।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.24 ।।
।। अध्याय 06.24 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 6.24॥
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
“sańkalpa-prabhavān kāmāḿs,
tyaktvā sarvān aśeṣataḥ..।
manasaivendriya-grāmaḿ,
viniyamya samantataḥ”..।।
भावार्थ :
मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को सभी ओर से वश में करे। (२४)
Meaning:
Totally discarding all desires born out of thought projections, withdrawing the mind from sense objects everywhere.
Explanation:
In this and the next shloka, Shri Krishna gives us a method for dealing with one of the biggest challenges in meditation i.e. uncontrolled desires. He says that in order to fulfill the goal of keeping the mind established in the self, we have to completely withdraw the mind from all sense objects and tackle desires at their root.
Initially, the thoughts are in the form of sphurṇā (flashes of feelings and ideas). When we insist on the implementation of sphurṇā, it becomes saṅkalp. Thus, thoughts lead to saṅkalp (pursuit of these objects) and vikalp (revulsion from them), depending upon whether the attachment is positive or negative. The seed of pursuit and revulsion grows into the plant of desire, “This should happen. This should not happen.” Both saṅkalp and vikalp immediately create impressions on the mind, like the film of a camera exposed to the light. Thus, they directly impede meditation upon God. They also have a natural tendency to flare up, and a desire that is a seed today can become an inferno tomorrow. Thus, one who desires success in meditation should renounce the affinity for material objects.
As we have seen in the “ladder of fall” in the second chapter, a thought is born as soon as we begin brooding or day dreaming over an object, person or situation towards which we have raaga (attraction) or dvesha (hatred). The more time we spend brooding on the object, the more force is gathered by the thought, just like a snowball gathering momentum.
It is this brooding over objects that we like or hate that has to be checked. Only this restraint will stop desires in their tracks. But to pull this off, we have to follow a multi-pronged approach. First, we have to be aware of our thinking process so that we can stop the brooding the instant it starts. It is just like stopping any phone calls or outside interference when we are in an important meeting. Next, we have to apply this technique to all types of brooding or daydreaming, not just to objects we hate. Finally, we have to constantly examine our likes and dislikes so that we can develop dispassion towards them.
Foremost around “desire-generators” are sense objects. Our sense organs are programmed to rush towards objects that they like, and rush away from things that they dislike. While they rush, they drag our mind along, causing distraction and agitation. That is why it is advised to meditate in a clean and quiet place so that the sense organs cannot come into contact with anything and distract us. Gradually, as we get more proficient in meditation, we should ensure that the sense organs do not take in strong impressions that can pop up later in meditation. For example, if we love oranges, then we should be careful not to eat an orange just before meditation, otherwise the mind will keep thinking about the orange.
