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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  05।। Preamble II

।। अध्याय    05 ।। प्रस्तावना II

II Preamble – Shreemadbhagwad Geeta Chapter Five – The Yog of Renunciation II

In this chapter, Shree Krishna compares karm sanyās yog (the path of renunciation of actions) with karm yog (the path of work in devotion). He says: we can choose either of the two paths, as both lead to the same destination. However, he explains that the renunciation of actions is rather challenging and can only be performed flawlessly by those whose minds are adequately pure. Purification of the mind can be achieved only by working in devotion. Therefore, karm yog is a more appropriate path for the majority of humankind.

The karm yogis with a purified intellect perform their worldly duties without any attachment to its fruit. They dedicate all their works and its results to God. Just as a lotus leaf that floats on water does not get wet, the karm yogis also remain unaffected by sin. They are aware that the soul resides within the body that is like a city with nine gates. Therefore, they do not consider themselves to be the doer nor the enjoyer of their actions. Endowed with the vision of equality, they look equally upon a Brahmin, a cow, an elephant, a dog, and a dog-eater. Seated in the Absolute Truth, such truly learned people develop flawless qualities similar to God. The ignorant worldly people do not realize that the pleasures they strive to relish from their sense objects are the very source of their misery. However, the karm yogis do not get any joy from such worldly pleasures. Instead, they enjoy the bliss of God, who resides inside them.

The first chapter described the nature of Arjun’s grief and created the setting for Shree Krishna to begin to relate spiritual knowledge to him.  In the second chapter, Shree Krishna revealed to Arjun the science of the self and explained that since the soul is immortal, nobody would die in the war, and hence it was foolish to lament.  He then reminded Arjun that his karm (social duty) as a warrior was to fight the war on the side of righteousness.  But, since karm binds one to the fruits of actions, Shree Krishna encouraged Arjun to dedicate the fruits of his works to God.  His actions would then become karm-yog, or “united with God through works.”

In the third chapter, the Supreme Lord explained that performing one’s duties is necessary because it helps to purify the mind.  But He also said that a person who has already developed purity of mind is not obliged to perform any social duty (verse 3.17). 

In the fourth chapter, the Lord explained the various kinds of sacrifices (works that can be done for the pleasure of God).  He concluded by saying that sacrifice performed in knowledge is better than mechanical ritualistic sacrifice.  He also said that all sacrifice ends in the knowledge of one’s relationship with God.  Finally, in verse 4.41, He introduced the principle of karm sanyās, in which ritualistic duties and social obligations are renounced and one engages in devotional service with the body, mind, and soul. 

These instructions perplexed Arjun.  He thought that karm sanyās (renunciation of works) and karm-yog (work in devotion) have opposite natures, and it is not possible to perform both simultaneously.

Lord Shree Krishna then describes karm sanyas yog or the path of renunciation. He says that the karm sanyasis control their mind, intellect, and senses by performing several austerities. By shutting out all their thoughts of external pleasures, they become free from fear, desire, and anger. And by including devotion to God in all their austerities, they attain long-lasting peace.

(Preamble- Courtsey – The songs of GOD –  Swami Mukundananda)

।। पंचमोSध्यायप्रस्तावना ।। कर्म सन्यास योग II

कर्म में कर्मयोग एवम सांख्ययोग निष्ठा का वर्णन है, सांख्ययोग मूलतः सन्यास योग है, इसलिये इस अध्याय को कर्म सन्यास योग भी कहा गया है।

द्वितीय अध्याय में ज्ञान योग एवम कर्म योग के विवेचन में अर्जुन का संशय बना रहा कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है?  तृतीय एवम चतुर्थ अध्याय में कर्म एवम ज्ञान में अर्जुन को अर्जुन यह जान नही पा रहा था कि कर्म को किस प्रकार करे या ज्ञान एवम कर्म में क्या सहज है, उस को अपने आत्मस्वरूप का अज्ञान भी था एवम अपने अज्ञान के कारण उसे यह नही समझ पा रहा था कि उस का वास्तविक स्वरूप क्या है और परब्रह्म से उस का क्या सम्बन्ध है। निष्काम कर्म के साथ ज्ञान का बार बार कहना एवम ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बताना किन्तु अपने सहज कर्म को करते रहने का ज्ञान या उपदेश देने से अर्जुन का संशय बढ़ गया कि दोनो में श्रेष्ठ कौन सा है।

