle form inside us. Through karmayoga, we can check the visible forms of rajas to a large extent. But it is only through meditation that we can completely remove the invisible, subtle traces of rajas within us. Till all the rajas is silenced, we should let it express in the form of performance of our duties, not any other actions.
(In Nārad Bhakti Darśhan, Sūtra 55)[v20] states;
“The consciousness of the devotee whose mind is united in love with God is always absorbed in him. Such a devotee always sees him, hears him, speaks of him, and thinks of him.” When the mind gets absorbed in God in this manner, the soul begins to experience a glimpse of the infinite bliss of God who is seated within.
Furthermore, the mind of the meditator is pervaded with a single thought “I am the eternal essence” and śhānta-rajasaṁ (free from any kind of passion ). This is indicated by the word “brahmabhootam” (endowed with God-realization) in this shloka. When the meditator has identified himself with brahman, and removed his identification with everything else, then he automatically becomes one with the eternal essence. The removal of everything else in the form of impurities is indicated by the word “akalmasham”.
Shri Krishna concludes this topic in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोकों के विवेचन से यह स्पष्ट हो गया है कि शनैः शनैः मन को आत्मस्वरूप में स्थिर करने से वृत्तिप्रवाह के साथ मन भी समाप्त हो जाता हैं। मन के निर्विषयी होने पर मनुष्य को आत्मा का शुद्ध स्वरूप में अनुभव होता है और स्वाभाविक ही वह परम सुख को प्राप्त होता है।
जिस का रजोगुण और रजोगुण की लोभ प्रवृत्ति नये नये कर्मों में लगना अशान्ति और स्पृहा ये वृत्तियाँ शान्त हो गयी हैं ऐसे योगी को यहाँ शान्तरजसम् बताया गया है। तमोगुम रजोगुण तथा उनकी वृत्तियाँ शान्त होने से जिस का मन स्वाभाविक शान्त हो गया है अर्थात् जिस की मात्र प्राकृत पदार्थों से तथा संकल्प विकल्पों से भी उपरति हो गयी है ऐसे स्वाभाविक शान्त मनवाले योगी को यहाँ प्रशान्त- मनसम् कहा गया है। प्रशान्त कहने का तात्पर्य है कि ध्यानयोगी जब तक मन को अपना मानता है तब तक मन अभ्यास से शान्त तो हो सकता है पर प्रशान्त अर्थात् सर्वथा शान्त नहीं हो सकता। परन्तु जब ध्यान योगी मन से भी उपराम हो जाता है अर्थात् मन को भी अपना नहीं मानता मन से भी सम्बन्धविच्छेद कर लेता है तब मन में रागद्वेष न होने से उसका मन स्वाभाविक ही शान्त हो जाता है।
मन को शांत आनन्द स्वरूप आत्मा में स्थिर करने के प्रयत्न में पूर्व संचित वासनाएं क्षीण पड़ जाती हैं और वासना रहित मन को ही निष्पाप (अकल्मष) कहते हैं। वेदान्त में मन की अशुद्धि को कहते हैं मल। आत्मतत्त्व का अज्ञान (आवरण) और उस से उत्पन्न मन के विक्षेप संयुक्त रूप से मल कहलाते हैं। आवरण तमोगुण का कार्य है जबकि तज्जनित विक्षेप रजोगुण का। यही मनुष्य का दुखमय संसार में पतन का कारण है। भगवान् के इन शब्दों में इसका स्पष्ट निर्देश मिलता है (क) शांतरजस और (ख) अकल्मष। तमोगुण और रजोगुण के प्रभाव से मुक्त पुरुष को आत्मज्ञानी ही मानना पड़ेगा। जब तक विक्षेप है तब तक मन का अस्तित्व है और उसके साथ आत्मा के तादात्म्य से जीवभाव उत्पन्न होता है अर्थात् वह साधक जो ध्यानाभ्यास में प्रवृत्त होता है ध्यानविधि के अनुसार मन के साथ के तादात्म्य की निवृत्ति होने पर जीव अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को पहचान लेता है।
मैं देह नही, सदचिदानंदघन ब्रह्म हूँ- इसप्रकार का अभ्यास करते करते साधक की सदचिदानंदघन परमात्मा में दृढ़ स्थिति हो जाती है, ब्रह्म में इस प्रकार अभिन्नभाव से स्थित पुरुष को ब्रह्मभूत कहा गया है किंतु यहाँ ब्रह्मभूत उस उच्चश्रेणी के अभेदमार्गीय साधक को नही बताया गया है जो गुणातीत है। यह उस अवस्था की प्रारंभिक अवस्था को बताता हैं।
समधिस्थ योगी के मनोभावों को और ज्ञान को शंकराचार्य द्वारा इस प्रकार से व्यक्त किया गया है।
“ब्रह्म में कोई भेद नहीं है , उसमें गुणों का अनुभव नहीं है , उस में वाणी का व्यापार नहीं है और मन का व्यापार भी नहीं है । वह केवल शुद्ध , अत्यंत शान्त , व्यापक , अनादि काल से विद्यमान , अद्वितीय है और वह आनन्दमात्र ही प्रकाशित होता है । यह जो जरा – मरण – रहित , सत् – चित् – आनन्दस्वरूप परम सत्यस्वरूप वस्तु ( ब्रह्म ) है , यह नित्य है ; हे शिष्य! मेरा यह वचन सत्य हे ।।“
