।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.15 ।।
।। अध्याय 06.15 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 6.15॥
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥
‘yuñjann evaḿ sadātmānaḿ,
yogī niyata-mānasaḥ..।
śāntiḿ nirvāṇa-paramāḿ,
mat-saḿsthām adhigacchati”..।।
भावार्थ :
इस प्रकार निरन्तर शरीर द्वारा अभ्यास कर के, मन को परमात्मा स्वरूप में स्थिर करके, परम-शान्ति को प्राप्त हुआ योग में स्थित मनुष्य ही सभी सांसारिक बन्धन से मुक्त होकर मेरे परम-धाम को प्राप्त कर पाता है। (१५)
Meaning:
In this manner, the yogi who has subdued his mind, who always engages his self in me, attains ultimate liberation- bearing peace, established in me.
Explanation:
Previously, Shri Krishna explained the prerequisites and the method of meditation. Now, he speaks about the result or the fruit of meditation. He says that meditation, if followed as the technique prescribed here, brings us that peace that yields self-realization.
Varieties of techniques for meditation exist in the world. There are Zen techniques, Buddhist techniques, Tantric techniques, Taoist techniques, Vedic techniques, and so on. Each of these has many sub- branches. Amongst the followers of Hinduism itself, there are innumerable techniques being practiced. Which of these should we adopt for our personal practice? Shree Krishna makes this riddle easy to solve. He states that the object of meditation should be God himself and God alone.
The journey towards this end goal obviously will take a long time. But there are intermediate results along the way. One who begins to drop attachment and fascination for material objects attains a state of ever- increasing peace. However, this peace does not lead to liberation. It is not “nirvaana paramam”.
Only peace gained by meditating upon the self leads to liberation. Initially, the sense of peace is only present while meditating, but slowly remains with the seeker for longer periods of time. Till the final stage is reached, the person may falter in his journey. Once the final stage is reached, he will never turn back.
The aim of meditation is not merely to enhance concentration and focus, but also to purify the mind. Meditating on the breath, chakras, void, flame, etc. is helpful in developing focus. However, the purification of the mind is only possible when we fix it upon an all- pure object, which is God himself.
At the mandah level, first stage, God is personal God, with a particular form like Rāma rūpam, Krishna rūpam, Devi rūpam, it is called ēka rūpam dhyānam; and when a person is advanced, then the very same Lord becomes viśva rūpaḥ; anēka rūpa, which means I see the lord as the very creation itself; and once a person is still advanced and he has studied the upanishads or vēdānta, for him is prescribed arūpa dhyānam; transcending both one form and many form, we come to formless Īśvara; and when one comes to formless God; the meditator- meditated-division disappears; the dvaitam will get converted to advaitham; bheda upāsanam or dhyānam gets transformed into abēda dhyānam; for ēka rūpa dhyānam also bhēdam is there; in anēka rūpa dhyānam also there is bhēda;
Now, what is the source or this peace? Shri Krishna says that it is he who is the source of this peace. One of the fundamental lessons of the Gita is that only the eternal essence can give everlasting bliss and peace. Everything else gives temporary peace. Therefore, Shri Krishna urges the seeker to comprehend this fact and stop going after objects in the material world for happiness and peace.
