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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  04.32।।

।। अध्याय    04.32 ।।

श्रीमद्भगवद्गीता 4.32

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥

“evaḿ bahu-vidhā yajñā,

vitatā brahmaṇo mukhe..।

karma-jān viddhi tān sarvān,

evaḿ jñātvā vimokṣyase”..।।

भावार्थ : 

इसी प्रकार और भी अनेकों प्रकार के यज्ञ वेदों की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं, इस तरह उन सबको कर्म से उत्पन्न होने वाले जानकर तू कर्म-बंधन से हमेशा के लिये मुक्त हो जाएगा। (३२)

Meaning:

In this manner, various types of sacrifices have been explained in the Vedas. Understand that all those are born of action; having known this, you will be liberated.

Explanation:

With this shloka, Shri Krishna concludes the section on practical yajnyas. So here Krishna says that these 12 yajnas are only sample yajnas. This is not an exhaustive list; we have got hundreds of yajnas,even in the vedas. Krishna is only borrowing some yajnas from the vedas; Gita is never an original work; but it is the elucidation of the vedas; Krishna is only bringing out the vedic wisdom; because in the introduction to the fourth chapter itself Krishna has said. In this section, we came across many varieties of yajnya. There are several more types of yajnyas in the scriptures such as pilgrimages, how to perform poojas during certain festivals, chanting of japas and so on. With the guidance of a teacher, we can choose the one that works best for us and follow it diligently.

One of the beautiful features of the Vedas is that they recognize and cater to the wide variety of human natures. Different kinds of sacrifice have thus been described for different kinds of performers. The common thread running through them is that they are to be done with devotion, as an offering to God. With this understanding, one is not bewildered by the multifarious instructions in the Vedas, and by pursuing the particular yajña suitable to one’s nature, one can be released from material bondage.

Having concluded this section, Shri Krishna now makes a very important point. He says that while performing these yajnyas, we should never forget that any yajnya is ultimately an action. We saw earlier that actions are performed by the gunaas of prakriti. And anything that is related to gunaas is distinct from the eternal essence. So, how can yajynas move us closer to liberation if they are in the realm of gunaas?

Another way of looking at this issue is as follows. Anything that is a result of action will always be finite by definition. We are looking for realization of the eternal essence which is infinite. How will yajnyaas, born out of finite action, make us obtain the infinite eternal essence?

All the yajnas have to be broadly classified into two: all the yajnas are to be broadly classified into two: one is jnana yajna; and the other is all other yajnas; non-jnana yajnas. Krishna calls them drvya yajnaḥ or you can call them karma yajnaḥ. So one is jnana yajnaḥ and all others are karma yajnaḥ; remember even meditation or upasana you practice will come under karma yajñā only.

Karma yajnas can only give purification of mind; after purity everybody has to come to jnana yajna. Follow any karma yajna, purify the mind, follow jnana yajna and be liberated, So we shall be teached   gyaan in forthcoming chapters.

The key point to understand here is that action does not yield realization, only knowledge can do so. Performance of yajnya is a preparatory step towards realization, just like we prepare for sleep in the night. We can lie down on the bed, we can drink a cup of hot milk, we can turn off the light and so on. But the onset of sleep happens on its own. Similarly, even if we perform yajnyaas, realization will happen when we gain the knowledge when we are not the doer or enjoyer of any actions.

।। हिंदी समीक्षा ।।

चौबीसवें से तीसवें श्लोक तक जिन बारह यज्ञों का वर्णन किया गया है उन के सिवाय और भी अनेक प्रकार के यज्ञों का वेद जैसे तीर्थ यात्रा आदि की वाणी में विस्तार से वर्णन किया गया है। कारण कि साधकों की प्रकृति के त्रिगुण के अनुसार उन की निष्ठाएँ भी अलग अलग होती हैं और तदनुसार उन के साधन भी अलग अलग होते हैं।

