।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.14 ।। Additional II
।। अध्याय 05.14 ।। विशेष II
।। प्रकृति ।। विशेष – 5.14 ।।
सांख्य एवम कर्म योग में श्रद्धा, भक्ति एवम ज्ञान और ध्यान को बता कर हम ने निष्काम, निष्ठा एवम अभान को समझा। हमे बताया गया कि हमारा अधिकार कर्म तक ही सीमित है, कर्ता कोई और है। सांख्य योगी भी समस्त क्रियाए प्रकृति की मानते हुए स्वयं को अकर्ता ही रखता है। हमे यह भी बताया गया कि शब्दिक ज्ञान से कुछ नही होता, मोक्ष की प्राप्ति के लिये मुमुक्षु होना पड़ता है।
गीता अध्ययन में जब हम अपने आधे अधूरे ज्ञान को प्रकाशित करते है तो वास्तव में हम अपने अहम को संतुष्ट करते है कि हमे यह भी आता है, यह सुंदर वाक्य या ज्ञान हमे अभिभूत करता है। किंतु यह चिकने घड़े की भांति हमारे ऊपर तेल लेप है जो हमे गहन अध्धयन से दूर भी रखता है और हमारे अंदर निष्ठा, निष्काम एवम अभान को प्रविष्ट भी नही होने देता। गंगा में डुबकी तो लगा ली, किन्तु उन पाप को नही छोड़ पाए, तन तो स्वच्छ हो गया किन्तु मन और आत्मा वही है। साबुन से कोयले को धो धो कर सफेद करने जैसा प्रयास।
गीता अध्ययन के कर्मयोग में श्रद्धा, भक्ति एवम निष्ठा का अभाव है तो ज्ञान, निष्काम एवम अभान भी नही होगा। फिर मोक्ष भी नही। हम अहम की संतुष्टि के लिये गुरु या ज्ञान कि तलाश करते है और चार शब्द सीख कर अपने अहम को, अपनी कामना एवम आसक्ति को संतुष्ट करते है, तांकि समाज मे हमारा चेहरा आध्यात्मिक ज्ञान से लीपा-पुता दिखे। हमारा ज्ञान ब्लैक बोर्ड पर लिखे उन सुंदर वाक्यो जैसा होता है जिस का ब्लैक बोर्ड को पता भी नही होता और कोई इतना ज्ञान रखने के बाद भी ब्लैक बोर्ड को भी कोई ज्ञानी भी नही मानता।
यह सब कौन इस जीव के साथ खेल रहा है। जीव अपने को होशियार समझ रहा है या फिर उस की होशियारी में उस की मूर्खता है। परब्रह्म का अंश जीव तो अकर्ता है, साक्षी है, नित्य है तो वह कर्ता कैसे हो सकता है। इस अज्ञान के कारण और मूल की समझने के लिये यह श्लोक अत्यन्त ही गहन है जो गीता के औपचारिक ज्ञान के बाद द्वितीय चरण के ज्ञान के द्वार पर खड़ा करता है। जीव को भ्रमित कर के कोई यदि उस के साथ खेल रहा है तो उस को परब्रह्म की माया द्वारा रचित प्रकृति का नाम दिया गया है। यह प्रकृति ही सब खेल, कर्म, उस के फल, विभिन्न प्रकार के जन्म, मृत्यु को निर्धारित करती है, परब्रह्म इस मे कुछ भी नही करता है। उस ने जीव रचा, माया रची और माया के नियमो से चलने वाली प्रकृति रची। यही समझना और जानना ज्ञान का द्वितीय चरण है। क्योंकि ज्ञानी ही जान सकता है कि जीव कुछ नही करता, वह तो निमित्त मात्र है, जो कुछ घटित होता है, वह प्रकृति ही करती है।
पूर्व समीक्षा में हम ने कंप्यूटर के उदाहरण में किसी खेल के पीछे खेल को संचालन करने वाला, खेल का प्रोग्राम बनाने वाला, खेल के प्रोग्राम की भाषा लिखने वाला, माइक्रो चिप्स बनाने वाला या कंप्यूटर में जो ऊर्जा संचालित होती है जिस से यह सब चल रहा है,आदि को जाना। किन्तु इस मे कर्ता वास्तव में कौन है? यही अध्ययन आगे करना है। यही ब्रह्म का अध्ययन है। किन्तु अध्ययन सभी के सामान्य है, अनुभव सब का निजी है। बिना अनुभव के सिर्फ वाचाल हो सकते है, ब्रह्मसंध नही।
श्लोक 5.14 को गहन अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट है इस सृष्टि यज्ञ चक्र में प्रकृति ही अपने त्रियामी गुणों एवम माया से काम करती है। शरीर, इंद्रियां, मन, और बुद्धि सभी प्रकृति के साथ जुड़े है। यह प्रकृति पंच तत्व की भी नियामक है जिस से समस्त संसार का निर्माण हुआ है। मनुष्य मात्र ही बुद्धि द्वारा इस प्रकृति का साथ और विरुद्ध कार्य करता है। उस का अहम एवम मोह उसे कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव मे ले जाता है और वह स्वयं को कर्ता मानता है। इसी क्रम में वह प्रकृति के कार्यो को समंझ नही पाता और स्वयं को परमात्मा एवम प्रकृति के बीच मे खड़ा कर देता है।
