।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.39।।
।। अध्याय 04.39 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 4.39॥
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
“śraddhāvāl labhate jñānaḿ,
tat-paraḥ saḿyatendriyaḥ..।
jñānaḿ labdhvā parāḿ śāntim,
acireṇādhigacchati”..।।
भावार्थ :
जो मनुष्य पूर्ण श्रद्धावान है और जिस ने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वही मनुष्य दिव्य-ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्क्षण भगवत-प्राप्ति रूपी परम-शान्ति को प्राप्त हो जाता है। (३९)
Meaning:
One who has faith, who is completely focused on attaining knowledge and has restrained the senses, obtains this knowledge. Having obtained this knowledge, he instantly attains ultimate peace.
Explanation:
In this shloka, Shri Krishna describes the attributes we need to cultivate in order to attain knowledge of self-realization. He point out three attributes: faith, focus, and sense control or descipline.
The most important qualification that we should have is shraddha, or faith. But what specifically should we have faith in? It is four things: faith in scriptures, in our teacher, in ourselves and in the truth of the eternal essence. Furthermore, this faith has to come out of utter conviction that the material world is not the be-all and end-all. There is an changeless eternal reality behind this ever-changing material world. Unless we are convinced that there is something beyond the material world, we will never develop true faith.
The sadanā is śraddha; faith; śraddha in the validity of scriptures; until we clearly understand that this scriptures are valid, they are beneficial and if I have got a doubt in the validity of scriptures and if I am not able to understand, keep that doubt aside and listen and at regular intervals you go on reading those questions and doubts, as you progress, you will find, one by one the doubt is cleared; and if you do not have the patience, the guru is there; go and attack; ask questions. So guru always welcomes questions; he is not afraid of questions; this is matter for knowing, not believing; every vedantic acarya is ready to allow infinite question.
Teacher or Guru expects only questions for the clarity of understanding regarding his teaching, it is not just swamiji is sitting idle and I am also idle, so let me question something, just as time pass, or just to test the swamiji; this should not be attitude; that would not work; I should do homework and it is called mananam; and I should attempt to find the answer based on the teaching that I have received. Be sincere and committed; you should also cooperate with the teacher; just you should not ask questions for the sake of asking questions.
Jagadguru Shankaracharya has defined faith as follows:
Faith means firm confidence in the words of the Guru and the scriptures.” When such faith is placed upon a wrong personality, it can lead to disastrous consequences. But when it is placed on the true Guru, it opens the pathway for eternal welfare.
Blind faith is not a desirable thing. Before placing it on any Guru, we must use our intellect to confirm that the Guru has realized the Absolute Truth, and he is teaching it in accordance with the eternal Vedic scriptures.
However, we have to be careful not to get stuck at level of faith. If our faith becomes too rigid and is guided by dogma rather than intellectual questioning, it will morph into superstition and fanaticism. Just like we learn to appreciate a technical subject such as algebra through inquiry and verification, so too should our faith use the same means to strengthen itself.
In addition to faith, Shri Krishna mentions two more attributes. First is tatparah, which is the keen intent and focus of the seeker to do what it takes to pursue the path chosen. Second is samyatindriyah, which is restraint and control over the senses. If sense restraint is absent, then our attention would quickly stray away from the spiritual path into the material world.
Now, if we develop these qualities and follow the path of knowledge, then we will know that we have gained knowledge through attainment of everlasting peace. As long as the ego is present, it generates noise or chatter in the form of selfish thoughts. It is like the background noise generated by our fridge that we have gotten used to. Knowledge of self-realization annihilates the ego, which eliminates the ego’s noise, giving us everlasting peace. Ultimately, we are all seeking peace, which is beyond happiness.
Disciplines i.e. sensory discipline is required; focussing capacity is required; even to listen for one hour, the duration of one hour it requires a tremendous focusing capacity and especially when it is a consistent serious talk. if a person follows as these things, jnanam labdva; certainly it will get most wonderful system from the Gita or from the Upanisads; you will get the knowledge and the result of knowledge is the paraṁ śantim, permanent peace of mind.