Now, once the mind has been withdrawn from the senses, it will seek an outlet for the outward force that used to rush out towards sense objects. If this force is not provided with a suitable outlet, we will get into trouble. So what should we do with all the latent energy that is stored up? Shri Krishna discusses this point in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
ध्यान के साधन, विधि एवम ध्यान की अवस्था के बारे में पढ़ने के बाद, अब ध्यान लगाने के बारे में भगवान श्री कृष्ण पुनः कहते है कि ध्यान की प्रक्रिया सब से पहले उन सभी संकल्पों को त्यागना पड़ेगा जिस से आसक्ति पैदा होती है।
जब तक मन और बुद्धि इंद्रियों के संकल्प और विकल्प से नही हटेगा, ध्यान में व्यक्ति की अपूर्ण कामनाओं, आसक्तियों और अहम का ध्यान होगा। व्यक्ति ध्यान मुद्रा में अपने भूतकाल की बाते या भविष्य की चिंता करेगा और ध्यान में वे बाते ज्यादा उभर कर आयेंगी, जो वह घटना स्थल पर करना तो चाहता था किंतु किसी कारण या सामर्थ्य के अभाव में नही कर पाया। इस ध्यान से ईर्ष्या, घृणा, अहम, लोभ, काम वासना और आसक्ति आदि तामसी गुणों का अधिक विकास होता है और ध्यान से हम सत की अपेक्षा असत की ओर अधिक बढ़ते है। सात्विक ध्यान के आवश्यक है कि मन और इंद्रियों को नियंत्रित कर के पहले इसे कामना, आसक्ति, मोह, लोभ और अहम से हटाया जाए।
पूर्व श्लोक के उदाहरण पर पुनः विचार करे तो आईने के सामने ईश्वर को देखने के लिये अज्ञान का पर्दा या भ्रम हटना आवश्यक है। किंतु यदि मन वश में न हो तो यह अज्ञान में जो ज्ञान उपजता है वह अहम और दर्प का उपजता है और अपने अहंकार में जीव अपने को ईश्वर मानने लगता है। यही अज्ञान में ज्ञान का अज्ञान ही है। यही तो रावण, तालिबानियों, कंस, सिकन्दर, हिटलर, औरंगजेब, दुर्योधन जैसे लोगो को हुआ था। इस के लिये ही भगवान श्री कृष्ण कहते है कि अज्ञान का पर्दा हटाने के मन पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।
जब ज्ञान में धृति का अभाव हो तो वह अज्ञान ही है। शास्त्रो का अध्ययन, यज्ञ, सत्संग, मंदिर, पूजा, पाठ, योग आदि करने वाले अनेक लोग इन के साथ कंचन, कामिनी एवम सत्ता में उतने ही डूबे हुए होते जो ज्ञान को नही जानते। धृति के अभाव और प्रत्याहार के बिना ज्ञान भी अज्ञान ही है।
इस लोक और परलोक के भोगों की जितनी और जैसी- तीव्र, मध्य या मंद कामनाये है उन्हें ही सर्वांन कमान करते हुए बताया गया है। इस मे स्पृहा, इच्छा, तृष्णा, आशा और वासना आदि कामनाये अनेक शब्द एवम अर्थ में आ जाती है।
यह कहना अनुचित नही है कि मनुष्य के अंदर ही सब कुछ है बाहर कुछ भी नही। जो अंदर है वैसा ही बाहर इंद्रियाओ द्वारा देखा या बताया जाता है। इन्द्रिया यानि आंख, कान, नासिका, हाथ और जीभ जिसे हम रुप,शब्द, गंध, स्पर्श एवम रस स्वयं में कुछ भी नही करती। यह ही मन के अंदर व्यक्त या अव्यक्त रूप ने पहले से है। इस लिये जिसे हम सुंदर कहते है वो अन्य में किसी और प्रकार से हो तो कुरूप भी हो सकती है। इन सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान बचपन मे ही हमे कराया जाता है क्योंकि पैदा होते ही हम निर्लिप्त होते है। किंतु ज्ञान प्राप्ति के साथ मन मे इन के प्रति विशिष्ट कामनाये इन के उपयोग एवम संगत से जन्म जाने अनजाने में ले लेती है। जैसे भोजन करते वक्त स्वाद। यह कामनाओं का बीज स्वरूप ही संकल्प होता है। वृक्ष भले ही नष्ट हो जाये किन्तु यदि बीज सुरक्षित है तो पुनः वृक्ष बन सकता है। अतः ध्यान की प्रथम प्रक्रिया में सब से पहले इन संकल्पों को बीज से हटा देने से मन एकाग्र हो सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति की निष्ठा यदि कर्म पर अधिक है तो वह कृतृत्व भाव की प्रधानता अर्थात अहम को बढ़ावा देता है और यदि उस की निष्ठा ईश्वर पर अर्थात जो कर्म होता है वह ईश्वर की इच्छा से होता है तो वह पराधीनता है।