“हे विद्वन् शिष्य ! निश्चय ही यह शरीर तुम नहीं हो , प्राण नहीं हो , इन्द्रियसमूह नहीं हो , मन नहीं हो , बुद्धि नहीं हो , अहंकार नहीं हो और इन सब का संघात ( समूह रूप ) भी नहीं हो – भले प्रकार से सुनो – ञो इन सबका साक्षीरूप , निर्मल स्फुरण है ; निश्चय ही वह ( ब्रह्म ) तुम हो ।।“
“जो सुषुप्तिकाल में भी स्वयंप्रकाश है , सम्पूर्ण जगत का आत्मस्वरूप है , मैं-मैं के भाव से सदा भासता है ; जिस में बुद्धि और अन्य किसी विकार के कारण अप्रभावित रहकर विकारशून्य है और ज्ञानस्वरूप है; वह केवल बोधमात्र ब्रह्म है, वही तुम हो ।।“
“जो वस्तु उत्पन्न होती है , वह ही बढ़ती है और सभ्य आने पर वह ही मृत्यु को प्राप्त होती है । परन्तु तुम व्यापक, अजर , अमर हो ; इसलिए तुम्हारा न जन्म है और न मरण ही । यह जो शरीर है , कर्मवश उत्पन्न होता है , सम्यक रूप से बढ़ता है और नष्ट हो जाता है । तुम इस शरीर की समस्त अवस्थाओं में स्थित रहते हुए , ज्ञानस्वरूप द्रष्टा ( साक्षी ) हो ।।“
“समाधि में रत परमहंसों के समूहों के द्वारा जिस असीम सुखरूप आत्मस्वरूप का निर्मल अंतःकरण में सम्यकरूप से साक्षात ( प्रत्यक्ष ) दर्शन कर , निरन्तर सन्तोष (परमानन्द) पाया जाता है ; वह केवल बोधमात्र (ज्ञानस्वरूप) ब्रह्म , तुम ही हो ।।“
“जो कभी अस्त न होनेवाले ज्ञानरूप निजस्वरूप में कल्पना किये हुए ( आरोहित ) आकाश आदि सकल जगत के अस्तित्व को प्रदान करता है और जो अपने तेज के द्वारा सबमें स्फुरण शक्ति ( चेष्टा करने की शक्ति) अर्पण करता है , वह केवल बोधमात्र ( ज्ञानस्वरूप ) साक्षात अर्थात प्रत्यक्ष ब्रह्म , तुम ही हो ।।“
“भीतर-बाहर स्वयं अखण्डरूप एकरूप , मूढ़बुद्धि मनुष्य के कल्पित ( आरोपित) पदार्थ के समान उदय होता हुआ सा प्रतीत होता है तथा सुन्दर मृत्तिका ( स्फटिक) आदि के समान विकाररहित , आत्मा के द्वारा ही अनुभव करने योग्य केवल बोधमात्र जो ब्रह्म है , वह तुम हो ।।“
“श्रुति ने जिसको अविनाशी, अनन्त, अनादि , अव्यक्त, अक्षर ( सदा एकरूप ), अनाश्रय ( किसी का आश्रय न लेनेवाला ) , आनन्दसद्घनम् ( आनन्दमूर्ति और सत्स्वरूप ) , अनामय ( रोगरहित ) , अद्वितीय कहा है ; वह केवल बोधमात्र जो ब्रह्म है , वह तुम हो ।।“
अक्सर ध्यान योगी बातचीत में प्रदर्शन तो यही करते है कि उन को मोह, माया और ममता नही रही, किंतु सन्यासी हो कर भी गुरु बनने, पूज्य जाने, आश्रम में मठाधीश बनने आदि की दबी हुई इच्छाएं रह ही जाती है। नागा साधुओं को भिक्षा के घूमते और दान धर्म और पुण्य के नाम पर धन इकठ्ठा करते मैंने देखा है। कामना या आसक्ति जरूरी नहीं स्वयं के शरीर की हो, यह मृत्यु के बाद मोक्ष की भी हो सकती है। जिस का शरीर के साथ मन भी छूट गया हो, वह ही ब्रह्मभुत होने के योग्य है। इसलिए जैसे राख के ढेर में दबी हुई अग्नि कभी भी ज्वाला बन कर सभी कुछ नष्ट कर सकती है, वैसे कामना आसक्ति किसी भी प्रकार की यदि दबी पड़ी हो तो वह संपूर्ण ध्यान को विचलित कर सकती है।
ध्यान से जब तमो एवम रज गुणों की समाप्ति हो जाती है जो सुख सात्विक गुणों से प्राप्त होते है उन्हें उत्तम सुख कहा गया है। यह ठीक वैसा है जो तम गुणी जो सुख किसी की हत्या में लेता है और सत गुणी किसी के बचाव में। बचपन मे गौतम बुद्ध द्वारा एक पक्षी के प्राण रक्षा पर उस का अधिकार की कहानी का भाग है जिस में पक्षी का शिकार करने वाले की अपेक्षा उस के प्राण रक्षा करने वाले के अधिकार अधिक होते है।
यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक हैं कि गीता कर्मयोग का ज्ञान है इसलिये साधना में रत समाधिस्थ किसी योगी की अवस्था का वर्णन उस के मन के पूर्ण नियंत्रण का है। मन का विक्षेप, यानि रज-तम गुणों की निवृत्ति समाधि के अवस्था मे प्राप्त होने के बाद भी, योगी में पुनः समाधि से जागरण होने से जागृत हो जाता है, अतः यह अवस्था कर्म में लिप्त कर्मयोगी को ध्यान में रख कर पढ़ना चाहिये कि निष्काम भाव से कर्म करने और सृष्टि यज्ञ चक्र में क्रियाशील रहने के लिये मन को विक्षेप से किस प्रकार मुक्त रखे। इसलिये गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपना उपदेश आगे भी जारी रखते है।
ध्यान से प्राप्त योगी की अवस्था को अगले श्लोक में कुछ और भी पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।।6.27।।
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