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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  06.26 ।।

।। अध्याय    06.26  ।।

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 6.26

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌॥

“yato yato niścalati,

manaś cañcalam asthiram..।

tatas tato niyamyaitad,

ātmany eva vaśaḿ nayet”..।।

भावार्थ : 

मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे। (२६)

Meaning:

Wherever the fickle and unstable mind strays, remove it from there and constantly focus it only on the self.

Explanation:

Having asked the meditator to slowly but surely practice meditation, Shri Krishna elaborates on what exactly is the aspect of meditation that needs constant practice and repetition. He urges the meditator to check the mind as soon as it strays into another thought and bring it back to the thought of the self. The meditator must do this again and again, each time the mind strays. It is one of the most practical shlokas about meditation.

As we practice meditation, we begin to appreciate the speed at which the mind moves from thought to thought. For example, let’s say that the thought of taking a one-week vacation enters the mind. It then leads to a chain of thoughts. First the mind makes a list of all our favourite vacations spots. Then it calculates how much each place will cost. Then it visualizes what each of those places looks like. It might also bring up memories of past vacations. The mind has thought all of this within seconds. By the time we are aware that the mind is thinking like this, it has strayed far away from the object of meditation.

Shree Krishna says the mind is fickle and we should be prepared that it will wander off in the direction of its infatuation, despite our best efforts to control it. So, he asks us not to feel disappointed.

Success in meditation is not achieved in a day; the path to perfection is long and arduous. When we sit for meditation with the resolve to focus our mind upon God, we will find that ever so often it wanders off in worldly saṅkalp and vikalp. It is thus important to understand the three steps described earlier involved in the process of meditation. We have to repeat the same to set our mind worldly affairs to GOD.

Then slowly, the mind’s attachment toward God will start increasing. And simultaneously, its detachment from the world will also increase. As this happens, it will become easier and easier to meditate. But in the beginning, we must be prepared for the battle involved in disciplining the mind.

So therefore, Shri Krishna urges us to be extremely vigilant and alert with regards to our thoughts during meditation. We have to cultivate this vigilance as a habit. We have vigilant habits in other parts of our life. Men, for example, check their face daily for any stray hairs just after shaving. Similarly, we should be vigilant about stray thoughts during meditation. The constant practice of removing stray thoughts is called “abhyaasa”.

The mind loves to stray towards thoughts about objects, people and situations that we have given importance to. Abhyaasa helps us diminish our importance towards stray thoughts. Shri Shankaraachaarya in his commentary gives us a wonderful tip with regards to abhyaasa. Each time we encounter a stray thought, we should instantly analyze it like a scientist. We should inspect each thought and say: it is nothing but name and form on top of the eternal essence. If the thought is about name and form only, then it is not real, it is does not have “satyatva”. And if it is not real, it is not important, so I should not go after it.

Furthermore, if the very same thought occurs the next time, we should inspect it and say : I have already determined that this thought is not important to me. If we do so each time that same thought comes, we develop dispassion or vairagya towards it. Only then will meditation work properly.