।। हिंदी समीक्षा ।।
साधक नियत मानस तभी हो सकता है जब उसके उद्देश्य में केवल परमात्मा ही रहते हैं। परमात्मा के सिवाय उस का और किसी से सम्बन्ध नहीं रहता। कारण कि जब तक उस का सम्बन्ध संसार के साथ बना रहता है तब तक उस का मन नियत नहीं हो सकता। साधक से यह एक बड़ी गलती होती है कि वह अपने आप को गृहस्थ आदि मानता है और साधन ध्यानयोग का करता है। जिस से ध्यानयोग की सिद्धि जल्दी नहीं होती। अतः साधक को चाहिये कि वह अपने आप को गृहस्थ, साधु, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि किसी वर्ण आश्रम का न मान कर ऐसा माने कि मैं तो केवल ध्यान करने वाला हूँ। ध्यान से परमात्मा की प्राप्ति करना ही मेरा काम है।
जिस का मन जीता हुआ है ऐसा योगी उपर्युक्त प्रकार से सदा आत्मा का समाधान करता हुआ अर्थात् मन को परमात्मा में स्थिर करते करते मुझ में स्थित निर्वाणदायिनी शान्ति को उपरति को पाता है अर्थात् जिस शान्ति की परमनिष्ठा अन्तिम स्थिति मोक्ष है एवं जो मुझ में स्थित है मेरे अधीन है ऐसी शान्ति को प्राप्त होता है।
बहिर्मुखी मन आत्मानुसंधान के योग्य नही होता। अतः पिछले श्लोक में अंतर्मुखी साधना कैसे करनी चाहिए, इस का वर्णन हम ने पढ़ा। गीता में योग उपनिषद में वर्णित योग का ही स्वरूप है। योग से मुख्य तौर पर अन्तःकरण, अहम एवम मन के द्वंद को नियंत्रित करना एवम मन से इंद्रियाओ को रोकना तांकि वो बहिर्मुखी न हो। गीता हठ योग का समर्थन नहीं करती एवम न ही योग को जीव के जीवन का लक्ष्य मानती है, गीता का आधार ज्ञानयुक्त कर्मयोग है जिस में कर्मयोगी अपने समस्त कर्म परमात्मा को समर्पित करते हुए निष्काम भाव से करता है और अपने कर्तव्य धर्म का पालन करता है। वो कर्म करते हुए भी अकर्ता है, अपने कर्मो का साक्षी है। इसलिये योग का अध्ययन इस बात को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए कि योग इंद्रियाओ, मन और बुद्धि है अंतर्मुखी एवम नियंत्रण के लिए है, न कि समस्त जीवन योगाभ्यास करते रहने के लिए। ध्यान से परमानंद की पराकाष्ठा रूप शांति जिस में परमेश्वर की प्राप्ति अर्थात नैष्ठिकि शांति, परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति अर्थात शाश्वती शांति एवम परम गति की प्राप्ति अर्थात परा शांति की प्राप्ति होती है।
सदा योगाभ्यास जारी रखने से मन काबू में रहता है। सदा का अर्थ 24 घण्टे नहीं हो सकता, यह नियमित व्यायाम करने के समान है। चित की एकाग्रता योग से दृढ़ होती है और उस के बाद ही इस एकाग्रता को यदि परमात्मा में न लगा कर केवल इंद्रिय निग्रह में लगाया जाता है तो यह क्लेश प्रद शक्तियों की ओर आकर्षित होता है जिस में जारण, मारण या वशीकरण आदि सिध्दियां उतपन्न हो जाती है और योगी मार्ग से भटक कर कुमार्ग में चला जाता है। योग साधना में सिध्दियां ही सब से कठिन अवस्था होती है जिस को पार केवल परमात्मा में एकचित हो कर उस के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही योग की साधना का हेतु बना कर ही कर सकते है। हमेशा ध्यान रखे चमत्कार दिखानेवाला योगी, एक भटका हुआ योगी है जिस में परमात्मा को प्राप्त करने की बजाय अपने अहम की दासता स्वीकार कर ली है। आज की दुनिया मे ऐसे योगी पुरुष के पीछे भागने वाले स्त्री-पुरुष कर्म बंधन से बंधे लोग होते है जो जीवन मरण के चक्कर से न तो मुक्त हो सकते है और न ही उन के दुखों का निवारण हो सकता है। यह लोग लोकसंग्रह का कोई कार्य नही करते और देश, समाज और धर्म के नाम पर समाज मे अंधविस्वास एवम कुछ कुरीतियों को अवश्य ही बढ़ाते है।
