।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.31।।
।। अध्याय 04.31 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 4.31॥
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥
“yajña-śiṣṭāmṛta-bhujo yānti,
brahma sanātanam..।
nāyaḿ loko ‘sty ayajñasya,
kuto ‘nyaḥ kuru-sattama”..II
भावार्थ :
अमृत को चखकर यह सभी योगी सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं, और यज्ञ को न करने वाले मनुष्य तो इस जीवन में भी सुख-पूर्वक नहीं रह सकते है, तो फिर अगले जीवन में कैसे सुख को प्राप्त हो सकते है? (३१)
Meaning:
Only those who taste the nectar of sacrificial remnants obtain the ever-existing eternal essence. The non-performer of sacrifice does not have (joy) in this world, how (will he get joy) in other worlds, O foremost among Kurus?
Explanation:
So far, Shri Krishna gave us a wide range of yajnyas that we can implement in our daily lives. In this shloka, he urges us to implement at least one of those yajnyas in our life. He says that one who does not live his life in the yajnya spirit will not even be able to function properly in the material world, let alone progress on the spiritual path.
Let’s take a practical example. Suppose we decide to follow the yajnya of nityaahaarah. In other words, we decide to restrict our food intake. How do we actually implement this? Shri Krishna tells us that in all actions that we undertake, we should first perform the yajyna, and then partake of the “remnants” of the yajnya.
So if we see a tasty dish, we perform a yajnya on the spot by saying “I am performing a yajnya. I first offer all the food to Ishvara because this food belongs to Ishvara. I will take only x amount for myself as the remnants of that yajnya.” The key point here is we first perform the yajnya, then partake of the fruit of the action. We do not rush directly into the action. This lets our intellect override the impulses of our senses.
If we truly make yajnya spirit a part of our life, we will develop “praasada buddhi”, which is one of the cornerstones of karma yoga. Since the praasaada is a gift from Ishvaraa, we will not compare it to someone else’s prasaada. In doing so, we will subdue negative emotions such as jealousy and insecurity. Over time, we will find inner joy in conducting such yajnyas every day. This inner joy is called “amrita” or nectar in this shloka. It will have the power of negating all our sorrows.
The great devotee Uddhav told Shree Krishna: “I will only eat, smell, wear, live in, and talk about objects that have first been offered to you. In this way, by accepting the remnants as your prasād, I will easily conquer Maya.” Those who do not perform sacrifice remain entangled in the fruitive reactions of work and continue to experience the torments of Maya.
One who does not maintain the attitude of yajnya goes against the laws of nature, as it were. This is because the yajnya spirit pervades the entire universe, as we have seen earlier. Such a person lives an unhappy existence even in the material world, and has no chance of attaining any spiritual goals whatsoever.
।। हिंदी समीक्षा ।।