So we do not give a posthumous benefit; Krishna promises a benefit, here and now which you can check. Gita will give you peace of mind; it is a promise; and not ordinary peace of mind; parāṁ śāntim; a peace that passeth all understanding; it is possible; and every jnani tells this from his own personal experience. And therefore Krishna says parāṁ śāntim adhigacchati.
।। हिंदी समीक्षा ।।
इसी अध्याय में ज्ञानयोग को सर्वश्रेष्ठ कहने के बाद चौंतीसवें श्लोक में भगवान् ने गुरु के पास जाकर विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने की प्रणाली का वर्णन करते हुए तीन साधन बताये प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा। योग बोलना जितना सरल है, उतना ही गम्भीर एवम गहन विषय है।
धर्म और संस्कृति की विशेषता है कि यहां सभी अपना अपना कारोबार विश्वास से चलाते है। यह पुस्तक ईश्वर द्वारा लिखी है, ईश्वर के वे ही एक मात्र दूत है, जिन्हे ईश्वर अपने आदेश देता है और उस का पालन करना, मत अनुयायी के करना ही उस का धर्म है। जहां पौरुष और बुद्धि का प्रयोग बंद हो जाए, वह विश्वास भय का विश्वास या अंधविश्वास होता है। सामान्य जन स्वार्थी है, इसलिए धर्मगुरूवो पर विश्वास होना चाहिए। किंतु धर्मगुरुवो पर विश्वास होने पर भी धर्मशास्त्र पर विश्वास न हो तो, वह विश्वास भी विश्वास नहीं होता। विश्वास अनुभव की आस्था है, जो अनुभव करने के बाद पता ही न हो, तो वह विश्वास नहीं है। जो इसी जीवन में मिले, वही अनुभव वास्तविक विश्वास है। यही इस श्लोक में गीता में ज्ञान के विषय में परमशांति को प्राप्त होने का विश्वास भगवान श्री कृष्ण दे रहे है।
हिंदू संस्कृति में वैदिक धर्म की विशेषता है – धर्म में, योगाभ्यास में और तत्त्वज्ञान में अपने पौरुष की प्रधानता है। जब दूसरे जन्म में परलोक मिलेगा, यह विश्वास की प्रधानता है। किंतु योगाभ्यास से अंतकरण की काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि गुणों की शुद्धि और आत्मिक शांति मिलेगी, यह दृष्टफलक धर्म है। अंतकरण की शुद्धि पौरुष और अनुभव की प्रधानता का धर्म है। इसलिए जब श्रवण, मनन और निदध्यासन में श्रद्धा और विश्वास का पुट लगा कर योगाभ्यास किया जाए, तो जो दृष्टफलक फल इसी जीवन में मिलेगा, वह आत्मिक परम शांति है। इसी प्रकार तत्वज्ञान भी इसी जीवन में ब्रह्मानुभूति है। गीता का अध्ययन जब जिज्ञासु हो कर श्रद्धा, विश्वास, प्रेम से बार बार करते है, तो गीता न केवल अज्ञान अर्थात कामना और आसक्ति से हमे मुक्त करती है, यह हमे निष्काम और निर्लिप्त कर्मयोगी बनाती है जिस से इसी जन्म में परम शांति हमे प्राप्त होती है।
जैसा चित्त वैसा ही प्राणी। गीता अध्ययन जैसे ग्रुप में लोग कौहतुल से जुड़ तो जाते है किंतु ज्ञान के कठिन अभ्यास में उन्हे कोई सांसारिक लाभ होता नही दिखता तो फिर बाहर निकल जाते है। कुछ लोग शास्त्रों, पुस्तको और इतिहास को ले कर बहस तो करते है किंतु शास्त्र तो अध्यारोपित विद्या है। इसलिए अध्यारोप, अपवाद, साक्षी, अधिष्ठान, स्वप्रकाश आदि अनेक शास्त्र और ग्रंथ बन गए। जरूरत सारी शक्ति श्रद्धा और विश्वास के साथ ज्ञान के अभ्यास में लगाने