।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.10 ।।
।। अध्याय 05.10 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 5.10॥
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥
“brahmaṇy ādhāya karmāṇi,
sańgaḿ tyaktvā karoti yaḥ..।
lipyate na sa pāpena,
padma-patram ivāmbhasā”..।।
भावार्थ :
“कर्म-योगी” सभी कर्म-फ़लों को परमात्मा को समर्पित कर के निष्काम भाव से कर्म करता है, तो उस को पाप-कर्म कभी स्पर्श नही कर पाते है, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल को स्पर्श नही कर पाता है। (१०)
Meaning:
Having offered all actions to the eternal essence, and having cast off attachments, he who performs actions does not get tainted by sins, just like water does not taint a lotus leaf.
Explanation:
Previously, we came across the vision of one who has realized the self. He knows that he is not the doer of all his actions. But what about the one who has not realized the self, and who is still working to sublimate his selfish desires? What is his vision?
In this shloka, Shri Krishna says that the person who has not realized the self (that includes most of us) offers all actions in a spirit of devotion to Ishvara. Shri Krishna reiterates that if one has selfish desires, karma yoga is the ideal path to follow. The karma yogi works for a higher ideal such as Ishvara, but one who does not follow karma yoga works for the ego.
Shri Krishna brings Arjuna back to karma yoga with this shloka. Arjuna harbours desires, therefore Shri Krishna does not want him to jump straight into the yoga of renunciation, which is a totally different level.
Now, let’s go a little deeper into the topic of attachment. Attachment can happen at four levels : attachment to the result of an action (I want a reward for singing this song), attachment to the action (I will sing a song only in my way), attachment to the sense of doership (I am singing this song) and attachment to the sense of non-doership (By not singing the song, I am the non-singer of this song). The first three are relatively easier to comprehend. The fourth one arises when one has not properly understood the notion of akarma or inaction from the fourth chapter.
So therefore, the karma yogi strives to transcend all four levels of attachment by offering results, actions, doership and non-doership to Ishvara. When he acts in the material world with such a vision, he does not accumulate any further desires, just like a lotus leaf does not get wet even though growing in water.
With the help of the beautiful analogy of the lotus leaf, Shree Krishna says that just as it floats atop the surface of the lake, but does not allow itself to be wetted by the water, similarly, the karm yogis remain untouched by sin, although performing all kinds of works, because they perform their works in divine consciousness.
।। हिंदी समीक्षा ।।
दो पूर्ववर्ती श्लोकों में वर्णित ज्ञान ब्रह्म स्वरूप में रमे हुए तत्त्ववित् पुरुषों के लिये सत्य हो सकता है परन्तु निरहंकार और अनासक्ति का जीवन सर्व सामान्य जनों के लिये सुलभ नहीं होता। पूर्णत्व के साधकों को यही कठिनाई आती है। जो साधकगण गीता ज्ञान को जीना चाहते हैं और न कि तत्प्रतिपादित सिद्धान्तों की केवल चर्चा करना उन की यही समस्या होती है कि किस प्रकार वे अहंकार का त्याग करें।
इस समस्या का निराकरण विचाराधीन श्लोक में किया गया है जिस के द्वारा कोई भी अनासक्त जीवन व्यतीत कर सकता है। ब्रह्म में अर्पण कर के मन का पूर्णतया अनासक्त होना असंभव है और यही तथ्य साधक लोग नहीं जानते। जब तक मन का अस्तित्त्व रहेगा तब तक वह किसी न किसी वस्तु के साथ आसक्त रहेगा। इसलिये परमार्थ सत्य को पहचान कर उस के साथ तादात्म्य रखने का प्रयत्न करना ही मिथ्या वस्तुओं के साथ की आसक्ति को त्यागने का एकमात्र उपाय है।
