।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.36।।
।। अध्याय 04.36 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 4.36॥
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥
“api ced asi pāpebhyaḥ,
sarvebhyaḥ pāpa-kṛt-tamaḥ..।
sarvaḿ jñāna-plavenaiva,
vṛjinaḿ santariṣyasi”..।।
भावार्थ :
यदि तू सभी पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू मेरे ज्ञान-रूपी नौका द्वारा निश्चित रूप से सभी प्रकार के पापों से छूटकर संसार-रूपी दुख के सागर को पार कर जाएगा। (३६)
Meaning:
Even if you are the most sinful among all sinners, you will certainly cross over all sins with the boat of knowledge.
Explanation:
Shri Krishna continues speaking about the greatness of knowledge in this shloka. He says that this knowledge has the power of destroying all of our sins completely, regardless of how many sins we committed in the past.
Material existence is like a vast ocean, where one is tossed around by the waves of birth, disease, old age, and death. The material energy subjects everyone to the three-fold miseries: ādiātmik—miseries due to one’s own body and mind, ādibhautik—miseries due to other living entities, and ādidaivik—miseries due to climactic and environmental conditions. In this state of material bondage, there is no respite for the soul, and endless lifetimes have gone by being subjected to these conditions. Like a football being kicked around the field, the soul is elevated to the celestial abodes, dropped to the hellish planes of existence, and brought back to the earthly realm, etc. according to its karmas of righteous or sinful deeds.
Let’s re-examine what is meant by sin here using an example. Two most common sins are stealing and harming someone. In both these cases, the physical act itself is not the sin. It is the ego, the assertion of individuality and superiority behind each act, that is the real sin. This sense of separation created by the ego causes us to commit these acts, and experience joy and sorrow as a result. Over the course of our living, we have accumulated a large number of karmas.
Shri Krishna says here that the knowledge gained through sacrifice will destroy all sins. How will this happen? This will happen because the sinner himself will be annihilated through this knowledge. The sinner is nothing but the ego, the notion of individuality created by the false sense of identification with the finite body, mind and intellect.
So two-fold jñāna phalam is mentioned. Mōha nāśaḥ; aikya darśanam. Now Krishna gives the third benefit; namely, sarva pāpa nāśaḥ; the benefit of self-knowledge is the destruction of all your pāpam, which cannot be done by any other method; why it cannot be done by any other method; because the other method is what; prāyacitta karma.
This annihilation of the ego is comparable to deletion of an email account. An email account is nothing but a persona created in the virtual world. It can receive regular emails as well as spam emails. But when the email account itself is deleted, it will no longer be the recipient of any kind of email, regular or junk.
Illumine your intellect with divine knowledge; then with the illumined intellect, control the unruly mind, to cross over the material ocean and reach the divine realm
So therefore, Shri Krishna paints a beautiful picture to deliver this message. He says that we can cross over the river of all our sins with the boat of knowledge.
