।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.37।। Additional II
।। अध्याय 04.37 ।। विशेष II
।। कर्म और कर्म के प्रकार | Types of Karm ।। विशेष 4.37 ।।
प्रकृति क्रियाशील है अर्थात कर्म प्रकृति का ही स्वरूप है। कोई भी जीव प्रकृति के संयोग में आ कर निष्क्रिय हो ही नही सकता। फिर कार्य – कारण के सिद्धांत के अनुसार कर्म बिना फल के क्रियाशील भी नही होता। कामना और आसक्ति, मोह, लोभ से जीव उस कर्म का कर्ता या भोक्ता बनता है तो उस के कर्म के फल भी उसे भोगने पड़ते है। किंतु किस कर्म का फल कब, किस जन्म और किस योनि में भोगना होगा, यह प्रकृति ही तय करती है।
श्रीमद्भगवद् गीता में कर्म के फल के तीन स्वरूप है। प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण।
श्रीमद भगवद गीता अनुसार कर्म और कर्मयोगी की परिभाषा, प्रारब्ध क्या है, कैसे बनता है और उसे कौन बनाता हे ? निष्काम कर्म योग किसे कहते है, इस के लिए हम एक उदाहरण लेते है।
मान लो हजारों मन अनाज का ढेर पड़ा है, उस में से आपने दस किलो अनाज पीसकर आटा बना लिया, तो जितने समय तक आप अनाज को सँम्भाल कर रख सकते हैं, उतने समय तक आटे को सँभाल कर नहीं रख सकते हैं। आटा जल्दी बिगड़ जाता है। अतः उस का सदुपयोग कर लेना पड़ता है। उस आटे को खाकर आप में शक्ति आयेगी, उस से आप काम करेंगे।
तो अनाज का जो ढेर है – वह है संचित कर्म। आटा है प्रारब्ध कर्म और वर्तमान में जो कर रहे हैं वह है क्रियमाण कर्म। आप के कर्मों के बड़े संचय में से अपने जरा-से कर्मों को लेकर आपने इस देह को धारण किया है। बाकी के संचित कर्म संस्कार के रूप में पड़े हैं।
(१)- संचित कर्म
संचित का अर्थ है – संपूर्ण, कुलयोग अर्थात, मात्र इस जीवन के ही नहीं अपितु पूर्वजन्मों के सभी कर्म जो आपने उन जन्मों में किये हैं | आप ने इन कर्मों को एकत्र कर के अपने खाते में डाल लिया है |
उदाहरण के रूप में कोई आप का अपमान करे और आप क्रोधित हो जाएँ तो आप के संचित कर्म बढ़ जाते हैं। परन्तु,यदि कोई अपमान करे और आप क्रोध ना करें तो आप के संचित कर्म कम होते हैं ।
प्रत्येक जन्म में किये गये संस्कार एवं उस के फल भाव का संचित कोष तैयार हो जाता है.यह उस जीव की व्यक्तिगत पूँजी है जो अच्छी या बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है यही संचित कोष संचित कर्म कहा जाता है, और मनुष्य इसे हर जन्म में नये रूप में अर्जित करता रहता है.
इस तरह संचित कर्म का सम्बन्ध मानसिक कर्म से भी होता है जैसे ईर्ष्या,क्रोध,बदला लेने की भावना अथवा क्षमा,दया इत्यादि की भावना मनुष्य में संचित कर्मों के आधार पर ही पायी जती है अशुभ चिंतन में अशुभ संचित कर्म व शुभ चिन्तन में शुभ संचित कर्म बनते हैं.
जीवन में तीन चीजों का संयोग होता है -आत्मा,मन,और शरीर। शरीर और आत्मा के मध्य सेतु है मन। यदि मन किसी प्रकार के संस्कार निर्मित न करे और पूर्व संस्कारों को क्षय करे तो वह मन अपना अस्तित्व ही खो देगा और मनुष्य का जन्म नहीं होगा ।
संचित कर्मों का प्रभाव
प्रत्येक मनुष्य अपने पूर्व जन्मों में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में पैदा हुआ था। जिस से उस के कर्म भी भिन्न-भिन्न प्रकार के रहे,उस की प्रतिभा का विकास भी भिन्न-भिन्न प्रकार से हुआ होगा।
इन्ही पिछले संस्कारों के कारण कोई व्यक्ति कर्मठ या आलसी स्वाभाव का होता है।यह संचित कोष ही पाप और पुण्य का ढेर होता है. इसी ढेर के अनुसार वासनायें, इच्छायें, कामनायें, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, क्षमा इत्यादि होते हैं।
ये संस्कार बुद्धि को उसी दिशा की ओर प्रेरित करते हैं जैसा की उस मे संग्रहीत हों।
(२ )- प्रारब्ध
‘प्रारब्ध’, ‘संचित’ का एक भाग, इस जीवन के कर्म हैं| आप सभी संचित कर्म इस जन्म में नहीं भोग सकते क्यूंकि यह बहुत से पूर्वजन्मों का बहुत बड़ा संग्रह है। इसलिए इस जीवन में आप जो कुछ प्रकृति द्वारा कर्म करने के लिए भौगोलिक, मानसिक, शारीरिक स्थितियों प्रदान होती है, वे सभी कर्म प्रारब्ध कर्म होते है, वो सब आप के संचित कर्म का ही क्रियाविंत भाग होने से संचित कर्म में से घटा दिया जायेगा। इस प्रकार इस जीवन में आप केवल प्रारब्ध भोगेंगे,जो आप के कुल कर्मों का एक भाग है। वे मानसिक कर्म होते हैं, जो स्वेच्छापूर्वक जानबूझकर, तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किए जाते हैं।
प्रारब्ध -कर्मों के फल अंश का कुछ हिस्सा इस जन्म के भोग के लिये निश्चित होता है या इस जन्म में जिन संचित कर्मों का भोग आरम्भ हो चुका है वही प्रारब्ध है। इसी प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य को अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में जन्म लेना पड़ता है।
किस के घर में जन्म, किस के साथ विवाह और कब मृत्यु – यह आप प्रारब्ध से ही लेकर आये हैं। जन्म प्रारब्ध के अनुसार हुआ है, शादी भी जिस के साथ होनी होगी, हो जायेगी और मृत्यु भी जब आने वाली होगी, आ ही जायेगी। संचित कर्म संस्कार के रूप में पड़े हैं, प्रारब्ध लेकर जन्मे और वर्तमान में जो कर रहे हैं – वे हैं आपके क्रियमाण कर्म।
इस का भोग तीन प्रकार से होता है –
१.अनिच्छा से -वे बातें जिन पर मनुष्य का वश नहीं और न ही विचार किया हो जैसे भूकंप आदि.