If we follow this technique, the mind will eventually become quiet – “prashaanta”.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व दो श्लोकों से साधकों के मन में उत्साह आता है परन्तु जब वे अभ्यास में प्रवृत्त होते हैं तब जो कठिनाई आती है उस से उन्हें कुछ निराशा होने लगती है। प्रत्येक साधक यह अनुभव करता है कि उस का मन समस्त विरोधों को तोड़ता हुआ ध्येय विषय से हटकर पुन विषयों का चिन्तन करने लगता है। कारण यह है कि मन का स्वभाव ही है चंचलता और अस्थिरता। न वह किसी एक विषय का सतत अनुसन्धान कर पाता है और न विभिन्न विषयों का। यद्यपि ध्यान के समय साधक अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है तथापि मन पूर्व अनुभवों की स्मृति से विचलित होकर पुन विषयों का चिन्तन प्रारंभ करने लगता है ये क्षण एक सच्चे साधक के लिए घोर निराशा के क्षण होते हैं। मन का यह भटकाव अनेक कारणों से हो सकता है जैसे भूतकाल की स्मृतियां किसी आकर्षक वस्तु का सामीप्य किसी से राग या द्वेष और यहाँ तक कि आध्यात्मिक विकास के लिए अधीरता भी। भगवान् का उपदेश हैं कि मन के विचरण का कोई भी कारण हो साधक को निराश और अधीर होने की आवश्यकता नहीं है। उस को यह समझना चाहिए कि अस्थिरता तो मन का स्वभाव ही है और ध्यान का प्रयोजन ही मन के इस विचरण को शांत करना है।साधक को उपदेश दिया गया है कि जब जब यह मन ध्येय को छोड़कर विषयों की ओर जाय तब तब उसे वहाँ से परावृत्त कर के ध्येय में स्थिर करे। दृढ़ इच्छा शक्ति के द्वारा कुछ सीमा तक मन को विषयों से निवृत्त किया जा सकता है परन्तु वह पुन उन की ही ओर जायेगा। साधकगण भूल जाते हैं कि वृत्ति प्रवाह ही मन है और इसलिए वृत्तिशून्य होने पर मन रहेगा ही नहीं अत विषयों से मन को निवृत्त करने के पश्चात् साधक को यह आवश्यक है कि उस समाहित मन को आत्मानुसंधान में प्रवृत्त करे। भगवान् इसी बात को इस प्रकार कहते हैं कि मन को पुन आत्मा के ही वश में लावे।

मन की समाधि लगाने की क्रिया का यह वर्णन कठोउपनिषद में दी गयी रथ एवम घोड़ो की उपमा से अच्छा व्यक्त होता है। जिस प्रकार उत्तम सारथी घोड़ो की लगाम थाम कर उन्हें इधर उधर भागने से रोक कर निर्धारित मार्ग पर ले कर चलता है उसी प्रकार का प्रयत्न मनुष्य को अपने मन को स्थिर कर लेने का अभ्यास समाधि लगाने के लिए करना पड़ता है। मन तो मौका मिलते ही इधर या उधर खिसक ही जाता है और उस को स्थिर एवम ध्यान में लगाये रखने के लिये उस की लगाम खींच कर रखनी पड़ती है।

अब एक बार पूर्व के अध्ययन को दोहराते है कि इंद्रियां कर्म एवम ज्ञान दो प्रकार की होती है किंतु वो स्वयं में कुछ नही करती। इंद्रियाओ के ऊपर मन है और मन के ऊपर बुद्धि। बुद्धि मन को नियंत्रित तो करती है किंतु वो चेतन की इच्छा के अनुसार। यदि चेतन मोह एवम अहम में है तो बुद्धि उसी के अनुसार कार्य करेगी और यदि चेतन मोह एवम अहम से छूटना चाहता है तो बुद्धि इस के अनुसार ही कार्य करेगी। मोह एवम अहम प्रकृति का त्रियामी गुण है जो चेतन को आत्मा से अलग रखता है और प्रकृति अपने इन्ही दो हथियारों द्वारा माया के प्रयोग से जीव को इस संसार के लिये उपयोग करती है। जैसे ही जीव मोह एवम अहम से दूर होता है तो परम तत्व को प्राप्त करता है। परमतत्व का ज्ञान सांसारिक है किंतु उस को प्राप्त करना मोक्ष है। आत्मा का सबन्ध परमात्मा से होने से ही बीच बीच मे चेतन को मोक्ष के लिये संकेत मिलते रहते है जिन को पकड़ कर जीव इन जीवन मरण के चक्कर से मुक्त होने का मार्ग अपना सकता है।