इसलिए महात्मा लोग अपने चित्त को छोड़ देते है, जैसे आकाश में सब कुछ व्यवहार होते हुए भी आकाश न तो कुछ ग्रहण करता है और न ही कुछ त्याग करता है। वैसे ही महात्मा लोग न तो कृतृत्व का अभिमान रखते है और न ही ईश्वर के संकल्प की पराधीनता रखते है। इंद्रियों का निग्रह शम और दम से होता है किंतु इस में बेइमानी की कोई गुंजाइश नहीं। इसलिए जब आसक्ति या कामना का वेग आ भी जाए तो आकाश की भांति निर्लिप्त हो कर उस वेग को दृष्टा की भांति देखो और शांति से निकल जाने दो।
मेज पर यदि कोई पानी से भरा गिलास रखा हो तो उसे हम अपनी संकल्प रूपी कामनाओं के रूप में देखते है और तय करते है कि यह क्यों, किसने, किसलिए, किस के लिए, किस प्रकार, किस उद्देश्य से , मेरे लिए है क्या जाने किन किन विचारों के साथ देखते है, जब कि सिर्फ गिलास रखा है इस भाव से नही देखते। यह विभिन्न विचार ही कामनाओं के संकल्प रूपी बीज है। इन को नष्ट करने से मन शांत होगा और तरह तरह के विचार नही उठेंगे।
एक अन्य उदाहरण में लोग हमें जाने इस के लिए हम whatsapp पर अनेक ग्रुप में शामिल हो जाते है, फिर कोई संदेश देने के बाद बार बार व्हाट्सएप्प बार बार देखते है कि किसी ने कोई कमेंट तो नही किया। अच्छा कमेंट हमे प्रसन्न करता है और खराब निराश। किसी संदेश से हम प्रभावित होते है और किसी को नकार देते है। व्हाट्सअप पर यह समस्त प्रक्रिया हमारे अंदर की समस्त कामनाओं एवम संकल्पों का मूर्त रूप है, जिन्हें कामनाये नही है वो सिर्फ व्हाट्सएप्प को अपने कार्य मात्र के लिये सही प्रकार से उपयोगी बना पाते है बाकी न्यून या अधिक अपने संकल्पों एवम कामनाओं के शिकार भी होते है और तर्क द्वारा उस को सही भी मन की संतुष्टि के लिए कर भी लेते है।
अतः यह स्पष्ट है बाहर कुछ भी ऐसा नही जो अंदर से पैदा न हो। जिस काम को हम करना चाहते है या छोड़ना चाहते है वो काम नही हमारी अपनी बनाई हुई आवश्यकता, राग, मोह और भय है। ध्यान लगाना भी अंदर से पैदा होगा अन्यथा इस को अनेक तर्क द्वारा टाल दिया जाता है। यह जो अंदर है वो की कामना या संकल्प है, इस को मुक्त करे तो आप भी मुक्त हो जाएंगे और मन को एकाग्र कर पाएंगे।
सांसारिक वस्तु व्यक्ति पदार्थ देश काल घटना परिस्थिति आदि को ले कर मन में जो तरह तरह की स्फुरणाएँ होती हैं उन स्फुरणाओं में से जिस स्फुरणा में प्रियता सुन्दरता और आवश्यकता दीखती है वह स्फुरणा संकल्प का रूप धारण कर लेती है। ऐसे ही जिस स्फुरणा में ये वस्तु व्यक्ति आदि बड़े खराब हैं ये हमारे उपयोगी नहीं हैं ऐसा विपरीत भाव पैदा हो जाता है वह स्फुरणा भी संकल्प बन जाती है। संकल्प से ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं चाहिये यह कामना उत्पन्न होती है। इस प्रकार संकल्प से उत्पन्न होनेवाली कामनाओं का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।यहाँ कोई भी और किसी भी तरह की कामना नहीं रहनी चाहिये।
कामना का बीज (सूक्ष्म संस्कार) भी नहीं रहना चाहिये। कारण कि वृक्ष के एक बीज से ही मीलों तक का जंगल पैदा हो सकता है। अतः बीज रूप कामना का भी त्याग होना चाहिये। जिन इन्द्रियों से शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध इन विषयों का अनुभव होता है भोग होता है उन इन्द्रियों के समूह का मन के द्वारा अच्छी तरह से नियमन कर ले अर्थात् मन से इन्द्रियों को उनके अपने अपने विषयों से हटा ले। मन से शब्द स्पर्श आदि विषयों का चिन्तन न हो और सांसारिक मान बड़ाई आराम आदि की तरफ किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव न हो। तात्पर्य है कि ध्यानयोगी को इन्द्रियों और अन्तःकरणके द्वारा प्राकृत पदार्थों से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद का निश्चय कर लेना चाहिये।
अब इन कामनाओं का त्याग और इन्द्रियों का निग्रह कैसे करें इस का उपाय आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 6.24।।
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