।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 05.03।।
।। अध्याय 05.03 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 5.3॥
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥
‘jñeyaḥ sa nitya-sannyāsī,
yo na dveṣṭi na kāńkṣati..।
nirdvandvo hi mahā-bāho,
sukhaḿ bandhāt pramucyate”..।।
भावार्थ :
हे महाबाहु! जो मनुष्य न तो किसी से घृणा करता है और न ही किसी की इच्छा करता है, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि ऎसा मनुष्य राग-द्वेष आदि सभी द्वन्द्धों को त्याग कर सुख-पूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। (३)
Meaning:
He who does not hate anything, nor expects anything, know him to be an eternal renouncer. For one who is free from duality, O mighty-armed, he happily casts off bondage.
Explanation:
During the time of the Mahabhaarata war, and even now, there existed a fixed ideal of what it means to become a renouncer, which was that one runs away from the world to some remote place. Shri Krishna needed to change that ideal completely. So he defines what it means to be a renouncer or sannyaasi in this shloka. A renouncer is one who completely gives up his ego, not external objects and situations.
our hearts are rough and unfinished because of endless lifetimes of attachment in the world. If we wish to become internally beautiful, we must be willing to tolerate pain and let the world do its job of purifying us. So karm yogis work with devotion, are equipoised in the results, and practice attaching their mind to God.
In that regard, Shri Krishna says that if we have three qualities: freedom from hatred, expectation and duality, that person is a true renouncer. Firstly, if something is obstacle to happiness, or someone is giving us sorrow, we generate hatred for that person or object. Secondly, if we always keep thinking that we will become happy in the future, we generate expectations, taking consciousness away from the present and into the future. Finally, if we only get attracted to certain aspects of our existence, the other aspects will torture us and bind us. This is what is meant by duality.
So therefore, one who has become free from these 3 qualities has truly renounced the material world, even if he continues to perform his duties. This is a high standard indeed.
You should remember that all spiritual sadhanas are broadly classified into two; one is jnana yoga, which is the pursuit of jnanam, and the second is the karma yoga, which is meant for preparing the mind for knowledge and all the sadhanas that we do to prepare the mind will come under karma yoga only; all forms of meditations we do to refine and sharpen the mind; so all forms of sadhanas, including aṣṭaṇga yoga and varieties of meditations, they also come under karma yoga only. Even the word bhakthi yoga, depending upon the meaning of Bhakthi, will come under one of these two yogas only. When bhakthi yoga is understood as pooja, or any type of saguna dhyanam, all that type of bhakthi yoga will come under karma yoga only.
Therefore Krishna does not want you to get rid of likes and dislikes. Krishna says do not be a slave of your likes and dislikes. If you able to fulfill them, wonderful and if you are not able to fulfill them also; you should know how to face them; so mastery of likes and dislikes is converting them into non- binding desires.
Having clarified the definition of snanyaasi, Shri Krishna compares a sannyaasi to a karmayogi in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों भाव से मुक्त साधक जिस के अंदर कोई राग एवम द्वेष नही है एवम जिस ने अहंकार एवम मोह पर विजय प्राप्त कर ली है वो ही नित्य सन्यासी होता है। ऐसा नित्य सन्यासी निःद्वन्द एवम निष्काम होने के कारण कर्म बंधन से मुक्त होता है।