मनुस्मृति में गृहस्थ के पांच प्रकार के यज्ञ का विवरण के बाद, हमे यह समझना होगा कि अन्न द्वारा यज्ञ का अर्थ है अतिथि को भोजन कराने के बाद बचा हुआ भोजन विधस एवम यज्ञ से जो शेष रहे उसे अमृत कहते है। अतः प्रत्येक गृहस्थ को विघसाशी या अमृताशी होना चाहिये। क्योंकि यज्ञ के अर्थ किया हुआ कर्म बंधक नही होता।
व्यवहारिक दृष्टिकोण से अन्न के साथ यज्ञ का अर्थ यही है, संग्रह की भावना के त्याग कर योगी अतिथि एवम समाज के वर्ग को भोजन कराने के बाद भोजन करे। भोजन जीवन की आवश्यकता है किन्तु जब त्याग एवम सयंम के साथ नियमित एवम सात्विक आहार सभी को भोजन कराने के बाद लिया जाए तो वह यज्ञ हो जाता है।
यज्ञ करने से अर्थात् निष्काम भावपूर्वक दूसरों को सुख पहुँचाने से समता का अनुभव हो जाना ही यज्ञशिष्ट अमृत का अनुभव करना है। अमृत अर्थात् अमरता का अनुभव करने वाले सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। स्वरूप से मनुष्य अमर है। मरने वाली वस्तुओं के सङ्ग से ही मनुष्य को मृत्यु का अनुभव होता है। इन वस्तुओं को संसार के हित में लगाने से जब मनुष्य असङ्ग हो जाता है तब उसे स्वतःसिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है।
यज्ञ के पांच प्रकार का अध्ययन हम ने पिछले श्लोक २८ में किया, किसी भी प्रकार का यज्ञ कर्मबंधक नहीं होता क्योंकि वो लोकसंग्रह के लिये किया गया है। बिना लोकसंग्रह के इहलोक भी सिद्ध नही होता क्योंकि हम ने पहले यही पढ़ा है कि सृष्टि की रचना के बाद ब्रह्मा ने यही आज्ञा दी थी सभी मिल जुल कर रहे और परोपकार करते रहे। जितना मनुष्य देव के लिए समर्पण करेगा उसे देव भी उतना देंगे। यानि यज्ञ के बिना पानी नहीं और पानी के बिना लोक गुजर नहीं। यदि हम कर्म बंधन कार्य कर के प्रकृति एवम सृष्टि यज्ञ के विरुद्ध विज्ञान की प्रगति करते है तो शनेः शनै हम प्रकृति के उपहार स्वच्छ वायु एवम जल से भी वंचित होंगे।
कर्तव्यमात्र केवल कर्तव्य समझकर किया जाय तो वह यज्ञ हो जाता है। केवल दूसरोंके हितके लिये किया जानेवाला कर्म ही कर्तव्य होता है। जो कर्म अपने लिये किया जाता है वह कर्तव्य नहीं होता प्रत्युत कर्ममात्र होता है जिस से मनुष्य बँधता है। इसलिये यज्ञ में देना ही देना होता है लेना केवल निर्वाहमात्र के लिये होता है । शरीर यज्ञ करने के लिये समर्थ रहे इस दृष्टि से शरीर निर्वाह मात्र के लिये वस्तुओं का उपयोग करना भी यज्ञ के अन्तर्गत है। मनुष्य शरीर यज्ञ के लिये ही है। उसे मानबड़ाई सुख आराम आदि में लगाना बन्धनकारक है। केवल यज्ञ के लिये कर्म करने से मनुष्य बन्धनरहित (मुक्त) हो जाता है और उसे सनातन ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। तीसरे अध्याय के आठवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि यज्ञ न करने से तेरा यह लोक भी लाभदायक नहीं रहेगा फिर परलोक का तो कहना ही क्या है केवल स्वार्थभाव से (अपने लिये) कर्म करने से इस लोक में संघर्ष उत्पन्न हो जायगा और सुखशान्ति भंग हो जायगी तथा परलोक में कल्याण भी नहीं होगा। अपने कर्तव्य का पालन न करने से घर में भी भेद और संघर्ष पैदा हो जाता है खटपट मच जाती है। घरमें कोई स्वार्थी पेटू व्यक्ति हो तो घरवालों को उस का रहना सुहाता नहीं। स्वार्थत्यागपूर्वक अपने कर्तव्य से सब को सुख पहुँचाना घरमें अथवा संसार में रहने की विद्या है। अपने कर्तव्य का पालन करने से दूसरों को भी कर्तव्य पालन की प्रेरणा मिलती है। इस से घर में एकता और शान्ति स्वाभाविक आ जाती है। परन्तु अपने कर्तव्य का पालन न करनेसे इस लोक में सुखपूर्वक जीना भी कठिन हो जाता है और अन्य लोकों की तो बात ही क्या है इसके विपरीत अपने कर्तव्य का ठीक ठीक पालन करने से यह लोक भी सुखदायक हो जाता है और परलोक भी।
