।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.21 ।।
।। अध्याय 06.21 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 6.21॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥
“sukham ātyantikaḿ yat tad,
buddhi-grāhyam atīndriyam..।
vetti yatra na caivāyaḿ,
sthitaś calati tattvataḥ”..।।
भावार्थ :
तब वह अपनी शुद्ध चेतना द्वारा प्राप्त करने योग्य परम-आनन्द को शरीर से अलग जानता है, और उस अवस्था में परमतत्व परमात्मा में स्थित वह योगी कभी भी विचलित नही होता है। (२१)
Meaning:
That infinite joy which is comprehended by the intellect but is beyond the senses, when he experiences that state and is established in it, he does not move away from his essence.
Explanation:
Previously, Shri Krishna explained that the perfected meditator taps into a source of permanent joy once he detaches the mind from the sense organs and connects it to his self. In this shloka, he elaborates on the nature of that joy. He says that this joy is infinite and is comprehended only by the intellect. Also, he says that once we are established in this joy, no external circumstance will knock us or take us away from this state.
We have been seeking perfect bliss for eons, and everything we do is in search of that bliss. However, from the objects of gratification, the mind and senses perceive only a shadowy reflection of true bliss. This sensual gratification fails to satisfy the longing of the soul within, which yearns for the infinite bliss of God.
When the mind is in union with God, the soul experiences the ineffable and sublime bliss beyond the scope of the senses. This state is called samādhi in the Vedic scriptures.
For success in samādhi, surrender to the Supreme Lord.” In the state of samādhi, experiencing complete satisfaction and contentment, the soul has nothing left to desire, and thus becomes firmly situated in the Absolute Truth, without deviating from it for even a moment.
Let us examine the nature of this joy. Shri Krishna says that it is aatyantikam or infinite. Now, the material world is an expert in giving us infinite sorrow. There are moments in our life when the degree of sorrow is low, and we tend to think that this is joy whereas in reality it is just a lower grade of sorrow. Any new object, person or situation that we encounter carries within it the seed for innumerable sorrows. But the joy that one gets from the self is infinite.
Why is the joy from the self-infinite? All our worldly joys are dependent on external situations. For some of us, a perfect climate makes us happy, causing us to become sad if the climate changes. For some of us, a certain person makes us happy, so we become dependent on that person and consequently feel sad if that person leaves us. We keep creating subsets in the world: I like A, which means I don’t everything that is not A. But here’s the problem; A is finite and temporary. The joy experienced in the self is independent of all external situations that are temporary in nature. That is why it is infinite.
Another characteristic of this joy is that it is beyond the comprehension of the senses. Just like we cannot catch a satellite TV signal with a regular antenna, our senses cannot catch this joy. It is of a different wavelength altogether. It is only comprehended by our intellect, which operates at a much higher level than our mind and senses.
As an example, consider two teenagers who are at a party where everyone else is enjoying a cigarette. Both of them are offered a cigarette by their friends. The sense organs are reporting the same information to both the teenager’s intellects – that cigarette smoking is enjoyable and that all their friends are doing it. One teenager accepts the offer and takes a puff. But the other teenager has a refined intellect and it “sees” that this will only lead to sorrow in the end. In the same way, the intellect experiences joy that the senses cannot experience.
