।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 06.07 ।। Additional II
।। अध्याय 06.07 ।। विशेष II
।। मन ।। विशेष 6.07 ।।
यदि हम किसी अध्ययन में वस्तु या पद्धिती की विस्तृत जानकारी रखते है तो उस स्थिति को प्राप्त करने की जानकारी आसानी से समझ सकते है। गीता में योगरूढ़ की अवस्था को इस अध्याय में पढ़ने के बाद, हम कैसे उस स्थिति की आगे प्राप्त कर सकते है, वह भी पढ़ेंगे। यही बात मन की जानने की है। मन की जानकारी से ही मन का निग्रह कर के उस को वश में करना संभव हो पायेगा।
मन मस्तिष्क की उस क्षमता को कहते हैं जो मनुष्य को चिंतन शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि, भाव, इंद्रियाग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि में सक्षम बनाती है।सामान्य भाषा में मन शरीर का वह हिस्सा या प्रक्रिया है जो किसी ज्ञातव्य को ग्रहण करने, सोचने और समझने का कार्य करता है। यह मस्तिष्क का एक प्रकार्य है।
मन और इस के कार्य करने के विविध पहलुओं का मनोविज्ञान नामक ज्ञान की शाखा द्वारा अध्ययन किया जाता है।
मानसिक स्वास्थ्य और मनोरोग किसी व्यक्ति के मन के सही ढंग से कार्य करने का विश्लेषण करते हैं। मनोविश्लेषण नामक शाखा मन के अन्दर छुपी उन जटिलताओं का उद्घाटन करने की विधा है जो मनोरोग अथवा मानसिक स्वास्थ्य में व्यवधान का कारण बनते हैं। वहीं मनोरोग चिकित्सा मानसिक स्वास्थ्य को पुनर्स्थापित करने की विधा है। सामाजिक मनोविज्ञान किसी व्यक्ति द्वारा विभिन्न सामाजिक परिस्थितयों में उसके मानसिक व्यवहार का अध्ययन करती है। शिक्षा मनोविज्ञान उन सारे पहलुओं का अध्ययन करता है, जो किसी व्यक्ति की शिक्षा में उसके मानसिक प्रकार्यों के द्वारा प्रभावित होते हैं।
जिस के द्वारा सब क्रियाकलापो को क्रियानवृत किया जाता है। उसे साधारण भाषा में मन कहते है।।
फ्रायड नामक मनोवैज्ञानिक ने बनावट के अनुसार मन को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया था :
सचेतन: यह मन का लगभग दसवां हिस्सा होता है, जिस में स्वयं तथा वातावरण के बारे में जानकारी (चेतना) रहती है। दैनिक कार्यों में व्यक्ति मन के इसी भाग को व्यवहार में लाता है।
अचेतन: यह मन का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिस के कार्य के बारे में व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती। यह मन की स्वस्थ एवं अस्वस्थ क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। इस का बोध व्यक्ति को आने वाले सपनों से हो सकता है। इस में व्यक्ति की मूल-प्रवृत्ति से जुड़ी इच्छाएं जैसे कि भूख, प्यास, यौन इच्छाएं दबी रहती हैं। मनुष्य मन के इस भाग का सचेतन इस्तेमाल नहीं कर सकता। यदि इस भाग में दबी इच्छाएं नियंत्रण-शक्ति से बचकर प्रकट हो जाएं तो कई लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं जो बाद में किसी मनोरोग का रूप ले लेते हैं।