अतः चमत्कार या भाग्य कुछ नही वरन प्रकृति के पंच तत्व एवम विभिन्न जीवो के पिछले किये हुए क्रियाओं का संयोग मात्र है। किसी भी कार्य का फल इस बात पर निर्भर नही होता कि आप ने इसे किस प्रकार किया। यह अन्य के द्वारा की गई क्रियाओं एवम समय, साधन, स्थान एवम कार्य करने के तरीके पर भी निर्भर है। किसी भी कार्य का परिणाम तुरंत हो यह भी जरूरी नही। यह कभी संचित एवम कभी एकल भी कभी भी मिल सकता है ।
अतः जब परमात्मा अकर्ता है तो प्रकृति के हर कार्य को कर्ता कर्म एवम कारण के साथ ही समझना चाहिए और इसी का अनपेक्षित सयोग ही भाग्य है। इसी प्रकार पंच तत्व एवम कर्ता कर्म एवम कारण से होने वाली घटना या अप्राकृतिक क्रियाओं को हम चमत्कार मानते है। बुद्धिमान व्यक्ति इन क्रियाओं का गहन अध्ययन कर के प्रकृति के कार्यो को खोज कर अविष्कार करते है और अज्ञानी चमत्कार मान कर प्रणाम करते है।
गीता आत्मोन्नति की तरफ ज्ञान का प्रसार करती है इसलिये गीता में कर्म कांड की बजाय आत्म ज्ञान है। प्रयुक्त श्लोक सांख्य योग से प्रेरित है। क्योंकि परमात्मा के समस्त कार्यो को दिव्य कर्म ही माना गया है अतः सृष्टि का संचालन करते हुए भी वो उदासीन ही है।
अज्ञान एवम मोहवश हम ईश्वर से प्रार्थना द्वारा कुछ मांगते रहते है। किन्तु ऐसा कुछ नही होता। ईश्वर के कर्म दिव्य है अतः जगत के जीवन होते हुए भी वो अकर्ता है। जगत का संचालन प्रकृति करती है । इसलिये आप की प्रार्थना पर जो भी आप को मिलता है वो आप के संचित कर्म ही है।
जीव परमात्मा का अंश है, अंश का अर्थ किसी से अलग हो कर कोई टुकड़ा नही है क्योंकि पूर्ण से जो निकल कर अलग है वह भी पूर्ण ही है। इसे आत्मा कहा गया। इस का संयोग जब प्रकृति से हुआ तो यह जीवात्मा बना। प्रकृति यानी सूक्ष्म एवम स्थूल स्वरूप में 28 तत्व से बना भौतिक शरीर जिस का संचालन बुद्धि, मन और अहम करता है। अहम जीव का ही अज्ञान है जिस में वह अपने ब्रह्म स्वरूप को भूलकर प्रकृति स्वरूप को ही अपना स्वरूप मानता है। इंद्रियां, मन और बुद्धि से शरीर प्रकृति के द्वारा क्रियाएं करता है जिसे प्रकृति ही माया से और अपने तीनो गुणों से संचालित करती है। जीव का अज्ञान और ज्ञान इसी बुद्धि से होना है किंतु कामना, आसक्ति , मोह, अहम से जीव कर्म के बंधन में फस जाता है। यही कारण है कि कर्म एक घूमता हुए पहिया है जिस पर जीव को खड़े रहने के लिए चलना पड़ता है। फिर को अच्छा – बुरा जो भी जीव के साथ होता है वह उस के कर्ता और भोक्ता के अज्ञान से उत्पन्न फलों का प्रभाव है, परमात्मा का इस में कोई हस्तक्षेप नहीं होता। अज्ञानी लोग अपने कष्टों के लिए परमात्मा को पुकारते है। ज्ञानी साक्षी भाव से प्रकृति की क्रियाओं को होते देखता रहता है।
अंत मे अर्जुन में अपने मोह एवम भय में अज्ञान से जनित ज्ञान के तर्क दिए थे, तब भगवान श्री कृष्ण ने कुछ नही कहा, किन्तु जब वह कोई भी मार्ग नही पाता, तब भगवान उस को ज्ञान देते है, गुरु या ज्ञान में जब कोई अपने आधे अधूरे ज्ञान के साथ जाता है तो वह प्राप्त ज्ञान पर विवाद या बहस करता है, क्योंकि वह अहम के साथ जाता है, परंतु जब वह अहम को छोड़ कर जाता है तो गुरु के ज्ञान पर मनन करता है और अपने ज्ञान का अनुभव करता है कि बताई हुई बात का वास्तविक अर्थ क्या है। भला ब्रह्म में लीन व्यक्ति को शिष्य या गुरु बनाने की आवश्यकता भी क्यों है, जो अद्वेत है, वह क्यों द्वेत होगा? जरूरत शिष्य को उस की है, जिस के पास अपना, अहम, ज्ञान, कामना एवम आसक्ति को त्याग के शरणागत हो कर जाना पड़ता है। मुमुक्षु हो कर गीता का अध्ययन मोक्ष का मार्ग है और ज्ञानी को कर अध्ययन हमे कभी मोक्ष के अनुभव को नही बताता और हम अध्ययन के बाद भी ज्यो के त्यों रह जाते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 5.14।।
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