वेदों में सकाम अनुष्ठानों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। परन्तु उन सब से नाशवान् फल की ही प्राप्ति होती है अविनाशी की नहीं। इसलिये वेदों में वर्णित सकाम अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य स्वर्गलोक को जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार वे जन्ममरण के बन्धन में पड़े रहते हैं । परन्तु यहाँ उन सकाम अनुष्ठानों की बात नहीं कही गयी है। यहाँ निष्काम कर्मरूप उन यज्ञों की बात कही गयी है जिन के अनुष्ठान से परमात्मा की प्राप्ति होती है। अतः कर्मयोग के स्वरूप में उदाहरण के लिए जिन भी यज्ञ का वर्णन किया है या नहीं भी किया है, वे यदि निरासक्त और निष्काम भाव से लोकसंग्रह हेतु किए जाए, तो मनुष्य चित्त और आत्मशुद्धि को प्राप्त होता है।

वेदों में केवल स्वर्गप्राप्ति के साधन रूप सकाम अनुष्ठानों का ही वर्णन हो ऐसी बात नहीं है। उन में परमात्मा प्राप्ति के साधन रूप श्रवण मनन निदिध्यासन प्राणायाम समाधि आदि अनुष्ठानों का भी वर्णन हुआ है। उपर्युक्त पदों में उन्हीं का लक्ष्य है। तीसरे अध्याय के चौदहवें पंद्रहवें श्लोकों में कहा गया है कि यज्ञ वेद से उत्पन्न हुए हैं और सर्वव्यापी परमात्मा उन यज्ञों में नित्य प्रतिष्ठित (विराजमान) हैं। यज्ञों में परमात्मा नित्य प्रतिष्ठित रहने से उन यज्ञों का अनुष्ठान केवल परमात्मा तत्त्व की प्राप्ति के लिये ही करना चाहिये।

वेदों में बताए लगभग सभी यज्ञ कर्मजन्य हैं अर्थात् कर्मों से होनेवाले हैं। शरीर से जो क्रियाएँ होती हैं वाणी से जो कथन होता है और मन से जो संकल्प होते हैं वे सभी कर्म कहलाते हैं।

क्योंकि अर्जुन अपना कल्याण तो चाहते हैं पर युद्ध रूप कर्तव्य कर्म को पाप मान कर उस का त्याग करना चाहते हैं। इसलिये  भगवान् अर्जुन के प्रति ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं कि युद्धरूप कर्तव्य कर्म का त्याग कर के अपने कल्याण के लिये तू जो साधन करेगा वह भी तो कर्म ही होगा। वास्तव में कल्याण कर्म से नहीं होता प्रत्युत कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होने से होता है। इसलिये यदि तू युद्ध रूप कर्तव्य कर्म को भी निर्लिप्त रहकर करेगा तो उस से भी तेरा कल्याण हो जायगा क्योंकि मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते प्रत्युत (कर्म की और उस के फल की) आसक्ति ही बाँधती है । युद्ध तो तेरा सहज कर्म (स्वधर्म) है इसलिये उसे करना तेरे लिये सुगम भी है। इसी अध्यायके चौदहवें श्लोक में बताया कि कर्म फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते इस प्रकार जो मुझे जान लेता है वह भी कर्मों से नहीं बँधता। तात्पर्य यह है कि जिस ने कर्म करते हुए भी उन से निर्लिप्त रहने की विद्या ( कर्मफल में स्पृहा न रखना) को सीख कर उस का अनुभव कर लिया है वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। फिर पंद्रहवें श्लोक में भगवान् ने इसी बात को एवं ज्ञात्वा पदों से कहा। वहाँ भी यही भाव है कि मुमुक्षु पुरुष भी इसी प्रकार जानकर कर्म करते आये हैं।

सोलहवें श्लोक में कर्मों से निर्लिप्त रहने के इसी तत्त्व को विस्तार से कहने के लिये भगवान् ने प्रतिज्ञा की और  अब इस श्लोक में एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्य से पदों से ही उस विषय का उपसंहार करते हैं। तात्पर्य यह है कि फल की इच्छा का त्याग कर के केवल लोकहितार्थ कर्म करने से मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। संसार में असंख्य क्रियाएँ होती रहती हैं परन्तु जिन क्रियाओं से मनुष्य अपना सम्बन्ध जोड़ता है उन्हीं से वह बँधता है। संसार में कहीं भी कोई क्रिया (घटना) हो जब मनुष्य उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है उसमें राजी या नाराज होता है तब वह उस क्रिया से बँध जाता है। जब शरीर या संसार में होनेवाली किसी भी क्रिया से मनुष्य का सम्बन्ध नहीं रहता तब वह कर्म बन्धनसे मुक्त हो जाता है।

