।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.27-28 ।। Additional II
।। अध्याय 05.27-28 ।। विशेष II
।। ज्ञान, ध्यान और हम ।।विशेष 5.27-28 ।।
ज्ञान के तीन स्वरूप माने गए है, प्रथम जो भौतिक या मानसिक ज्ञान, जिसे हम व्यवहारिक जीवन मे उपयोग में लाते है, द्वितीय आध्यात्मिक ज्ञान जिस में हम अपनी कामना -आसक्ति को त्याग के निष्काम हो कर लोकसंग्रह हेतु कर्म करे, भक्ति या योग करे।अंतिम ब्रह्म ज्ञान में अपने अहम हो त्याग कर ब्रह्म से एक रूप हो। जब तक परब्रह्म की आराधना करने वाला एवम परब्रह्म है तो वह द्वैत है और जब दोनों मिल गए तो अद्वैत है। अतः ज्ञान की अंतिम एवम तृतीय अवस्था अद्वैत अर्थात ब्रह्मसन्ध की है।
जीव को कार्योपाधि के बंधा अर्थात कर्म से बंधा कहा जाता है। जब हम ध्यान में अपने सांसारिक दुखो के निवारण की और केंद्रित होते है तो यह सांसारिक निम्न कोटि का ध्यान है। अक्सर पूजा पाठ, यज्ञ, जप आदि में हम अक्सर TV मे देखते है कि आचार्य बने लोग छोटे छोटे टोटके बताते है, जिस से आप को कोई सांसारिक लाभ मिले। ईश्वर को कारणों उपाधि कहा जाता है। ईश्वर यानी संसार को चलाने वाली एक नियम शक्ति को कहते है। यह शक्ति प्रकृति और माया से इस संसार को चलाती है और जीव को उस के कर्मों के अनुसार फल देना, क्षमा करना या उस के पुनर्जन्म को तय करती है। इस का ध्यान माध्यम कोटि का ध्यान है जो जीव को देवताओं की श्रेणी में खड़ा करता है। जो यज्ञ, जप, दान पुण्य स्वर्ग या देवलोक के लिए जाते है, वे इस श्रेणी में आते है। योगी का पूर्ण ध्यान अपनी शक्ति को केंद्रित करने लगा रहता है जिस से वह कुछ सिद्धियों को भी प्राप्त करता है। ईश्वर और जीव से परे जो तत्व सत और असत है और जो यह दोनो भी नही है तथा जो देश, काल और वस्तु से परे है, वही ब्रह्म है। ध्यान से मुक्ति का अर्थ है अपने ब्रह्म स्वरूप में लीन हो जाना। जब जीव ध्यान में यह अवस्था को प्राप्त हो जाता है तो उसे ब्रह्मस्वरूप अर्थात ब्रह्म ही कहा जाता है, यही अद्वैत भी है।
इन्द्रिय- मन- बुद्धि में अहंता अर्थात अहम का ज्ञान ही मूल है। फिर इच्छा, भय और क्रोध कर के यह अहंता अधिक से अधिक मजबूत होता है। अतः मुमुक्षु के लिए आवश्यक है कि वह काम, क्रोध एवम भय का त्याग करें और संशय रहित हो कर अपने वास्तविक स्वरूप को समझे। अतः इस के आवश्यक प्रक्रिया ध्यान है, जिस का विस्तृत विवरण महृषि पातंजलि ने योग सूक्तम में किया है। योग सूक्तम – सांख्य योग के भाग के रूप में आरम्भ से शारीरिक, मानसिक एवम बौद्धिक विकास का व्यवहारिक ज्ञान एवम विधि है जिस से कोई भी मनुष्य ब्रह्मसन्ध की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। गीता में इस मे से मुख्य भाग ध्यान योग पर हम अध्याय 6 में पढ़ेंगे।
प्रस्तुत श्लोक ध्यान योग की भूमिका है जिस में ध्यान लगाने की विधि से अवगत कराया गया है अतः कुछ अधिक लंबा भी हो गया है। ध्यान एक गूढ़ एवम सर्वप्रचलित प्रक्रिया है इस में बाह्य एवम आन्तरिक समस्त क्रियाओं को समाप्त करते हुए, इंद्रियाओ, मन, बुद्धि एवम मन एवम बुद्धि के मध्य विवेक आदि समस्त प्राकृतिक साधनों को एकाग्र करते हुए परमात्मा में लीन करना होता है फिर वहां सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही होता है।
ध्यान की उच्च अवस्था मे योगी चलते, फिरते, बात करते सुनते, कर्म करते हुए हमेशा परमात्मा में लीन रहता है। यह नई बात अर्जुन को लगी जो अभी तक सांख्य एवम कर्म योग में उलझा हुआ था। अतः भगवान श्री कृष्ण अगले अध्याय में ध्यान योग के बारे में बताना शुरू करते है।