।। हिंदी समीक्षा ।।
भगवान् कहते हैं कि अगर तू सम्पूर्ण पापियों में भी अत्यन्त पाप करनेवाला है तो भी तत्त्वज्ञान से तू सम्पूर्ण पापों से तर सकता है। भगवान् का यह कथन बहुत आश्वासन देनेवाला है। तात्पर्य यह है कि जो पापों का त्याग करके साधना में लगा हुआ है उस का तो कहना ही क्या है पर जिसने पहले बहुत पाप किये हों उस को भी जिज्ञासा जाग्रत् होनेके बाद अपने उद्धार के विषय में कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि पापी से पापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्म में अभी अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते जितने वर्तमान के पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमान में पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञान को प्राप्त करूँगा तो उस के पापों का नाश होते देरी नहीं लगती। यदि कहीं सौ वर्षों से घना अँधेरा छाया हो और वहाँ दीपक जला दिया जाय तो उस अँधेरे को दूर कर के प्रकाश करने में दीपक को सौ वर्ष नहीं लगते प्रत्युत दीपक जलाते ही तत्काल अँधेरा मिट जाता है। इसी तरह तत्त्वज्ञान होते ही पहले किये गये सम्पूर्ण पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं।
जिस कर्म को सृष्टि यज्ञ च्रक के विरुद्ध हम अन्य तो क्षति या कष्ट पहुचाने के लिए करते है वो पाप है। अतः पाप कर्म बंधक एवम तामस गुण युक्त होता है। जैसे जैसे मनुष्य सत गुण में कार्य करने लगता है तो उस विवेक जाग्रत होने लगता है और वह सृष्टि यज्ञ चक्र में अकर्म करने लगता है जिस के कारण उस को आगे चल कर तत्वदर्शन भी होते है और वो अपने समस्त कर्म बंधन से एवम पापो से मुक्त हो जाता है। यहां यह कहना भी गलत नही होगा कि तत्वज्ञान एक बोध है जिसे पुस्तक पढने से या उपदेश सुनने से या मंदिर में जा कर घंटी बजाने से नही होता। इसे तो आत्मसात करना पड़ता है और जिस ने आत्मसात किया उस के कुछ करने या कहने को कुछ नही होता।
बाल्मीकि जी ने रामायण की रचना की जिन का जीवन का प्रारंभ पापमय था। महात्मा बुद्ध के सम्मुख डाकू अंगुलिमार ने भी समर्पण कर के मुक्ति की राह को थामा। अतः पाप कर लेने से मुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी इस निराशा जनक स्थिति में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि सात्विक भाव से सृष्टि यज्ञ चक्र में कर्मयोगी आगे चल के विवेक द्वारा तत्वदर्शन को प्राप्त होते है जिस से अपने पापो से मुक्त हो कर परमात्मा को प्राप्त होते है। अतः यदि हम कुछ गलत भी कर रहे हो तो भी हमारे लिए मुक्ति का मार्ग हमेशा के लिए बन्द नहीं होता।
परमात्मा के स्वतःसिद्ध ज्ञान के साथ एक होना ही ज्ञानप्लव अर्थात् ज्ञानरूप नौका का प्राप्त होना है। मनुष्य कितना ही पापी क्यों न रहा हो ज्ञानरूप नौका से वह सम्पूर्ण पाप समुद्र से अच्छी तरह तर जाता है। यह ज्ञानरूप नौका कभी टूटती फूटती नहीं इस में कभी छिद्र नहीं होता और यह कभी डूबती भी नहीं। यह मनुष्य को पाप समुद्र से पार करा देती है।
जब तक सुख-दुःख आदि का अनुभव होता है, तब तक ऐसा मानते हैं कि प्रारब्ध-कर्म फल दे रहा है। फल का उदय किसी पूर्व क्रिया का द्योतक है, क्रिया के अभाव में कहीं भी फल का उदय दिखाई नहीं देता ।।
जग जानेपर जैसे स्वप्नावस्था में किए हुए सारे भले-बुरे कर्म लुप्त हो जाते हैं, वैसे ही ‘ अहं ब्रह्मास्मि ‘ ( मैं ब्रह्म हूँ ) का ज्ञान होनेपर अनन्त कल्पों के संचित हुए कर्म भी नष्ट हो जाते हैं ।।
स्वप्नावस्था में यदि कोई पुण्य कर्म या जघन्य पाप हो जाता है, तो निद्रा से जागनेपर क्या उसके लिए उस व्यक्ति को स्वर्ग या नर्क में ले जाया जायेगा ?