योग से परमात्मा या मोक्ष की प्राप्ति तभी होगी जब शारीरिक, मानसिक, आत्मिक योग होगा। पातंजलि योग में कैवल्य की स्थिति के शरीर- मन – बुद्धि सभी को एकाग्र करना पड़ता है। जब हम अपने अंदर के विकार को मिटा देते है, मन के विक्षेप समाप्त हो जाते है तो हम परमात्मा से जुड़ने के योग्य हो जाते है और हमारे अंदर ज्ञान का उदय होना शुरू हो जाता। अतः ध्यान मन के विक्षेप निर्वाण का साधन है, स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन के बिना ध्यान नही लग सकता और जब तक हम निष्काम, निर्लिप्त और निर्द्वंद नही हो कर समभाव नही होते, हमे परम् ज्ञान नही हो सकता।
याद रखने योग्य बात यही है कि योग से मन को एकाग्र कर के यदि परमात्मा से नही जोड़ा जाए तो योग निरा कलेश का कारण बनता है और व्यक्ति अहम में क्लेशप्रद जारण, मारण, या वशीकरण आदि कर्म करने लग जाता है, जिसे मोक्ष प्राप्त करने के अंतिम उद्देश्य के लिये किसी भी प्रकार से नही स्वीकार किया जा सकता। जो भौतिक स्वास्थ्य लाभ या सिद्धि, या भौतिक सुख सुविधा प्राप्ति के लिये योग करता है, वह भोगी कहलाता है, योगी नही। न ही भौतिक अस्तित्व की समाप्ति के अर्थ शून्य में प्रवेश है, क्योंकि गीता में शून्य का कोई अस्तित्व ही नही है।
ज्ञानयुक्त कर्मयोगी समाज को मुक्ति का मार्ग दिखाते है एवम लोकसंग्रह के लिये कर्म करते है। उन के कर्म ही समाज मे अनुकरणीय होते है।
ध्यान की प्रक्रिया आत्मशुद्धि की प्रक्रिया है इसलिए योग में स्वस्थ शरीर, आहार, विचार और योग आसन को महत्व दिया गया है। शरीर की स्थिति, स्वांस की प्रक्रिया और इंद्रियों का नियमन आदि से ध्यान की शुरुवात किसी वस्तु, परमात्मा की मूर्ति या फोटो, दीप की लौ आदि से शुरू होता है, जिसे रूप ध्यान कहा जाता है। जब रूप ध्यान में मन स्थिर हो जाता है तो मानस ध्यान अर्थात विश्वरूप ध्यान शुरू होता है, जिस में योगी संपूर्ण विश्व के कण कण में परमात्मा के स्वरूप को देखता है। विश्वरूप ध्यान के बाद अद्वैत भाव का ध्यान अर्थात अपने आत्म स्वरूप का ध्यान है। आत्मस्वरुप का ध्यान ब्रह्म का ध्यान है जिस में योगी ब्रह्म स्वरूप को आत्मसात करता है। इसे ब्रह्मसंध भी कहते है।
ब्रह्म स्वरूप में योगी को सत चित्त आनंद अर्थात कभी भी समाप्त न होने वाले नित्य आनंद की प्राप्ति और परमशांति की प्राप्ति होती है। जीव के समस्त संचित कर्म नष्ट हो जाते है और वह अपने प्रारब्ध कर्म को भोग कर जन्म मरण के चक्कर से मुक्त हो जाता है।
पंचदशी में जीवमुक्ति को परिभाषित करते हुए लिखा है जीवनमुक्ति का मतलब यही है कि संसार की खटपट में भी बुद्धि स्थिर रह सके। गंभीर से गंभीर और उत्तेजक से उत्तेजक अवस्था में भी परमात्मतत्व को याद रखते हुए उस पर मजबूत दृष्टि जमाए हुए, संसार की यात्रा पूर्ण की जाए।
अब योगी के लिए आहार और निंद्रा आदि के बारे भगवान श्री कृष्ण क्या कहते है? उसे पढेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।।6.15।।
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