मन आप के संस्कारों, कर्म बंधन, अनुभव एवम आदतों के संग्रहालय है, जब आप आइस क्रीम खाते है उस के ठंडे और मीठे होने का अनुभव सब से पहले मन को लगता है। वो पुराने अनुभव एवम संस्कार से उस का आनन्द लेने लग जाता है और बुद्धि को यह संदेश भी भेजता है। बुद्धि मन की जिद से विवश हो जाये या विवेक से यह तय करे कि यह करना लाभ दायक है या नही। यदि नही तो आइस क्रीम खाने को मना करेंगी और यदि आप का मन बुद्धि के नियंत्रण में है तो आप मन मसोस कर आइस क्रीम नही खाएंगे। आप पढ़ाई कर रहे है और TV कोई चला देता है जिस में आप के पसंद की कोई पिक्चर आ रही है। मन पिक्चर देखने को भागेगा और बुद्धि उसे पढ़ने को कहेगी। यदि आप का मन पर कंट्रोल है तो आप विचलित नहीं होंगे यदि नही तो मन आप को समझा देगा कि अभी पिक्चर देखते है फिर बाद में पढ़ाई कर लेंगे। मन की गति इतनी तीव्र है कि कुछ ही पल में वो अंतरिक्ष, पृथ्वी या किसी भी स्थान का चक्कर लगा सकता है, कल्पना कर के आप को भ्रमित कर सकता है।

मन मे अंकित यह अनुभव, संस्कार एवम कर्म बंधन बुद्धि तक इंद्रियाओ से ग्रहीत कोई भी विषय मूल रूप नहीं देता वरन मन अपने अनुसार तोड़ मोड़ कर देता है। बुद्धि प्राप्त तथ्यों के आधार पर निर्णय ले कर चेतन को देती है जहां यदि मोह एवम कामना का बंधन अधिक है तो चेतन मन को ज्यादा और बुद्धि को कम सुनता है। इस का उदाहरण धृष्टराष्ट्र है जिस का चेतन पुत्र मोह एवम राज्य की कामना से ग्रसित था इसलिये संजय द्वारा गीता सुनकर भी ज्ञान प्राप्त नही कर सका। ज्ञान मन के एकाग्र होने पर ही समझ में आता है, इसलिए गीता का अध्ययन करते समय हम घड़ी, व्यवसाय या परिवार या सामाजिक दायित्व या आमोद – प्रमोद में रहे तो कानो से सुना या आंखों से पढ़ा, याद या कंठस्थ अवश्य हो सकता है, परंतु ज्ञान नही उपजता। इसलिए गीता पढ़ने से जिस आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए, वह हमे नही मिल पाती। गीता पढ़ने वाले शिक्षार्थी अवश्य बन जाते है किंतु विद्यार्थी नही बन पाते। जब मन शुद्ध, शांत और एकाग्र नहीं होता, तो वह अर्थ भी अपने स्वार्थ के अनुसार तय करता है। इसलिए ध्यान में बार बार इधर उधर भागते हुए मन को खींच कर एक ही ओर ले जाना होता है।

मन का अपना साम्राज्य है वो विषयो की ओर भागता है उस की गति इसलिये निम्न बताई गई है। उस पर नियंत्रण न हो तो जीवन पशु की भांति ही होता है। चेतन यदि मोह एवम कामना से लिप्त है तो वो बुद्धि की कम और मन की ज्यादा सुनता है और व्यक्ति विवेक खो कर अनैतिक कार्य तक करने लग ज्यादा है।

मन मे कार्य करने की शक्ति अथाह है, उस के पास अनुभव एवम किसी भी वस्तु का ज्ञान है वो बस भला या बुरा नही जानता। इसलिये यदि चेतन मोह एवम कामना को त्याग कर मन को बुद्धि से नियंत्रित करता है वो हर असंभव कार्य को कर सकता है। क्योंकि मन चंचल एवम अस्थिर है तो जब भी परमात्मा का ध्यान लगाते है तो वो विषयो की ओर भागता है। ध्यान में भटकाव उस का कभी कभी इतना उच्च श्रेणी का होता है कि ध्यान लगाने वाले आधे से ज्यादा लोग यह समझ कर विषयो में फसे रहते है कि वो ध्यान लगा रहे है। इस मे कभी रंग दिखना, कभी आत्मानुभूति होना, कभी मंदिर या तस्वीर में देखी हुई भगवान की छवि नजर आना,  कभी पूर्व आभास होना भी शामिल है। ध्यान आप को कामना, मोह एवम अहम से मुक्त कर परमात्मा से जोड़ता है इसलिये जब भी ध्यान में कुछ भी अनुभव परमात्मा के अतिरिक्त हो तो विषय ही है। क्योंकि परमतत्व में सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही है। वो ही दिव्य दृष्टि एवम दिव्य कर्म है, वो ही अकर्ता होते हुए भी सृष्टि यज्ञ चक्र का संचालन करता है। उस का कोई रुप, आकार एवम परिभाषा नही बस वो दिव्य ही है। वो व्यक्त हो कर भी अव्यक्त है इसलिये ध्यान में मन को इंद्रियाओ, बुद्धि से वश में कर के चेतन को परमात्मा तक ले जाना भर है फिर यह भी नही रहता, सिर्फ परमात्मा है। जब सब कुछ सिर्फ परमात्मा ही है तो जो ध्यान में अनुभव होते है वो सभी मन के ही एक अनुभव होते है। मन अस्थिर है, वो चंचल है वो आप को वश में करना चाहता है और आप उसे।मन के पास मोह एवम कामनाओं के साथ सांसारिक सुख है और आप के पास बुद्धि एवम विवेक है।