की, वेदों, उपनिषदों और शास्त्रों से ज्ञान को ग्रहण करने की है, बहस कर के अपने अहम की संतुष्टि करने की नही। ज्ञान की उपासना वही कर सकता है जिस ने अहम, कामना, आसक्ति, मोह, लोभ और स्वार्थ को ज्ञान के अध्ययन से दूर रखा हो। किसी भी ग्रंथ का पाठ जब लौकिक सुख और सुविधा के लिए तो वह प्राकृतिक ज्ञान ही होता है। जीव प्रकृति से अलग नहीं है, इसलिए वेदों की रचना करते समय प्रकृति के साथ हमे कैसे रहना है और अपनी मुक्ति के क्या करना है, दोनो का ही संतुलित ज्ञान लिखा गया है। प्रकृति की सुख सुविधाओं का उपभोग और आनंद लेते हुए, जो ज्ञान अहम, कामना, आसक्ति, मोह, लोभ और स्वार्थ से परे ले जाए, वही मुक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। यह जीव के शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और आध्यात्मिक ज्ञान के शास्त्र है, जो स्वतंत्रता भी देते है और बुद्धि को कुंठित भी नही करते। अतः शास्त्रों में वेदों और उपनिषदों पर भी श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए।
अतः यहाँ भगवान् ने ज्ञान प्राप्त करने का एक और साधन बताया है श्रद्धा। श्रद्धा जब तक शास्त्रों पर, व्यक्ति विशेष अर्थात गुरु पर, स्वयं पर एवम परमात्मा पर न हो तब तक श्रद्धा पूर्ण नहीं होती। यह विश्वास की इस संसार को चलाने वाला भी कोई परमात्मा है, श्रद्धावान व्यक्ति को मुक्ति की ओर ले जाने वाला है । श्रद्धावान व्यक्ति शंकालु नही होता गुरु शास्त्र के वचनों में अचल विश्वास का नाम श्रद्धा है। ज्ञान के लिये कटिबद्ध होने को तत्परता कहते है। अश्वरुढ पुरुष की भांति इंद्रियाओ का स्वाधीन विचरना जितेन्द्रियता कहलाता है। अतः इस प्रकार जिस मुमुक्ष के अन्तःकरण में ये तीनो श्रद्धा, तत्परता एवम जितेन्द्रियता‘ एक साथ एकत्रित हो जाते है वही ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। जो मनुष्य केवल भाव पूर्ण जिज्ञासा रखता है और प्रयत्नशील नही है वो तत्वदर्शी की शरण जा कर भी ज्ञान को प्राप्त नही कर सकता।
ज्ञान योग के योग्य गुरु की तलाश के बाद गुरु के प्रति श्रद्धा न होने से स्वयं का अहम,गुरु द्वारा दी हुई दीक्षा को समझने में बाधक होता है। अतः शंका या संदेह या ज्ञान को स्वयं के ज्ञान से तुलनात्मक देखने से गुरु को कोई फर्क नही पड़ेगा, अपितु ज्ञान योग में शिष्य ही पिछड़ा रहेगा। तुम को गुरु चाहिए, गुरु को शिष्य की आवश्यकता नही है। अतः श्रद्धा और विश्वास के बिना गुरु दीक्षा प्राप्त नही हो सकती। शंका या जिज्ञासा का निवारण करना और अहम में गुरु के ज्ञान को ले कर वाद विवाद करना या बहस करना दोनो में अंतर है। जिज्ञासा श्रद्धा के साथ अधिक समझने की चेष्टा है और बहस या वाद विवाद अपने अल्प ज्ञान की शेखी बघारने के समान है।
अंधश्रद्धा या पाखंडी व्यक्ति पर विश्वास कुमार्ग पर ले जाता है, इसलिए श्रद्धा में व्यक्ति विशेष का चयन विवेक पूर्ण होने चाहिए, केवल भावना या कामनाओं से किया चयन गलत भी हो सकता है।
श्रद्धा अव्यक्त पूर्ण ब्रह्म परमात्मा के प्रति होनी चाहिये जो इस संसार को गतिशील रखता है, व्यक्ति विशेष को परमात्मा समझना भी अंधश्रद्धा ही है।