पंचमोSध्याय मुख्य तौर पर कर्म सन्यास का है जिस के 29 श्लोक है। यदि समस्त कर्मो का पर्यवसान ज्ञान है, यदि ज्ञान से ही सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते है और यदि द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ ही श्रेष्ठ है, तो यह कहना कि धर्म युद्ध करना ही क्षत्रिय को श्रेयस्कर है या कर्मयोग का आश्रय कर युद्ध के लिये क्यों उठ खड़े होने को बोला जा रहा है?  इस प्रश्न का गीता उत्तर देती है कि समस्त संदेहों को दूर कर मोक्ष प्राप्ति के लिये ज्ञान की आवश्यकता है, और मोक्ष के लिये कर्म आवश्यक न हो तो भी कभी न छूटने के कारण वे लोकसंग्रहार्थ आवश्यक है; इस प्रकार ज्ञान और कर्म दोनों के ही समुच्चय की नित्य अपेक्षा है। अतः अर्जुन को इस पर भी शंका होती है कि यदि कर्म योग और सांख्य दोनों ही मार्ग शास्त्र में विहित है तो इन मे से अपनी इच्छा के अनुसार सांख्य मार्ग को स्वीकार कर कर्मो का त्याग करने में हानि ही क्या है? अतः यह निर्णय हो जाना चाहिये, कि इन दोनों मार्गो में श्रेष्ठ मार्ग कौन सा है। अर्जुन आप के स्थान पर आप की हर शंका का निवारण चाहता है। अतः गीता के अब पठन, मनन एवम क्रियावन की आवश्यकता है, क्योंकि भक्ति योग की भांति भागवत के श्रवण से स्वर्ग मिल सकता है किंतु गीता के पठन को आचरण में लाये बिना और स्वयं को तत्वदर्शन के योग बनाये बिना मुक्ती नही है।

प्रस्तुत अध्याय में कर्मयोगी की निर्लिप्तता एवम सांख्य योगी के अकर्तापन को बता कर दोनो की एकता को प्रतिपादित किया गया है। फिर भगवादर्पण बुद्धि से कर्म करने वाले की और कर्म प्रधान कर्मयोगी की प्रशंसा कर के कर्मयोगियों के कर्मो को आत्मशुद्धि में हेतु बताया गया है। फिर परब्रह्म परमात्मा में निरंतर अभिन्न भाव से स्थित रहने वाले महापुरषो की समदृष्टि और स्थिति का वर्णन कर के परमगति का प्राप्त होना बताया गया है। अंत मे  सांख्य एवम कर्म योगी की अंतिम स्थिति और निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त ज्ञानी पुरुष के लक्षण बता कर भगवान को सभी कर्मो का भोक्ता एवम सर्वलोकमहेश्वर बता कर अध्याय की समाप्ति की गई है।

वेद-उपनिषदों में ज्ञानियों के सर्व त्याग कर के सन्यास को ज्यादा महत्व दिया गया है, कर्मयोग भी सन्यासी यही मानते आ रहे है कि प्रारम्भ में चाहे सही हो, किन्तु अंत मे सभी त्याग कर सन्यास को धारण करना पड़ता है। गीता ने इस धारणा के विपरीत कर्म सन्यास योग में यही कहा है कि मोक्ष के लिये सन्यास ही एक मात्र मार्ग नही है, निष्काम कर्म योगी भी सांख्य योगी की भांति होता है एवम वह कर्म करते हुए भी, अकर्म करता है और सन्यासी की भांति होता है।

कर्म की अनिवार्यता को दृष्टिगत रखते हुए, ब्रह्मा द्वारा निमित्त सृष्टि यज्ञ चक्र को चलायमान रखने का दायित्व स्वयं परब्रह्म को भी करना पड़ता है, जिस के कारण वह दिव्य जन्म एवम दिव्य कर्म भी करता  है। महृषि व्यास से ले कर शंकराचार्य तक पूर्ण ब्रह्म के ज्ञान के बाद कर्मो का त्याग नही किया गया था। राजा जनक स्वयं निष्काम कर्मयोगी थे। वेद-उपनिषदों ने कभी भी कोई नकारात्मक संदेश कर्मयोग की, ज्ञान योग से तुलनात्मक नही दिया। अतः इस अध्याय के विवेचन में सन्यास को अधिक महत्व दे कर कुछ मीमांसकों ने जो विवेचना की है, वह भी विचारणीय है क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान को श्रेष्ठ बताते हुए चतुर्थ अध्याय के अंत मे अर्जुन को युद्ध ही करने को कहा था।