अर्धचेतन या पूर्वचेतन: यह मन के सचेतन तथा अचेतन के बीच का हिस्सा है, जिसे मनुष्य चाहने पर इस्तेमाल कर सकता है, जैसे स्मरण-शक्ति का वह हिस्सा जिसे व्यक्ति प्रयास करके किसी घटना को याद करने में प्रयोग कर सकता है।
फ्रायड ने कार्य के अनुसार भी मन को तीन मुख्य भागों में वर्गीकृत किया है।
इड (मूल-प्रवृत्ति): यह मन का वह भाग है, जिसमें मूल-प्रवृत्ति की इच्छाएं (जैसे कि उत्तरजीवित यौनता, आक्रामकता, भोजन आदि संबंधी इच्छाएं) रहती हैं, जो जल्दी ही संतुष्टि चाहती हैं तथा खुशी-गम के सिद्धांत पर आधारित होती हैं। ये इच्छाएं अतार्किक तथा अमौखिक होती हैं और चेतना में प्रवेश नहीं करतीं।
ईगो (अहम्): यह मन का सचेतन भाग है जो मूल-प्रवृत्ति की इच्छाओं को वास्तविकता के अनुसार नियंत्रित करता है। इस पर सुपर-ईगो (परम अहम् या विवेक) का प्रभाव पड़ता है। इसका आधा भाग सचेतन तथा अचेतन रहता है। इसका प्रमुख कार्य मनुष्य को तनाव या चिंता से बचाना है। फ्रायड की मनोवैज्ञानिक पुत्री एना फ्रायड के अनुसार यह भाग डेढ़ वर्ष की आयु में उत्पन्न हो जाता है जिसका प्रमाण यह है कि इस आयु के बाद बच्चा अपने अंगों को पहचानने लगता है तथा उसमें अहम् भाव (स्वार्थीपन) उत्पन्न हो जाता है।
सुपर-ईगो (विवेक; परम अहम्): सामाजिक, नैतिक जरूरतों के अनुसार उत्पन्न होता है तथा अनुभव का हिस्सा बन जाता है। इसके अचेतन भाग को अहम्-आदर्श (ईगो-आइडियल) तथा सचेतन भाग को विवेक कहते हैं।
ईगो (अहम्) का मुख्य कार्य वास्तविकता, बुद्धि, चेतना, तर्क-शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय-शक्ति, इच्छा-शक्ति, अनुकूलन, समाकलन, भेद करने की प्रवृत्ति को विकसित करना है।
वेद और मन
सृष्टि में एक ही मन है जिसे अव्यय पुरुष अर्थात कृष्ण का मन या आत्मा कहा गया है। इसे शवोवसियस मन भी कहा गया है। शेष मन नश्वर एवम प्रकृति का मन है जिस को हम जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति अवस्था से पहचानते है।
यह इन्द्रिय मन में सभी इन्द्रियों के व्यापार को अनुभव करते है, इसलिये इसे सर्वेन्द्रीयमन या अतीन्द्रिय मन भी कहते है। सर्वेन्द्रीय मन की शक्ति चंद्र सोम में निहित मानी गई है जो मन सुषुप्ति दशा में भी स्वांस- प्रशवास, रक्त संचार आदि बना रहता है। चंद्र सोम प्रभावित प्रज्ञान अथवा सर्वेन्द्रीय मन बाहरी या ऊपर का मन कहा जाता है।
जिस ज्ञानीय कामना से ये सत्वगुणी व्यापार बने रहते है, वह परमेष्ठी के महानात्मा का सत्व मन है, इसी को भीतर का मन कहा गया है।
इस प्रकार पृथ्वी, चंद्र, परमेष्ठी तथा हृदय बलगर्भित रस से चार मन इन्द्रिय मन (किसी एक इन्द्रिय से ), सर्वेन्द्रीय मन, महन्मन तथा सत्व मन बन रहे है जिन्हें प्रज्ञान, सत्व तथा आत्मा भी कहते है।
जिस मन को योगशास्त्र में मन कहा गया है वह पार्थिव मन है। यही वास्तव में शवोवसियस मन भी है।