शरीर, इंद्रियां, मन एवम बुद्धि सभी प्रकृति प्रदत्त है, अतः सृष्टि नियम के अंतर्गत प्रकृति से संचालित है। इन से किया हर कार्य कर्म ही है अतः कर्म का बंधन भी होना है। अपनी बुद्धि से आरंभ किये हुए निष्काम कर्मो के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति कर लेना ही ज्ञान की प्राप्ति का मुख्य या बुद्धिगम्य मार्ग है। इसलिये भगवान श्री कृष्ण द्वारा कर्मयोग और उस के निष्काम भाव से किस प्रकार ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग को प्राप्त किया जा सकता है, यह अभी तक बताया है।
ज्ञानयोग का अर्थ है श्रद्धा एवम तत्परता से ज्ञान को गुरु से ग्रहण करना। संयंत इन्द्रियों से उस पर मनन करना एवम जिज्ञासु की भांति अपने सभी शंका का निवारण करना। इस का प्रभाव यही रहेगा कि योगी अपनी कामना, आसक्ति एवम अहम पर नियंत्रण प्राप्त कर सकेगा, वह कर्म में मोह, लोभ, कामना एवम आसक्ति से मुक्त हो जाने की ओर अग्रसर होगा और ज्ञानयोग के लाभ से निष्काम कर्म करने में सक्षम होगा। गीता के अध्ययन से जुड़ने के बाद यदि गीता के ज्ञान का प्रभाव किसी व्यक्ति पर नही पड़ता है तो यह सत्य है कि उस ने श्रद्धा, तत्परता एवम संयतेंद्रियता से गीता का अध्ययन नही किया। क्योंकि कोई जल में जा कर गीला भी हो, तो निश्चय ही उस ने स्नान नही किया।
हम ज्ञान कर्म योग सन्यास के चतुर्थ अध्याय के अंतिम क्षोर पर है। इस श्लोक में भगवान कहते है जो बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त नही कर सकते या कर्मयोगी में पीछे है, उन के लिये भी मुक्ति का एक मार्ग भक्ति भाव या श्रद्धा भाव है। जो मनुष्य श्रद्धा भाव से इंद्रियाओ एवम मन की संयम कर के तत्वज्ञान की प्राप्ति में लगा रहता है वो भी तत्वज्ञान प्राप्त कर के परम शांति को प्राप्त होता है। यह पहले भी बताया गया है कि गीता भक्ति मार्ग को मान्यता अवश्य देती है , अध्याय 12 भक्ति योग पर ही है किंतु इस की रचना कर्तव्य पालन के धर्म मे कर्मयोगी के लिए की गई है जो आज के युग मे संसार मे सृष्टि यज्ञ में सम्मलित हर मानव के लिए महत्व पूर्ण है। श्रद्धा के भाव का कुछ विवरण हम आगे के अध्याय में पढ़ेंगे किन्तु श्रद्धा भाव के लिये भागवत की रचना ज्यादा सटीक है।
सांख्य योग एवम कर्मयोग के बाद मुक्ति का यह तृतीय मार्ग है जिसे भक्ति योग भी कहते है।
हम सब व्यवहारिक जीवन मे मुक्ति की सभी नाव में पावँ रख कर चल रहे है इसलिए योग, कर्मयोग एवम भक्ति सभी कुछ करते है किंतु थोड़ा थोड़ा। हमारा अहम एवम ममत्व हमारे साथ जुड़ा रहता है इसलिए हमारी सारी प्रार्थना, भक्ति एवम योग इस संसार की वस्तु या साधन प्राप्ति की होती है। हमारा ज्ञान तर्क संगत एवम विचार गोष्ठी के उपयुक्त है किंतु तत्वदर्शन के लिए आत्मसात नहीं। जिन्होंने इसे आत्मसात किया वो परमतत्व को प्राप्त भी हुए। हमारा ममत्व ही इतना अधिक है कि हम गीता को चेतन के आगे ज्ञान प्राप्ति या तत्वदर्शन के लिये विचार कर नहीं करते, इसलिये अक्सर गीता के उपदेश को व्यवहारिक नही समझते।
जो ज्ञानप्राप्ति का अपात्र है ऐसे विवेकहीन संशयात्मा मनुष्य के बारे में भगवान् आगे के श्लोक में बताते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 4.39।।
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