अतः भगवान कहते है मन को स्थिर करो, यदि मन स्थिर है तो ही विषयानुराग समाप्त होगा। ध्यान योग में बार बार अपने लक्ष्य से भागते मन को दृढ़ता के साथ लक्ष्य की ओर ले जाना पड़ेगा। सोते बैठते,  उठते, जागते काम करते या आराम करते मन पर नियंत्रण रखें उसे परमात्मा की ओर स्थिर करे, यही ध्यान है।

अब यह भी समझ ले कि ध्यान चेतना से परमात्मा का है, अतः ध्यान स्वाधीनता है, पराधीनता नही। यदि ध्यान लगाने के लिए भरपेट भोजन, नशा या कुछ क्रिया करनी पड़े और वह आदत बन जाए तो वह ध्यान भोजन, नशा या उस क्रिया के पराधीन हो गया। ध्यान के साधन का उपयोग ध्यान को सीखने के लिए आवश्यक हो सकता है, जैसे मंत्र या नाम का जप, आसन, रोशनी आदि किंतु ध्यान का साधन साध्य नहीं हो सकता। जीव यदि भौतिक संसाधनों में अपने को अर्थात मेरापन देखता है तो वह अज्ञान में ही रहता है, ध्यान में सब कुछ त्यागना पड़ता है। इसलिए मन को स्थिर ईश्वर में करते हुए ध्यान किया जाता है, जिस से मन भी त्याग कर ब्रह्मसंध या ब्रह्मभूत हो सके।

कर्म योग, सांख्य योग, ज्ञान योग, भक्ति योग एवम ध्यान योग परमात्मा की प्राप्त करने के साधन है जिस में प्रकृति से प्राप्त शरीर, इंद्रियाओ, मन और बुद्धि द्वारा आत्मा को परमात्मा में मिलाना भर है। प्रकृति है यह साधन साध्य को प्राप्त करने पश्चात प्रकृति की क्रिया भर रह जाते है और जीव अकर्ता हो कर प्रकृति की  समस्त क्रियाओं का साक्षी भर होता है। हम अज्ञान में ज्ञान की चर्चा कर  चुके है। यह ज्ञान पुस्तको, प्रवचनों एवम भजन-कीर्तन आदि कर के प्राप्त होता है। इस ज्ञान का प्रवक्ता द्वैत-अद्वैत, मोक्ष, ध्यान, परब्रह्म आदि सभी को परिभाषित कर सकता है किंतु स्वयं मोक्ष के लिये समस्त कामना-आसक्ति और अहम छोड़ने के लिये तैयार नही होता। मोक्ष का मुमुक्षु भय रहित होता है, ध्यान निज के अनुभव की प्रक्रिया है अतः ध्यान लगाने वाले मुमुक्षु को भय त्याग कर मन को वश में करने का पूर्ण अभ्यास करना चाहिये और इस के किसी अनुभवी गुरु का आश्रय भी लेना चाहिये।

आगे मन को स्थिर कर के हम योग की अवस्था को पढते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 6.26।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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