गीता में अर्जुन को केंद्रित रख कर  भगवान श्री कृष्ण जो भी कह रहे है उन्हें श्रद्धा, तत्परता एवम संयतेंद्रीय हो कर यदि समर्पित भाव से पढ़े तो ज्ञात होगा कि अर्जुन युद्ध छोड़ कर सन्यास लेना चाहते थे। उन के प्रकृति के गुण, धर्म एवम प्रवृति के अनुसार उन का वर्ण क्षत्रिय है। इसलिये क्षत्रिय किसी भी युद्ध क्षेत्र से बिना कर्तव्य धर्म के पालन के पलायन करेगा तो वह भी पलायन भी कर्म होगा और सहजता के अभाव में,  जिस कारण से पलायन करेगा वह उस का बंधन होगा। उसे हमेशा यह आभास रहेगा कि उस ने युद्ध का त्याग किया है और त्याग के बाद भी जो वह कर तो कर्म ही है, वह कर्म का त्याग नही है। अतः स्वधर्म छोड़ कर अन्य धर्म के कर्म को कोई किसी कारणवश छोड़ता है तो वह कर्म बंधन से मुक्त नही हो सकता। कृष्ण जी ने इतने प्रकार के यज्ञ स्वरूप के कर्म बताये कि कोई भी व्यक्ति कर्म मुक्त नही हो सकता, मोक्ष के लिये किसी भी प्रकार के कर्म में आसक्ति मुक्त होना है। इसलिये जो कर्म व्यक्ति के गुण, धर्म एवम प्रवृति के अनुसार जिस भी वर्ण व्यवस्था का हो, उसे उसी कर्म को निष्काम भाव से करने से सहजता एवम सरलता रहेगी जिस से मुक्ति मार्ग पर बढ़ना संभव है।

यही बात जीवन मे सिद्ध होती है कि कर्तव्य धर्म मे हम यदि किसी मोह, लोभ, आसक्ति, अहम या कामना वश किसी कर्म को नही करते तो उस का फल हमे मिलता ही है। पारिवारिक झंझट में यदि आप अपने कदम पीछे लेते है और निष्काम हो कर अपने कर्तव्य का पालन नही करते या किसी असहाय को देख कर कौन झंझट में पड़े, सोच कर आप अपनी क्षमता के अनुसार काम नही करते, व्यापार या व्यवसाय में कठनाई में उस व्यापार को न संभालते वक्त पीछे हटते है, या फिर धर्म के लिए आप परिवार और समाज  में संस्कार का त्याग कर के आसुरी वृति का जीवन ‘ खाना पीना और मौज करना ‘ जीते है तो आप कुछ भी करे, कर्म का बंधन आप को कर्म की आसक्ति या कारण से लगेगा। अतः अपनी प्रवृति, गुण एवम धर्म को बिना पहचाने आप कोई भी अन्य कर्म करते है, तो वह सहज नही होता, इसलिये आप उस कर्म यज्ञ में मुक्ति को नही प्राप्त कर सकते।

अतः यह तो स्पष्ट है कि शरीर, इंद्रियाओ, मन एवम बुद्धि से जो भी कर्म यानि यज्ञ करेंगे वो कर्म ही कहलायेगा क्योंकि यह प्रकृति के द्वारा त्रिगुण्यामि होता है। स्वांस लेना, खाना-पीना या निष्क्रिय रहना भी कर्म ही है। इसलिये अर्जुन को भगवान कर्म के विभिन्न भेद बता कर उसे समझते है कि केवल आसक्ति रहित कर्म जो लोक संग्रह के लिए हो  एवम निष्काम और निःद्वन्द भाव से किया हो उस का बंधन नही रहता। यही कर्म हमारे चेतन को अहम एवम मोह से मुक्त करता है जिस से चेतन चेतन्य से प्रकाशित हो कर आत्मस्वरूप हो जाता है। कर्तव्य धर्म से पलायन कोई मुक्ति का मार्ग नही है।

यज्ञों का वर्णन सुनकर ऐसी जिज्ञासा होती है कि उन यज्ञों में से कौन सा यज्ञ श्रेष्ठ है इस का समाधान भगवान् आगे के श्लोक में करते हैं।

।।हरि ॐ तत सत।।4.32।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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