ज्ञान योग कठिन साधना है जिसे हर व्यक्ति द्वारा किया जाना संभव  नही, कर्मयोग द्वारा सहज कर्म करते हुए निष्काम होना, फिर कर्म सन्यासी हो कर निर्लिप्त भाव से लोकसंग्रह हेतु कर्म करते रहना अपेक्षाकृत सरल एवम उत्तम मार्ग है। यही हम आगे समझेंगे, कि दोनो मार्ग में कोई प्रतिद्वंदता नही है, वरन दोनो ही एक दूसरे के पूरक है एवम मोक्ष को प्राप्त करने में सहायक है।

गीता को पुनरावलोकन करने पर हमे ज्ञात होगा कि प्रथम अध्याय में अर्जुन के मोह, संशय, भय और अहम का वर्णन है, द्वितीय अध्याय में सांख्य और कर्म, फिर कर्म योग और पूर्व अध्याय में ज्ञान कर्म योग को पढ़ा। अभी तक यही धारणा देखने में आई कि कर्म को भी करने के लिए कामना, आसक्ति, मोह, लोभ, अहम आदि को त्यागने का ज्ञान दिया गया है, जो सन्यास के लिए भी है। तो सन्यासी हो कर यदि न्यूनतम अर्थात नित्य कर्म को कोई करता रहे तो उसे अन्य कर्म की आवश्यकता ही क्यों है। परंतु सभी शास्त्रों के अनुसार जीव के संचित और प्रारब्ध कर्म नष्ट नहीं होते। सन्यासी को भी प्रारब्ध कर्म को भोगना ही है, उस के संचित कर्म वह ज्ञान से नष्ट कर पाएगा। क्रियमाण कर्म सन्यासी को करने नही है और कर्म योगी उसे कामना, आसक्ति और अहम के बिना करता है। अतः अर्जुन को संशय बना रहा कि सन्यास से क्रियमाण और संचित कर्म नष्ट हो सकते है और  कर्म योग से भी यही कहा जा रहा है, तो दोनो में श्रेष्ठ कौन है। इस अध्याय में पूर्व में ज्ञान के साथ कर्म को हम ने समझा, अब कर्म को सन्यास के साथ भी समझाया जा रहा है। कर्म अर्थात क्रिया अर्थात प्रकृति द्वारा किया जाने वाला कार्य । किंतु जब जीव अज्ञान से यह समझ ले कि वह कर्ता या भोक्ता है, तो प्रकृति की क्रिया का स्वरूप बदल कर फल और कर्म बन्धन का हो जाता है। नदियों में जल का बहना, वायु का बहना या वनस्पति का उगना आदि में कोई कर्ता या भोक्ता नही है, किंतु अहम में जीव का क्षुद्र कार्य भी भोग और अहम का कारण बनता है। सन्यासी शरीर की क्रियाओं को जानता है, इसलिए वह कर्म से नही बंधता और कर्मयोगी भी ज्ञान से कर्म करते हुए अपने को कामना और आसक्ति से दूर रखता है, तो वह भी अकर्म ही करता है।  वास्तव में कोई भी मार्ग बढ़ा या छोटा नही है। यह प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता और पूर्व जन्म के फलों से तय होता है कि उस के कौनसा मार्ग सही है।

व्यवहार में देश के उच्चतम पद या विद्वत्ता के शिखर पर आसीन व्यक्ति का व्यक्तित्व और सन्यासी के व्यक्तित्व में अंतर नही होता। एक संन्यासी को भी डॉक्टर की आवश्यकता होती है तो डॉक्टर भी मन की शांति के लिए सन्यासी खोजता है।

इस विषय को अब आगे श्रद्धा, विश्वास, तत्परता एवम संयतेन्द्रीयता के साथ पढ़ते हुए मनन करते है।

।। हरि ॐ तत सत- प्रस्तावना 05 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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