इस कार्य की शुरुवात व्यवहारिक जीवन मे यह मान कर भी कर सकते है कि हम यह सोचना शुरू कर दे कि जो भी कार्य करता है वो ईश्वर करता है, हम निमित मात्र है। जीव और प्रकृति का रचयिता परमब्रह्म ही है। सब प्रकृति की क्रिया करती है, जीव तो अकर्ता है। अतः जब जीव कुछ करता ही नही तो कामना कैसी और आसक्ति कैसी। हम तो परमब्रह्म के निमित्त हो सिर्फ उन कर्मो को करे, जिसे वह हम से करवाता है, वह स्वामी और हम सेवक । यही आसक्ति त्याग की प्रथम सीढ़ी होगी। जब आप किसी की चाकरी करते है या किसी के अधीन कार्य करते है तो आप को उस कार्य मे कोई आसक्ति या मोह नही होता क्योंकि उस का फल स्वामी को जाएगा, आप का प्रतिफल तो स्वामी ने निश्चित कर दिया है। जब स्वामी के प्रति निष्ठा एवम श्रद्धा हो तो वह काम प्रेम पूर्वक पूर्ण दक्षता से भी करते है।
अतः जो तत्त्वज्ञानी नहीं है और कर्मयोग में लगा हुआ है ( यानी ) जो स्वामी के लिये कर्म करनेवाले नौकर की भाँति मैं ईश्वर के लिये करता हूँ इस भाव से सब कर्मों को ईश्वर में अर्पण कर के यहाँ तक कि मोक्षरूप फल की भी आसक्ति छोड़ कर कर्म करता है। तो आसक्त रहने की प्रथम सीढ़ी चढ़ने लगता है।
किसी भी कार्य मे अहम की भूमिका कर्तृत्व भाव को जोड़ती है। जब शरणागत भाव हो तो अहम भी कमजोर हो जाता है। जिस कर्म में मेरा मेरा नही है, वह फल भी भला कैसे देगा।
जब बात सीधे तरीके से समझ मे आये तो उसे उदाहरण या तुलनात्मक तरीके से बताई जाती है, यहां स्वामी के प्रेम व श्रद्धा से समर्पित भाव से जो व्यक्ति कर्म करता है वह जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी उस से लिप्त नहीं होता वैसे ही पापों से लिप्त नहीं होता अर्थात इस संसार मे उस की प्रवृति शनैः शनैः अनासक्ति की ओर बढ़ने लगती है।
एक सांसारिक व्यक्ति के धन कमाने के व्यापार या व्यवसाय करना आवश्यक है, फिर गृहस्थ होने नाते और देश और समाज के नियम और कानून के अंतर्गत उसे अपना व्यवहार भी रखना पड़ता है। बच्चो की शिक्षा, पारिवारिक जिम्मेदारियां उसे वे दिन रात कर्म में उलझाए रखती है, इसलिए उस के पास शास्त्रों को अध्ययन या ध्यान आदि का समय या तो मिलता नही और मिलता भी है तो सीमित। ऐसी दशा में वह अक्सर मंदिरो, प्रवचनों, दान, यज्ञ और कर्म कांडो को सहारा लेता है। दुर्भाग्य से योग्य गुरु या व्यक्ति न मिलने से, जिन्हे वह ज्ञानी समझ कर पूजता है, वे अज्ञानी पुरुष भी स्वयं कामना, आसक्ति, मोह, लोभ और अहम में ग्रसित हो कर उसे सांसारिक सुखों के और उस के सांसारिक कष्टों के निवारण के उपाय बताता है। इस से जीव का कोई उद्धार नही होता। इस के निष्काम और निर्लिप्त कर्मयोगी बनने के सरल उपाय यही है कि जीव अपने सारे कृत्य भगवद अर्पण करते हुए करे। क्योंकि कार्य भगवद अर्पण भाव से किए जाएंगे तो इस भाव स्वामी और सेवक का रहेगा तथा जीव को कर्म बन्धन भी नही होगा। ब्रह्मा जी ने कहा है कि सृष्टि यज्ञ चक्र में जीव को अधिक से अधिक प्रकृति से व्यवहार देने का करना चाहिए और जितना जीवन, व्यापार, व्यवसाय और सामाजिक पद और प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है, वही संग्रह करना चाहिए। जीवन में आवश्यकता से अधिक का संग्रह का कोई उपयोग नहीं, इसलिए जब अधिक धन का उपार्जन हो तो श्रेष्ठ धनी लोग उसे अन्य लोगो में वितरित सेवा कार्य द्वारा कर देते है। वे अपने धन के स्वामी नही होते और हमेशा उसे ट्रस्टी की भांति उपयोग करते है। यही कर्मयोगी के निर्लिप्त कर्म उस कमल के पत्ते की भांति है जिस पर पानी आदि कुछ भी नही ठहरता। किंतु यदि मन, बुद्धि और आत्मा दूषित और स्वार्थ से परिपूर्ण हो तो जीव के धर्म, अध्ययन, कर्म और व्यवहार सभी कामना, आसक्ति, मोह, लोभ और अहम के होंगे। फिर कौन सा ऐसा जीव शास्त्रों को सही तरीके से अध्ययन कर पाएगा या रुचि रखेगा, जिन में त्याग ही त्याग सिखाया जाता है।
गीता में कामना, आसक्ति, मोह, लोभ, राग या द्वैष और अहम के त्याग की बात कही गई है, यह मनुष्य का अंतरंग स्वभाव या प्रवृति में होना चाहिए। क्षत्रिय स्वभाव के अर्जुन को यदि मोह स्वजनों को देख कर होता है और वह युद्ध त्याग कर सन्यासी बन भी जाए, उस का क्षत्रिय स्वभाव उस के साथ रहेगा। बाहरी त्याग को हम त्याग नही कह सकते, इसी त्याग अंतरंग में जब तक नही आता, हम सेवक की भांति अपने समस्त कार्य प्रभु को अर्पित करते हुए चले, जिसे से कर्म से कोई आसक्ति, मोह,कामना या अहम आदि न उपजे और यदि उपजे भी तो भी प्रभु को ही समर्पित हो कर नष्ट हो जाए।
व्यवहारिक जीवन मे निष्काम कर्मयोगी बनने के सामान्य जन के लिये सरल मार्ग में और क्या कदम होने चाहिए, आगे के श्लोकों में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 5.10।।
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