जो योगी अपने को आकाश के समान असंग और उदासीन जान लेता है, वह किसी भी कर्म से थोड़ा-सा भी लिप्त नहीं हो सकता ।।
समस्त पापो से मुक्त होना और अपने संचित और प्रारब्ध के कर्म को बिना कर्मफल के भोगने के आत्म ज्ञान की स्थिति का वर्णन लगभग असम्भव है किंतु अष्टवक्र गीता में जनक द्वारा यह वर्णन हैं, पढ़ कर उस स्थिति की कल्पना कर सकते है। ध्यान रहे, जनक कर्मयोगी थे।
शास्त्र कहते हैं कि आत्मज्ञान हो जानेपर संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं तथा क्रियमाण कर्म का फल नहीं भोगना पड़ता , क्योंकि कर्तापन और भोक्तापन नहीं रहता ; परन्तु आरम्भ के कर्मफल तो भोगने पड़ते हैं । लेकिन राजा जनक शास्त्रों की मान्यताओं से परे की बात करते हैं कि मैं आत्मा ही हूँ , जो सदा ही निर्विशेष है , क्योंकि वह अध्यात्म है , सभी गुणों से परे है । जनक जीवनमुक्ति और विदेह- कैवल्य सै भी पार हो गये और आत्मा में स्थिर हो गये ।।
अज्ञानी व्यक्ति मन और अभिमान में जीता है । ज्ञानी मन तथा अहंकार के स्वभाव से रहित होकर केवल साक्षी भाव से जीवन यापन करता है । इसलिए राजा जनक कहते हैं कि सदा स्वभावरहित मुझको कहाँ कर्तापन है ? और कहाँ भोक्तापन है ? अथवा कहाँ निष्क्रियता है ? और कहाँ स्फुरण है ? कहाँ अपरोक्ष अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान है ? अथवा कहाँ फल है ?
राजा जनक कहते हैं कि मैं आत्मा हूँ , जो अद्वय स्वरूप है । मुझ अद्वय स्वरूप को कहाँ लोक है ? अथवा कहाँ मुमुक्षु है ? कहाँ योगी है ? कहाँ ज्ञानवान है ? अथवा कहाँ बद्ध है ? और कहाँ मुक्त है ?
राजा जनक सद्गुरु के कारण केवल बोधमात्र से एक अद्वय स्वरूप को प्राप्त हुए कहते हैं कि मुझ अद्वय स्वरूप को कहाँ सृष्टि और कहाँ प्रलय ? कहाँ साध्य , कहाँ साधन और कहाँ साधक है ? अथवा कहाँ सिद्धि है ? जिसने आत्मा को पा लिया , उसके लिए इन सबका कोई अर्थ नहीं रहा ।।
राजा जनक अपनी आत्मस्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मैं स्वयं आत्मा ही हूँ । सर्वदा विमलरूप मुझको कहाँ प्रमाता? कहाँ प्रमाण ? कहाँ प्रमेय है और कहाँ प्रमा है ? कहाँ किंचित है और कहाँ अकिंचित है ? क्योंकि आत्मा होनेसे मैं सबकुछ हूँ तथा निर्दोष शुद्धस्वरूप हूँ ।।
समस्त कष्ट चित्त के कारण हैं । चित्त ही कामना पैदा करता है । लेकिन आत्मज्ञानी के सभी कष्ट शान्त हो जाते हैं, क्योंकि वह केवल आत्मा मै ही स्थित रहता है । राजा जनक कहते हैं कि सर्वदा क्रियारहित मुझको कहाँ एकाग्रता है ? कहाँ ज्ञान है और कहाँ मूढ़ता है ? कहाँ हर्ष है और कहाँ विषाद है ?