मन एक भूमि मानी जाती है, जिस में संकल्प और विकल्प निरंतर उठते रहते हैं। विवेक शक्ति का प्रयोग कर के अच्छे और बुरे का अंतर किया जाता है। विवेकमार्ग अथवा ज्ञानमार्ग में मन का निरोध किया जाता है, इसकी पराकाष्ठा शून्य में होती है।
भक्तिमार्ग में मन को परिणत किया जाता है, इसकी पराकाष्ठा भगवान के दर्शन में होती है। जीवात्मा और इन्द्रियों के मध्य ज्ञान मन कहा जाता है।
मन और अध्यात्म
गीता में मन के लिये आत्मा शब्द का प्रयोग हम पिछले श्लोकों से पढ़ा है। मन आत्मा का साधन है। इसके द्वारा ही आत्मा की इच्छित क्रियाएं होती है। आत्मा का मन से, मन का इन्द्रियो से ओर इन्द्रियो का विषयो से (बाहरी संसार से) सम्पर्क होने पर ही आत्मा को ज्ञान तथा उसकी इच्छित क्रियाएं होती है।ज्ञान आत्मा का गुण है, मन का नही।
यस्मान् न ऋते किच्चन कर्म क्रियते। (यजुर्वेद ) अर्थात् — यह मन ऐसा है जिसके बिना कोई भी काम नही होता।
यही कारण है कि इसके सम्पर्क न होने पर हम देखते हुए भी नही देखते तथा सुनते हुए भी नही सुनते। यह आत्मा के पास ह्रदय मे रहता है। वेद मे इसे (ह्रदय मे निवास वाला ) कहा गया है। यह जड़ पदार्थ है। इसीलिए आत्मा से पृथक होकर कोई भी क्रिया नही कर सकता। यह आत्मा के साथ जन्म जन्मानतर मे रहता है।
मृत्यु पर भी आत्मा के साथ दूसरे शरीर मे जाता है। इसके पश्चात् आत्मा को नया मन मिलता है। इसे अमृत इसलिए कहा गया है कि यह शरीर के नाश होने पर नष्ट नही होता। क्योकि यह एक जड पदार्थ है। इसलिये इस पर भोजन का प्रभाव पडता है। जैसा खावे अन वैसा होवे मन। यह संस्कारो का कोष है। सभी संस्कार इस पर पड़ते है तथा वही जमा होते है। जो संस्कार प्रबल होते है वे ही उभर कर सामने आते है। जो दुर्बल होते है वे दबे पड़े रहते है। जैसे किसी गढ्ढे मे बहुत प्रकार के अनाज डाले जाये पहले गेंहू, फिर चने, फिर चावल उसके उपर जौ, उसके उपर मूंग, उड़द आदि। देखने वाले को वही दिखाई देगा जो सबसे उपर होगा, नीचे का कुछ भी दिखाई नही देगा।
पंचदशी में मन के विषय में कहा है कि अंदर की इंद्रियां जिसे मन भी कहते है, कभी कर्ता रूप में और कभी करण रूप में परिणित होती रहती है। जब कर्ता रूप में परिणित होती है तो उसे विज्ञानमय कोश कहते है और जब करण रूप मे परिणित होती है तो उसे मनोमय कोश कहते है। यह दोनो ही अंदर और बाहर होते रहते है, इस प्रकार एक ही तत्व के दो स्वरूप हो गए।
जगत ईश्वर का उत्पन्न किया हुआ है और जीव का भोग्य बन जाता है। जीव और ईश्वर एक ही स्वरूप में होते हुए भी भिन्न है। इसलिए ईश्वर के रूप में वह बनानेवाला और जीव के रूप में भोगने वाला है। मानोमय होने से पिता से उत्पन्न स्त्री पति के लिए भोग्या होती है।
मनोमय होने से जीव किसी भी वस्तु से अपना सम्बन्ध विभिन्न स्वरूप में जोड़ता है। इसलिए मन के द्वारा ग्रहण की गई वस्तु को पा कर जीव को या तो खुशी होती है, या नही मिलने पर दुख और तीसरी स्थिति उस के उदासीन भाव की है। इसलिए प्रिय, अप्रिय और उपेक्ष्य तीनो स्थिति मन से ही उत्पन्न होती है।