यह सब दिखने एवम पढ़ने में सरल किन्तु आचरण में अत्यंत दुर्गम गुण है। अतः जब तक हृदय में त्याग एवम सेवा भाव न हो तो यह संभव नही। ज्ञानयोग की दृष्टि से किसी वस्तु को माया मात्र समझ कर ऐसे ही उसका त्याग कर देना कठिन पड़ता है परन्तु वही वस्तु किसी के काम आती हुई दिखायी दे तो उसका त्याग करना सुगम पड़ता है। जैसे हमारे पास कम्बल पड़े हैं तो उन कम्बलों को दूसरों के काम में आते जान कर उन का त्याग करना अर्थात् उन से अपना राग हटाना साधारण बात है परन्तु (यदि तीव्र वैराग्य न हो तो) उन्हीं कम्बलों को विचारद्वारा अनित्य क्षणभङ्गुर स्वप्न के मायामय पदार्थ समझ कर ऐसे ही छोड़कर चल देना कठिन है। दूसरी बात माया मात्र समझ कर त्याग करने में (यदि तेजी का वैराग्य न हो तो) जिन वस्तुओं में हमारी सुख बुद्धि नहीं है उन खराब वस्तुओं का त्याग तो सुगमता से हो जाता है पर जिन में हमारी सुखबुद्धि है उन अच्छी वस्तुओं का त्याग कठिनता से होता है। परन्तु दूसरे के काम आती देखकर जिन वस्तुओं में हमारी सुखबुद्धि है उन वस्तुओं का त्याग सुगमता से हो जाता है जैसे भोजन के समय थाली में से रोटी निकालनी पड़े तो ठंडी बासी और रूखी रोटी ही निकालेंगे। परन्तु यदि वही रोटी किसी दूसरे को देनी हो तो अच्छी रोटी ही निकालेंगे खराब नहीं। इसलिये कर्मयोग की प्रणाली से राग को मिटाये बिना सांख्य योग का साधन होना बहुत कठिन है। विचार द्वारा पदार्थों की सत्ता न मानते हुए भी पदार्थों में स्वाभाविक राग रहने के कारण भोगों में फँस कर पतन तक होने की सम्भावना रहती है।
राग भी ऐसे ही जकड़ लेता है और राग के कारण हम वो काम भी करते है जिसे को हम समझते है कि इन का हमारे लिये कोई उपयोग नही। जैसे सिनेमा, पार्टी, मधुमेह के बावजूद मीठा खाना। सब से कठिन अपने अहम को समाप्त करना है। वेदो की रचना करने वाले उन ऋषि मुनि को कोई नही जानता जिन्होंने ने उन की रचना करते हुए अपने अहम को पहले जीता।
यहां यह चर्चा करना भी अनुचित नही होगा कि अपने अंदर इंद्रियाओ के नियंत्रण के अभाव में हम सन्यास साधक को पहचान नही पाते एवम ज्ञान की आशा एवम कामनाओं के वश में आ कर हम उन्हें भी सन्यासी मान लेते है जो प्रायः हमारे सामने गेरुवे वस्त्र पहने हुए होते है या शास्त्रों की बाते काफी प्रभाव शाली तरीके से करते है। नित्य सन्यासी क्योंकि ज्ञान को प्राप्त कर चुका होता है इसलिए उस के गुण उस के अंदर स्वतः ही होते है एवम उस को किसी नियंत्रण या इंद्रियाओ के दमन की आवश्यकता नही होती।
मुक्ति के दो मार्ग या साधना है, जिसे हम कर्म योग और कर्म सन्यास कह सकते है। दोनो ही साधना में ज्ञान का होना और त्याग का होना आवश्यक है। यहां त्याग अहम और भोक्ता भाव का है। यदि कर्म योगी राग और द्वेष को त्याग कर गृहस्थाश्रम में रहता है तो वह भी सन्यासी की भांति जीवन व्यतीत करता है। राजा जनक जब अपने गुरु से शिक्षा ले रहे थे तो उन के अनुचर में खबर दी कि आप के महल में आग लग गई है। वे तनिक भी विचलित नहीं हुए और अध्ययन जारी रखते है किंतु उन के गुरु को अपनी कुटिया की चिंता लग गई और वे उसे बचाने भागे। तब यही कहा गया कि जनक कर्मयोगी होते हुए भी राग और द्वेष से परे है, जब कि इन के गुरु सन्यासी होते हुए भी राग और द्वेष से मुक्त नही हो पाए। अतः अर्जुन यदि युद्ध भूमि छोड़ कर सन्यास भी ले कर जंगल चले जाते है तो भी मात्र वस्त्र धारण, वानप्रस्थ होने और भिक्षा पर अपना जीवन व्यतीत करने पर कोई सन्यासी नही होता। अतः अर्जुन भी सन्यास ले कर भी जंगल में भी अपने क्षत्रिय गुण से वहां के लोगो को दुष्ट व्यक्तियों से बचाने का कार्य करने लग जायेंगे।
राग और द्वेष का त्याग या छोड़ना एक बात और राग – द्वेष का न होना एक बात। समत्व भाव में सन्यासी होना या सन्यासी स्वरूप को ओढ़ लेना, सन्यास नही है। राग – द्वेष में वैराग्य अर्थात जिस के बारे हृदय तक कोई भाव किसी भी कारण न उपजे। किसी ने गाली दी, गुस्सा आया किंतु पी गए, यह राग द्वेष का नियंत्रण है, मुक्ति नही। राग – द्वेष से मुक्त होना है तो मीरा का चरित्र देखो, जिस ने राज परिवार छोड़ा भी और जहर भी ग्रहण किया।
वस्तुतः सन्यासी जिस ने सुख, दुख में सम भाव को धारण कर लिया है, उसे किसी भी व्यक्ति, वस्तु, कर्म या भोग में कोई राग, द्वेष, ईर्ष्या या घृणा नही है। वह किसी आकांक्षा को नही रखता। यदि ध्यान दे यह समभाव आदि गुण निष्काम कर्मयोगी के लिये भी पूर्व के अध्याय में बताये गए थे। इसलिये निष्काम कर्म योगी भी सन्यासी ही होता है, अंतर कर्म की प्रवृति या निवृति का है। सन्यासी कर्म को प्रकृति की प्रक्रिया समझ कर कर्तृत्व भाव से मुक्त हो कर करता है और कर्म योगी वही कार्य कर्तृत्व भाव मे भोक्तत्व से मुक्त हो कर करता है। दोनो ही अपने को कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव से मुक्त करने के लिये योग करते है। इसे आगे भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट करते हुए क्या कहते है, पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 5.03।।
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