२. परेच्छा से -दूसरों के द्वारा दिया गया सुख दुःख .
३. स्वेच्छा से -इस समय मनुष्य की बुद्धि ही वैसी हो जाया करती है, जिससे वह प्रारब्ध के वशीभूत अपने भोग के लिये स्वयं कारक बन जाता है । किसी विशेष समय में विशेष प्रकार की बुद्धि हो जाया करती है तथा उसके अनुसार निर्णय लेना प्रारब्ध है I प्रारब्ध में न हो तो मुँह तक पहुँच कर भी निवाला छीन जाता हे
(३ )- क्रियमाण तीसरा कर्म क्रियमाण है, कर्म शारीरिक हैं, जिन का फल प्रायः साथ के साथ ही मिलता रहता है। नशा पिया कि उन्माद आया। विष खाया कि मृत्यु हुई। शरीर जड़ तत्त्वों का बना हुआ है। भौतिक तत्त्व स्थूलता प्रधान होते हैं। उस में तुरंत ही बदला मिलता है। अग्नि के छूते ही हाथ जल जाता है। नियम के विरुद्ध आहार– विहार करने पर रोगों की पीड़ा का, निर्बलता का अविलम्ब आक्रमण हो जाता है और उस की शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है।
क्रियमाण -तात्कालिक किये जाने वाले कर्म, जो कर्म हम दिन रात इस जीवन में कर रहे हे वो कर्म | क्रियामान कर्म से ही संचित कर्मों का निर्माण होता है| तो यह जोड़ घटाना कैसे चलता है?
क्रियमाण के कुछ कर्म के फल भविष्य में भी फलित होते है, जिन्हे आगामी कर्म कह सकते है। आज पढ़ाई करते है तो भविष्य में अच्छे नंबर से पास होंगे।
जो भी कर्म हम पूर्ण चैतन्यता से नहीं करते वो क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है | जिस के प्रति आप चैतन्य नहीं हैं वो क्रिया नहीं हो सकती और जब हम बिना चैतन्यता के कर्म करते हैं,जैसा प्रायः दैनिक जीवन में होता है तो हमारे संचित कर्म बढ़ जाते हैं । यदि कोई आप का अपमान करे और आप क्रोधित हो जाएँ तो आपके संचित कर्म बढ़ जाते हैं। परन्तु,यदि कोई अपमान करे और आप क्रोध ना करें तो आप के संचित कर्म कम होते हैं। किन्तु केवल प्रारब्ध का ही प्रभाव नहीं होता है, प्रारब्ध के साथ वातावरण का भी असर होता है, समाज का भी असर होता है और राजनीति का भी असर होता है। यह सब मिश्रित होता है। अतः केवल प्रारब्ध के भरोसे नहीं बैठे रहना चाहिए।
जैसे क्रियमाण कर्म करते हो, उस के हिसाब से प्रारब्ध बनता है। यदि आप ने अच्छे कर्म किये तो उस के फलस्वरूप स्वर्ग मिलेगा, लेकिन पुण्य का प्रभाव क्षीण होते ही स्वर्ग से गिराये जा सकते हो। पुनः संचित कर्म के प्रभाव से धरती पर आना पड़ेगा और यदि पाप कर्म किये तो आपको नरक का दुःख भोगना पड़ता है।
इसे मैं एक योगी के उदाहरण से रूप में समझते हे | योगी एक वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न थे कि तभी एक व्यक्ति वह आया और उनका बहुत अपमान किया | वो शांत रहे | कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी (ना ब्राह्य रूप से ना आंतरिक रूप से) उन्हें क्रोध भी नहीं आया| बाद में उनके शिष्यों ने,जो सब कुछ देख सुन रहे थे,पूछा कि आप को क्रोध नहीं आया? तो उन्होंने उत्तर दिया कि संभवतः पूर्वजन्म में मैंने उसका अपमान किया था, वास्तव में मैं प्रतीक्षा में था कि वो आकर मेरा अपमान करे | अब मेरा हिसाब बराबर हो गया | अगर मैं क्रोध करता तो फिर कर्म संचित हो जाते |
कर्म को समझना, इसलिए आवश्यक है कि क्रियमाण कर्म का फल तो निष्काम और निर्लिप्त भाव से कर्म करने से समाप्त हो जाएगा। प्रारब्ध के कर्म भी क्रियाशील होने से यदि। निरासक्त भाव से भोगे तो नष्ट हो जाएंगे और ज्ञान जिसे हम आगे विस्तार से पढ़ेंगे, उस के प्रभाव से संचित कर्म ज्ञान की अग्नि में जल कर भस्म हो जाएंगे, और हमे मुक्ति मिल जाएगी अन्यथा संचित कर्म को भोगते भोगते ही अनेक जन्म निकल जायेंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 4.37 ।।
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