।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.26 ।। Additional II
।। अध्याय 06.26 ।। विशेष II
।। स्वामी रामसुखदास जी ने परमात्मामें मन लगानेकी कुछ युक्तियाँ बताई है, जिन्हें भी प्रयोग में लाया जा सकता है।।विशेष – 6.26 ।।
(1) मन जिस किसी इन्द्रिय के विषय में जिस किसी व्यक्ति वस्तु घटना परिस्थिति आदि में चला जाय अर्थात् उस का चिन्तन करने लग जाय उसी समय उस विषय आदि से मन को हटाकर अपने ध्येय परमात्मा में लगाये। फिर चला जाय तो फिर लाकर परमात्मा में लगाये। इस प्रकार मन को बारबार अपने ध्येय में लगाता रहे।
(2) जहाँ जहाँ मन जाय वहाँ वहाँ ही परमात्मा को देखे। जैसे गङ्गाजी याद आ जायँ तो गङ्गाजी के रूप में परमात्मा ही हैं गाय याद आ जाय तो गाय रूप से परमात्मा ही हैं इस तरह मन को परमात्मा में लगाये। दूसरी दृष्टि से गङ्गाजी आदि में सत्ता रूप से परमात्मा ही परमात्मा हैं क्योंकि इन से पहले भी परमात्मा ही थे इन के मिटने पर भी परमात्मा ही रहेंगे और इन के रहते हुए भी परमात्मा ही हैं इस तरह मन को परमात्मा में लगाये।
(3) साधक जब परमात्मा में मन लगाने का अभ्यास करता है तब संसार की बातें याद आती हैं। इस से साधक घबरा जाता है कि जब मैं संसार का काम करता हूँ तब इतनी बातें याद नहीं आतीं इतना चिन्तन नहीं होता परन्तु जब परमात्मा में मन लगाने का अभ्यास करता हूँ तब मन में तरह तरह की बातें याद आने लगती हैं पर ऐसा समझ कर साधक को घबराना नहीं चाहिये क्योंकि जब साधकका उद्देश्य परमात्मा का बन गया तो अब संसार के चिन्तन के रूप में भीतर से कूड़ाकचरा निकल रहा है भीतर से सफाई हो रही है। तात्पर्य है कि सांसारिक कार्य करते समय भीतर जमा हुए पुराने संस्कारों को बाहर निकलने का मौका नहीं मिलता। इसलिये सांसारिक कार्य छोड़कर एकान्त में बैठने से उन को बाहर निकलने का मौका मिलता है और वे बाहर निकलने लगते हैं।
(4) साधक को भगवान् का चिन्तन करने में कठिनता इसलिये पड़ती है कि वह अपने को संसार का मानकर भगवान् का चिन्तन करता है। अतः संसार का चिन्तन स्वतः होता है और भगवान् का चिन्तन करना पड़ता है फिर भी चिन्तन होता नहीं। इसलिये साधक को चाहिये कि वह भगवान् का होकर भगवान् का चिन्तन करे। तात्पर्य है कि मैं तो केवल भगवान् का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं मैं शरीर संसार का नहीं हूँ और शरीर संसार मेरे नहीं हैं इस तरह भगवान् के साथ सम्बन्ध होने से भगवान् का चिन्तन स्वाभाविक ही होने लगेगा चिन्तन करना नहीं पड़ेगा।
(5) ध्यान करते समय साधक को यह ख्याल रखना चाहिये कि मन में कोई कार्य जमा न रहे अर्थात् अमुक कार्य करना है अमुक स्थान पर जाना है अमुक व्यक्ति से मिलना है अमुक व्यक्ति मिलने के लिये आनेवाला है तो उस के साथ बातचीत भी करनी है आदि कार्य जमा न रखे। इन कार्यों के संकल्प ध्यान को लगने नहीं देते। अतः ध्यान में शान्तचित्त होकर बैठना चाहिये।
(6) ध्यान करते समय कभी संकल्प विकल्प आ जायँ तो अड़ंग बड़ंग स्वाहा ऐसा कहकर उन को दूर कर दे अर्थात् स्वाहा कह कर संकल्प विकल्प (अड़ंगबड़ंग) की आहुति दे दे।
(7) सामने देखते हुए पलकों को कुछ देर बारबार शीघ्रता से झपकाये और फिर नेत्र बंद कर ले। पलकें झपकाने से जैसे बाहर का दृश्य कटता है ऐसे ही भीतर के संकल्प विकल्प भी कट जाते हैं।
(8) पहले नासिका से श्वास को दो तीन बार जोर से बाहर निकाले और फिर अन्त में जोर से (फुंकार के साथ) पूरे श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक दे। जितनी देर श्वास रोक सके उतनी देर रोककर फिर धीरेधीरे श्वास लेते हुए स्वाभाविक श्वास लेनेकी स्थितिमें आ जाय। इससे सभी संकल्पविकल्प मिट जाते हैं।
गीता में ध्यान लगाने से पूर्व स्थान, स्वास्थ्य, आसन एवम समय आदि चर्चा की गई थी। ध्यान की प्रक्रिया सात्विक प्रक्रिया है। इसलिये पातंजलि ने योग सूक्तम में कैवल्य तक पहुंचने के अष्टांग योग की रचना की, जिस से शरीर से ले कर मन-बुद्धि सभी स्वस्थ एवम कैवल्य की प्राप्ति के योग्य हो। ध्यान परमात्मा के समाहित होने की प्रक्रिया है, न कि परमात्मा को जानने की। जिन्हें हम जानते है वह हम नही हो सकते। स्वामी विवेकानंद जी ध्यान में अपने मन की गतिविधियों को नजर रखने को कहा है जिस से मन भागता- घूमता एक स्थानपर शनैः शनैः स्थिर होने लगता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 6.26 ।।
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