Shri Krishna further goes on to say that once the perfected meditator is established in this joy, he will never deviate from it. It is like a child learning that 2+2 = 4. Once he has internalized this teaching, it stays with him throughout his life. Similarly, once the perfected meditator realizes this self as his true nature, he will not feel the need to take on any other role or identification for the purpose of fulfilment.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व के अध्याय में हम ने समतत्व भाव एवम ब्रह्मसंस्थ पढ़ा था। ध्यान योग में भी चित्त को निरुद्ध कर के आत्मा से साक्षात्कार करने को पढ़ा।
इस से क्या होता है उस की चर्चा है। प्रकृति से संबंधित कोई भी वस्तु शाश्वत नही है। यह शरीर, इंद्रियां, मन कुछ भी शाश्वत नही है। अतः इन के द्वारा जिस सुख का आनंद लेने की बात है वो भी शाश्वत नही है। अतः सुख की कामना एवम लालसा ही प्रकृति है, सुख का आधार है। इसलिये जिस की जैसी कामना और लालसा है यदि वो उसे प्राप्त है तो सुख यदि नही तो दुख। एक का सुख दूसरे का दुख भी हो सकता है।
इसी सुख को अक्षय सुख , अत्यन्त सुख और ऐकान्तिक सुख कहा गया है।
इस सुख को यहाँ ‘आत्यन्तिक‘ कहने का तात्पर्य है कि यह सुख सात्त्विक सुख से विलक्षण है। कारण कि सात्त्विक सुख तो परमात्मविषयक बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न होता है; परन्तु यह आत्यन्तिक सुख उत्पन्न नहीं होता, प्रत्युत यह स्वतःसिद्ध अनुत्पन्न सुख है।
‘अतीन्द्रियम्‘–इस सुख को इन्द्रियों से अतीत बताने का तात्पर्य है कि यह सुख राजस सुख से विलक्षण है। राजस सुख सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, परिस्थिति आदि के सम्बन्ध से पैदा होता है और इन्द्रियों द्वारा भोगा जाता है। वस्तु, व्यक्ति आदि का प्राप्त होना हमारे हाथ की बात नहीं है और प्राप्त होने पर उस सुख का भोग उस विषय (वस्तु, व्यक्ति आदि) के ही अधीन होता है। अतः राजस सुख में पराधीनता है। परन्तु आत्यन्तिक सुख में पराधीनता नहीं है। कारण कि आत्यन्तिक सुख इन्द्रियों का विषय नहीं है। इन्द्रियों की तो बात ही क्या है, वहाँ मन की भी पहुँच नहीं है। यह सुख तो स्वयं के द्वारा ही अनुभवमें आता है। अतः इस सुख को अतीन्द्रिय कहा है।
‘बुद्धिग्राह्यम्‘ इस सुख को बुद्धिग्राह्य बताने का तात्पर्य है कि यह सुख तामस सुख से विलक्षण है। तामस सुख निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है। गाढ़ निद्रा- (सुषुप्ति) में सुख तो मिलता है, पर उस में बुद्धि लीन हो जाती है। आलस्य और प्रमाद में भी सुख होता है, पर उस में बुद्धि ठीक- ठीक जाग्रत् नहीं रहती तथा विवेक- शक्ति भी लुप्त हो जाती है। परन्तु इस आत्यन्तिक सुख में बुद्धि लीन नहीं होती और विवेकशक्ति भी ठीक जाग्रत् रहती है। पर इस आत्यन्तिक सुख को बुद्धि पकड़ नहीं सकती; क्योंकि प्रकृति का कार्य बुद्धि प्रकृति से अतीत स्वरूपभूत सुख को पकड़ ही कैसे सकती है? यहाँ सुख को आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य बताने का तात्पर्य है कि चित्त योग से प्राप्त सुख इंद्रियाओ द्वारा ग्रहण नही किया जा सकता इसलिये ” अत्यन्तिकम, अतीन्द्रिय एवम बुद्धिग्राह्य माना गया है।
ध्यान योगी का आत्मा से साक्षात्कार होने के बाद का सुख ही वो परम सुख है जो कभी नष्ट नहीं होता। क्योंकि उस का संबंध अनित्य से है।