राजा जनक कहते हैं की मैं आत्मा हूँ , अतः मैं सदैव दोषरहित हूँ इसलिए व्यवहार और परमार्थता मेरे में नहीं है । ये तो मन के ही धर्म हैं । सुख-दुख भी मन के धर्म हैं । आत्मा सुख-दुख से परे है । इसलिए मैं निर्मलरूप आत्मा इनसे परे हूँ ।।
आत्मज्ञान की अंतिम उपलब्धि में सभी भेद समाप्त हो जाते हैं , केवल एक चेतन आत्मा ही शेष रहती है । राजा जनक कहते हैं कि मुझ सर्वदा विमलस्वरूप को कहाँ माया है और कहाँ संसार है ? कहाँ प्रीति है और कहाँ विरति है ? कहाँ जीव है और कहाँ ब्रह्म है ? आत्मज्ञान होनेपर सब ब्रह्म ही है ।।
आत्मा सदैव कूटस्थ, अखण्ड , अद्वय ,अविभाजित, विकाररहित , शान्त , केवल चेतना है । इसलिए राजा जनक कहते हैं कि सर्वदा कूटस्थ, अखण्डरूप और स्वस्थ मुझको कहाँ निवृत्ति है ? कहाँ मुक्ति है और कहाँ बन्ध है ?
अज्ञानी ही उपाधिवाला होता है । आत्मा की कोई उपाधि नहीं है । वह सबकुछ ही और कुछ भी नहीं है । इसलिए राजा जनक कहते हैं कि उपाधिरहित शिवरूप अर्थात् कल्याणरूप मुझको क्या उपदेश हो ? अथवा कहाँ शास्त्र है ? कहाँ शिष्य हो ? कहाँ गुरू है ? और कहाँ पुरुषार्थ ?
अन्त में राजा जनक कहते हैं कि अज्ञानी व्यक्ति ही यह कहता है कि सृष्टि है , माया है , ब्रह्म है , जीव है आदि । जिस व्यक्ति ने जाना नहीं , वह ‘ अस्तित्व ‘ और ‘ नास्ति ‘ के भ्रम में जीता है । जिसने जान लिया वह आत्मस्वरूप हो जाता है । उसके लिए ये सन्देह नष्ट हो जाते हैं । उसके लिए कहाँ कहाँ द्वैत और कहाँ अद्वैत ? इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन , मुझमें कुछ भी नहीं उठ रहा है , मैं पूर्णरूपेण शान्त हो गया हूँ ।
आदि शंकराचार्य ने अपने ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त करने और पूर्व के कर्म के लिए विवेक चूड़ामणि लिखा है।
प्रारब्ध ही शरीर का पोषण करता है– ऐसा निश्चय करके निश्चलभाव से धैर्य धारण करके यत्नपूर्वक अपने अध्यास को हमें दूर करना चाहिए।
‘मैं जीव नहीं हूँ, परब्रह्म हूँ ‘– इस प्रकार तत्व (ब्रह्म) से भिन्न अनात्म वस्तुओं का निषेध करके, पूर्व जन्मों के संस्कारों के वेग के फलस्वरूप प्राप्त हुए अध्यास को हमें दूर करना है। ।
श्रुति (वेदान्त-वाक्य), युक्ति और अपनी अनुभूतियों के द्वारा आत्मा की सर्वात्मता को जानकर, किसी भी काल (जाग्रत, स्वप्न आदि) में आभास रूप में प्राप्त अपने अध्यास को हमें दूर करना है।
बोधवान मुनि में निरंहकारता के कारण विषयों को ग्रहण या त्याग करने की वृत्ति न होने से कोई कर्म- प्रयास नहीं रहता। अत: निरन्तर ब्रह्म में एकनिष्ठा के द्वारा अपने अध्यास को हमें दूर करना है। ।
मुक्ति बोध जिसे हम आगे भी विस्तार से पढ़ेंगे, मोक्ष और बंधन से ऊपर ब्रह्मलीन अवस्था है, जहाँ संचित कर्म स्वतः ही नष्ट हो जाते है और जीव “अहम ब्रह्मास्मि” के बोध को प्राप्त हो जाता है।
किस प्रकार यह ज्ञान न केवल पापों को नष्ट करता है, यह संचित कर्मों का नाश कैसे करता है, इस को एक दृष्टान्त के द्वारा हम आगे पढ़ेंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। 4.36।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)