मन के प्राकृतिक गुण
वैधक शास्त्र सुश्रुत के अनुसार –इसमें मे सात्विक गुण प्रधान होने पर मनुष्य की स्थिति -अक्रूरता, अनादि वस्तु का ठीक ठीक वितरण,सुख, दु:ख मे एक सम,पवित्रा, सत्य, न्याय प्रयता शान्त प्राकृति ज्ञान ओर धैर्य। रजोगुण प्रधान होने पर :-1. घूमने का स्वभाव 2. अधीरता 3. अभिमान 4. असत्य भाषण 5. क्रूरता 6. ईष्या 7. द्वेष 8. दम्भ 9. क्रोध 10. विषय सम्बन्धी इच्छा। तामस मन के गुण :- 1. बुध्दि का उपयोग न करना 2. आलस्य- काम करने की इच्छा न होना 3. प्रमाद — अधिक नींद लेने की इच्छा 4. ज्ञान न होना 5. दुष्ट बुद्धि रहना।
मन के स्वरूप का विचार स्वतंत्र रूप से नही किया जा सकता, क्योंकि मन कभी स्वतंत्र होता ही नही। यह तो प्राण और वाक के साथ ही रहता है। सत्व- रज – तम की तरह मन- प्राण – वाक का भी अविनाभाव है। यहां तक कि मूल मन या शवोवसीयस मन भी सृष्टि क्रम में प्राण-वाक से जुड़कर ही सृष्टि करता है। सृष्टि की ओर प्राण-वाक स्थूल होते जाते है और प्रति सृष्टि में प्राण- वाक गौण हो जाते है। मन स्वयं गतिशील तत्व नही है, न ही वाक में गति है। गति केवल प्राणों के कारण होती है। मन मे उठने वाली कामना के अनुरूप ही प्राणों में गति होती है। जैसी क्रिया- वैसा ही निर्माण।
प्राण यदि शिथिल हो तो इच्छा दबी रह जाती है। प्राण ही इन्द्रियों के विषय को मन तक पहुचाने का कार्य करते है। प्राणों के शिथिल होने से ये कार्य भी ठहर से जाते है। व्यक्ति विरक्त सा, भावना में असहाय सा – कामना या वासना क्षेत्र में महसूस करता है।
साधना क्षेत्र में इसी प्राण रूपी वाहन को प्रभावी रूप से उपयोग लिया जाता है। प्राणायाम में प्राणों में ठहराव ला कर विषयो के मन तक आवागमन पर रोक लगाने का प्रयत्न किया जाता है। योग का यह अंश इन्द्रिय मन तक ही सीमित रहता है।
एक अन्य तथ्य अग्नि सोम से जुड़ा हुआ यह कि पंचपर्वा विश्व स्वयम्भू परमेष्ठी, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी में तीन अग्नि लोक है। पृथ्वी-सूर्य-स्वयम्भू एक तथा दो सोम लोक चंद्रमा एवम परमेष्ठी। चंद्र-सोम-पृथ्वी सूर्य से जुड़ा है और परमेष्ठी सोम से। परमेष्ठी सोम से स्वयम्भू एवम सूर्य का पोषण होता है। मन का मूल केंद्र परमेष्ठी होने से मन की पांच कला आनन्द- विज्ञान- मन- प्राण एवम वाक से हमारे पंचकोश का निर्माण होता है। इस मे तीन कोश अग्नि प्रधान -शरीर -प्राण -विज्ञानमय कोश तथा दो सोम प्रधान मनोमय और आनन्दमय होता है। अग्नि में गति है और सोम स्थिर तत्व है। शरीर अन्नमय कोश है और यह सब मन का ही परिवार या व्यापार क्षेत्र है।
मन का क्षेत्र असीमित है, किन्तु प्रारम्भिक ज्ञान के लिये इतना ही पर्याप्त है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 6.07 ।।
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