ध्यान के मामले में प्रायः अनेक अवधारणा एवम भ्रम प्रचलित है, इसलिये यह अध्याय से हम आशा रखे कि हमारे ज्ञान को नया मार्ग दर्शन होगा। ध्यान का अर्थ प्रायः मन की निष्क्रिय अवस्था से लिया जाता है। जब हम शरीर की समस्त इंद्रियों के बाह्य आकर्षण को समेट कर मन में केंद्रित करे, तो वह ध्यान कहलाता है। किंतु क्या यह संभव है। ध्यान का अर्थ है चिंतन, श्रवण तो कानो से होता है। इस के अतिरिक्त हम आंखों, नासिका और जिव्हा से भी कुछ न कुछ ग्रहण करते ही है। किंतु इस ग्रहण में धारण करने योग्य और त्यागने योग्य को समझने को ध्यान कहते है। क्योंकि मन बुद्धि से जुड़ा है और वह जो आनंद के लिए धारण करता है उस को साक्षी भाव से जो देखता है, वही प्राणी का स्वरूप है। जो हम खाते है, उस खाने की प्रक्रिया को शरीर कर्मेंद्रियो से करता है किंतु खाने के आनंद को जो महसूस करता है, वह उस जीव का आत्म स्वरूप होता है। इस जीव को अधिक से अधिक आनंद कब प्राप्त या महसूस होगा, जब यह स्थायी होगा। प्राकृतिक आनंद अस्थायी होता है। इस लिए मन को बाह्य आनंद की बजाय चिंतन द्वारा आत्मिक आनंद को ओर ले जाना, ही ध्यान है। इस को विशेष अवस्था में बैठ कर करने में सुविधा है किंतु यदि वह अवस्था चिंतन को शुरू करने की हो सकती है, ध्यान नहीं है। ध्यान योग मुद्रा त्यागने से बंद या पूर्ववत नही होगा, अतः ध्यान मन की अवस्था शरीर में 24 घंटे चलने वाली अवस्था है जो चलते फिरते, सोते जागते, खाते पीते सभी समय शुरू रहती है। मन प्राकृतिक सुखों का उपभोग भले ही करे किंतु उस पर आसक्त नही रहता। चिंतन ही जीव को पूर्ण ब्रह्म से जोड़ता है और उस आनंद में रहने वाला जीव सांसारिक सुख और दुख में समभाव रहता है।
पांच ज्ञानेद्रियो के अतिरिक्त इस संसार की यदि कोई भोग या महसूस करता है, वह प्रकृति के संयोग से लिप्त ब्रह्म स्वरूप आत्मा ही है। यह आत्मा हमे बार बार अनेक बार संपर्क करती है, विशेष तौर पर जब मन और बुद्धि आसक्ति, कामना में तमो गुण की बढ़ना शुरू करते है। इस को हम sixth sense अर्थात छठी इंद्री भी कहते है। छठी इंद्री हमारे ही मन की निर्लिप्त अवस्था है जो ध्यान की अवस्था में जब पांचों ज्ञानेद्रियों पर नियंत्रण हो जाने से सक्रिय हो जाती है। इस इंद्री के सक्रिय होने से जीव को ध्यान में जो अनुभव होते है, वह आध्यात्मिक, कालातीत और ब्रह्म की ओर ले जाने वाले होते है। ध्यान में छठी इंद्रिय को सक्रिय कर के रहने वाले जीव शांत और निष्काम कर्मयोगी ही होता है।
ध्यान हमारी छठी इंद्री चेतन को जाग्रत करता है। चेतन और चेतन्य यह जीव के दो स्वरूप है, जब तक जीव भ्रम में प्रकृति से अज्ञान वश जुड़ा रहता है तो वह कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव से बन्धन में रहता है, इंद्रियां, मन और बुद्धि इस भ्रमित चेतन की आसक्ति, कामना एवम कर्ता भाव मे कार्य करती है। खाने में स्वाद, फूलों में रंग और सुंदरता आदि जो हमारे अंदर महसूस करता है वह चेतन है। यही चेतन ज्ञान से अपने भ्रम हो जब तोड़ कर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है, तो वह चेतन्य कहलाता है।
बुद्धि के जाग्रत होने से हम यदि अपने भले और बुरे की पहचान कर पाते है, तो यही मन और बुद्धि ही साधन है जिस से जीव को अपने कर्ता और भोक्ता होने के अज्ञान से मुक्ति पाने का। ब्रह्म से जीव अलग होकर महंत भाव से जुड़ गया, यह अहम से अज्ञान हुआ कि वह कर्ता और भोक्ता है। वही भाव जिस से अज्ञान हुआ, मन और बुद्धि को नियंत्रित करने ज्ञात हो पाता है जिस से जीव अपने महंत को त्याग कर ब्रह्मसंध अवस्था को प्राप्त कर पाता है।
अतः ध्यान स्वस्थ शरीर और मन के लिए कोई योग शास्त्र नही है जिसे अक्सर हम व्यवहारिक योग गुरु से सीखते है। ध्यान से उठते ही यदि हमारा व्यवहार पुनः अपनी अवस्था को प्राप्त कर ले तो यह भी एक प्राकृतिक क्रिया ही है। इसलिए ध्यान की वास्तविक अवस्था पतंजलि योग शास्त्र में वर्णित अष्टांग योग में समाधि के पश्चात की अवस्था है। इसे हम आगे विस्तार से पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 5.27-28 विशेष ।।
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