यह सृष्टि परब्रह्म के संकल्प से उत्पन्न विकल्प है। जिस प्रकार मनुष्य कल्पना करता हुए, एक संसार या घटना क्रम को रच लेता है जैसा कि हम स्वप्न में अक्सर देखते है, यह सृष्टि भी परब्रह्म के संकल्प से उत्पन्न है। इसलिए जिस प्रकार स्वप्न में हम सुख – दुख, भय आदि का अनुभव करते है और यह भी जानते है कि यह सत्य नही है। उसी प्रकार इस जगत में जो कुछ भी अनुभव होता है वह इंद्रियों, मन और बुद्धि से जनित होता है किंतु सत्य अर्थात स्थायी नही होता है। इसी कारण जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य कहा गया है। जगत मिथ्या का अर्थ जगत के नही या झूठा होने से नही लेंगे, इस का अर्थ है जगत में जो कुछ भी है वह अस्थायी है। फिर जब जीव इस जगत के प्रपंच से ऊपर उठ कर परब्रह्म से जुड़ जाता है तो वह जो भी अनुभव करेगा, वह स्थायी ही होगा। परब्रह्म सत्चित्तानंद का स्वरूप है, प्रकाशवान है, नित्य है, इस लिए यहां जुड़ जाने से जीव जो परब्रह्म का ही अंश है, नित्य है, साक्षी है, सत्चित्तानंद् स्वरूप है, प्रकाशवान हैं, अपने मूल स्वरूप को अज्ञान के हटने से प्राप्त कर लेता है।
उदाहरण में हम यूं समझे कि घर से निकल कर विभिन्न स्थान पर यात्रा करते हुए हम आनंद लेते अवश्य है, किंतु जैसे ही वापस घर लौटते है तो हमे अत्यंत सकून को महसूस करते है। वैसे ही जब जीव विभिन्न 84 लाख योनियों में जन्म – मरण के दुख को भोगता हुआ, विचरण करता है और प्रकृति के अनित्य सुख और दुख को भोगता है तो उसे वापस अपने ब्रह्मसंध स्वरूप प्राप्त होने से जो आनंद मिलता है, उस को शब्दो में वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह अनुभव से प्राप्त आनंद है। इस आनंद को ज्ञान, प्रवचन या अन्य किसी भी प्रकार से वर्णन नहीं किया जा सकता। यह जीव का अपना ही स्वयं का आनंदमय स्वरूप है।
हमे यह भी समझना होगा कि प्रकृति से जो उसे देह और इंद्रियां, मन और बुद्धि प्राप्त है, क्या वह नष्ट हो जाती है। तो इस का उत्तर है नही। क्योंकि जन्म पूर्व जन्म के फलों को भोगने के लिए मिलता है, इसलिए जो संचित कर्म प्रारब्ध के अनुसार शुरू हो गए है, वह तो जीव को भोगने ही है और शेष संचित कर्म नष्ट हो जाते है। इसलिए इस योगी का शेष जीवन सत्चित्तानंद स्वरूप में आनंद को अनुभव करते हुए गुजर जाता है, जबकि धरती पर वह सामान्य जीव की भांति ही कर्म और व्यवहार करते हुए दिखता है।
ध्यानयोगी अपने द्वारा ही अपने आप के सुख का अनुभव करता है और इस सुख में स्थित हुआ वह कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होता अर्थात् इस सुख की अखण्डता निरन्तर स्वतः बनी रहती है। परम सुख को प्राप्त सिख गुरुओं की कथाएं कई है जिन्हें इस संसार के दुख या लालच डिगा न सके और उन्होंने लोकसंग्रह हेतु समस्त तकलीफों को हँसते हँसते झेला, राजा परीक्षित द्वारा ज्ञान प्राप्ति के बाद मृत्यु की स्वीकार् करना या फिर देश की आजादी के लिए अनगिनत तकलीफों को सहन करने असंख्य देश भक्त आदि आदि। तात्पर्य यह निकला कि मनुष्य जब तक अपनी मान्यता को स्वयं नहीं छोड़ता तब तक उस को दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। जब अपनी मान्यता को भी कोई छुड़ा नहीं सकता तो फिर जिस को वास्तविक सुख प्राप्त हो गया है उस सुख को कोई कैसे छु़ड़ा सकता है और वह स्वयं भी उस सुख से कैसे विचलित हो सकता है नहीं हो सकता।मनुष्य उस वास्तविक सुख से ज्ञान से आनन्द से कभी चलायमान नहीं होता इस से सिद्ध होता है कि मनुष्य सात्त्विक सुख से भी चलायमान होता है उस का समाधि से भी व्युत्थान होता है। परन्तु आत्यन्तिक सुख से अर्थात् तत्त्व से वह कभी विचलित और व्युत्थित नहीं होता क्योंकि उस में उस की दूरी भेद भिन्नता मिट गयी और अब केवल वह ही वह रह गया। अब वह विचलित और व्युत्थित कैसे हो विचलित और व्युत्थित तभी होता है जब जडता का किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध रहता है। जब तक जडता का सम्बन्ध रहता है तब तक वह एकरस नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति सदा ही क्रियाशील रहती है।
ध्यानयोगी तत्त्व से चलायमान क्यों नहीं होता इसका कारण आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 6.21।।
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