।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.25 ।। Additional II
।। अध्याय 05.25 ।। विशेष II
।। परमपुजनीय रामसुखदास जी द्वारा प्रत्येक शब्द का विवेचन ।। विशेष 5.25।।
‘यतात्मानः‘–नित्य सत्यतत्त्व की प्राप्ति का दृढ़ लक्ष्य होने के कारण साधकों को शरीर- इन्द्रियाँ- मनबुद्धि वश में करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही सुगमतापूर्वक उन के वश में हो जाते हैं। वश में होने के कारण इन में राग-द्वेषादि दोषों का अभाव हो जाता है और इन के द्वारा होनेवाली प्रत्येक क्रिया दूसरों का हित करनेवाली हो जाती है।
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि को अपने और अपने लिये मानते रहने से ही ये अपने वश में नहीं होते और इन में राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि दोष विद्यमान रहते हैं। ये दोष जब तक विद्यमान रहते हैं, तब तक साधक स्वयं इन के वश में रहता है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह शरीरादि को कभी अपना और अपने लिये न माने। ऐसा मानने से इन की आग्रहकारिता समाप्त हो जाती है और ये वश में हो जाते हैं। अतः जिन का शरीर- इन्द्रियाँ- मन- बुद्धि में अपनेपन का भाव नहीं है तथा जो इन शरीरादि को कभी अपना स्वरूप नहीं मानते, ऐसे सावधान साधकों के लिये यहाँ ‘यतात्मानः’ पद आया है।
‘सर्वभूतहिते रताः‘ –सांख्ययोग की सिद्धि में व्यक्तित्व का अभिमान मुख्य बाधक है। इस व्यक्तित्व के अभिमान को मिटाकर तत्त्व में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव करने के लिये सम्पूर्ण प्राणियों के हित का भाव होना आवश्यक है। सम्पूर्ण प्राणियों के हित में प्रीति ही उस के व्यक्तित्व को मिटाने का सुगम साधन है। जो सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व के साथ अभिन्नता का अनुभव करना चाहते हैं, उन के लिये प्राणिमात्र के हित में प्रीति होनी आवश्यक है। जैसे अपने कहलानेवाले शरीर में आकृति, अवयव, कार्य, नाम आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी ऐसा भाव रहता है कि सभी अङ्गों को आराम पहुँचे, किसी भी अङ्ग को कष्ट न हो, ऐसे ही वर्ण, आश्रम ,सम्प्रदाय, साधन-पद्धति आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंके हित में स्वाभाविक ही रति होनी चाहिये कि सब को सुख पहुँचे, सब का हित हो, कभी किसी को किञ्चिन्मात्र भी कष्ट न हो। कारण कि बाहर से भिन्नता रहने पर भी भीतर से एक परमात्मतत्त्व ही समानरूप से सब में परिपूर्ण है। अतः प्राणिमात्र के हित में प्रीति होने से व्यक्तिगत स्वार्थभाव सुगमता से नष्ट हो जाता है और परमात्मतत्त्व के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव हो जाता है।
,’छिन्नद्वैधाः‘–जबतक तत्त्वप्राप्तिका एक निश्चय दृढ़ नहीं होता, तब तक अच्छे- अच्छे साधकों के अन्तःकरण में भी कुछ-न-कुछ दुविधा विद्यमान रहती है। दृढ़ निश्चय होने पर साधकों को अपनी साधना में कोई संशय, विकल्प, भ्रम आदि नहीं रहता और वे असंदिग्धरूप से तत्परतापूर्वक अपने साधन में लग जाते हैं। द्वैध का अर्थ संशय या दुविधा रहित होता है, संशय अपर्याप्त ज्ञान या अज्ञान से ही उत्पन्न होता है।
‘क्षीणकल्मषाः‘–प्रकृति से माना हुआ जो भी सम्बन्ध है, वह सब कल्मष ही है; क्योंकि प्रकृति से माना हुआ सम्बन्ध ही सम्पूर्ण कल्मषों अर्थात् पापों, दोषों, विकारों का हेतु है। प्रकृति तथा उस के कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि से स्पष्टतया अपना अलग अनुभव करने से साधक में निर्विकारता स्वतः आ जाती है। इस जन्म और जन्मांतर में किये हुए कर्मों के संस्कार, राग द्वेषादि दोष तथा उन की वृत्तियों के पुंज, जो मनुष्य के अन्तकरण में इकठ्ठे रहते है, बंधन में हेतु होने के कारण सभी कल्मष -पाप होते है। कभी कभी बिना सोचे ही कोई विचार आ जाता है, यह पूर्व जन्म का संस्कार है।
‘ऋषयः‘–‘ऋष्’ धातु का अर्थ है–ज्ञान। उस ज्ञान (विवेक) को महत्त्व देनेवाले ऋषि कहलाते हैं।प्राचीनकाल में ऋषियों ने गृहस्थ में रहते हुए भी परमात्मतत्त्व को प्राप्त किया था। इस श्लोक में भी सांसारिक व्यवहार करते हुए विवेकपूर्वक परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये साधन करने वाले साधकों का वर्णन है। अतः अपने विवेक को महत्त्व देनेवाले ये साधक भी ऋषि ही हैं।
‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणम्‘ ब्रह्म तो सभी को सदासर्वदा प्राप्त है ही, पर परिवर्तनशील शरीर आदि से अपनी एकता मान लेने के कारण मनुष्य ब्रह्म से विमुख रहता है। जब शरीरादि उत्पत्ति- विनाशशील वस्तुओं से सम्बन्ध- विच्छेद हो जाता है, तब सम्पूर्ण विकारों और संशयों का नाश होकर सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्म का अनुभव हो जाता है। ‘लभन्ते’ पद का तात्पर्य है कि जैसे लहरें समुद्र में लीन हो जाती हैं, ऐसे ही सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। जैसे जल- तत्त्व में समुद्र और लहरें-ये दो भेद नहीं हैं, ऐसे ही निर्वाण ब्रह्म में आत्मा और परमात्मा-ये दो भेद नहीं हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 5.25 ।।
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