इस प्रकार व्यापक एवम विस्तृत अर्थ से यह ही निश्चित है कि जब तक यज्ञ की रचना ही समाज का आधार है, जब तक प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता के कुछ अंश का भी यज्ञ यानी लोकसंग्रह न करे तो इस लोक का व्यवहार नहीं चल सकता और समाज की व्यवस्था भी ठीक नही रह सकती। किसी भी मनुष्य को अपनी स्वतंत्रता को कुछ हद्द तक त्यागे बिना दूसरे की स्वतंत्रता नही मिल सकती। हमारे आचार विचार नियमित होंगे तो ही समाज चलेगा। तो ही सृष्टि यज्ञ चक्र के नियम का पालन होगा और देव भी हमे पर्याप्त जल एवम वायु प्रदान करेंगे। पर्यावरण एवम सामाजिक व्यवस्था के लिये हर व्यक्ति को लोकसंग्रह हेतु यज्ञ करना आवश्यक है। यज्ञ का व्यापक अर्थ कर्म ही है।
महाभारत में यज्ञ की कथा है जिस में महाभारत युद्ध में विजयी होने के पश्चात युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का राज्य प्राप्त हुआ। श्री कृष्ण और महर्षि वेद व्यास जी ने युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करने के लिए कहा।
पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। उनके इस यज्ञ में हजारों की संख्या में राजा, महाराजा, ऋषि, मुनि और ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया। पांडवों ने दिल खोलकर याचकों को दान दिया जिससे हर कोई युधिष्ठिर द्वारा किए गए यज्ञ और दान पुण्य की प्रशंसा करने लगा। जिससे युधिष्ठिर के मन में अहंकार पैदा हो गया। श्री कृष्ण समझ गए कि युधिष्ठिर का अहंकार दूर करना पड़ेगा।
उसी समय एक नेवला वहां आया जिसका आधार शरीर स्वर्ण का था। वह वहां यज्ञ भूमि में लोटने लगा। नेवला युधिष्ठिर से कहने लगा कि,” मैंने सुना था कि पांडवों द्वारा करवाया गया यज्ञ सबसे वैभवशाली और बड़ा है लेकिन मेरी दृष्टि में इस यज्ञ की कोई महानता नहीं है।”
वहां उपस्थित लोग कहने लगे कि,” यह तुम ऐसा क्यों कह रहे हो ? हमने तो इससे बड़ा यज्ञ कहीं नहीं देखा।” नेवला ने बताया कि, “पांडवों से भी महान यज्ञ वहां था जहां लोटने पर मेरा आधा शरीर सोने का हो गया।”
नेवला कथा सुनने लगा कि, एक गांव में एक ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था और जो भी खाने को मिलता उसको मिल बांट कर खाते थे। एक बार गांव में अकाल पड़ा तो कई दिन उन सबको भोजन नहीं मिल। बहुत दिन के बाद उनको थोड़ा सा आटा मिला तो ब्राह्मणी ने उससे भोजन बना कर उसको खाने के लिए चार बराबर भागों में बांट दिया।
लेकिन जैसे ही वह भोजन करने वाले थे, तभी एक अतिथि आ गया। ब्राह्मण ने अपनी रोटी का हिस्सा उस अतिथि को दे दिया। लेकिन उससे उस अतिथि की भुख नहीं मिटी तो उस ब्राह्मण की पत्नी ने भी अपना भोजन अतिथि को दे दिया।
उसके पश्चात भी जब अतिथि की भूख शांत नहीं हुई तो उसके पुत्र और पुत्रवधू ने भी अपने हिस्से का भोजन उस अतिथि को खाने के लिए दे दी।अतिथि तृप्त होकर चला गया लेकिन ब्राह्मण का सारा परिवार भूखा ही रह गया।
उस अतिथि द्वारा खाते वक्त अन्न के कुछ कण जमीन पर गिरे थे। नेवला उन पर लोटने लगा जिस से उसका आधा शरीर सोने का हो गया।
नेवला कहने लगा कि तब से मैं सारी पृथ्वी पर घूम रहा हूं मुझे वैसा यज्ञ कहीं भी नहीं मिला। इसलिए मेरा आधा शरीर सोने का है और आधा भूरा ही रह गया।
जब मैंने पांडवों द्वारा करवाए गए इस महान यज्ञ के बारे में सुना तो मैं यहां चला आया ताकि मेरा पूरा शरीर सोने का हो सके। लेकिन मैंने पूरी यज्ञ भूमि पर लोटकर देख लिया लेकिन मेरा शरीर सोने का नहीं हुआ। इसलिए महाराज युधिष्ठिर द्वारा करवाए गए इस अश्वमेध यज्ञ की मेरी दृष्टि में कोई महानता नहीं है।
नेवले की बात सुनकर युधिष्ठिर के मन में यज्ञ को लेकर जो अहंकार पैदा हुआ था वह चूर हो गया। फिर युधिष्ठिर श्री कृष्ण से उस ब्राह्मण द्वारा किए गए दान की महानता के बारे में पूछा।
श्री कृष्ण कहने लगे कि, महाराज आप ने निःसंदेह महान यज्ञ का आयोजन किया था लेकिन वह आयोजन अपने अपनी कुल सम्पत्ति में से कुछ भाग गरीबों, ब्राह्मणों और याचको को दिया। लेकिन उस ब्राह्मण और उस के परिवार ने अपनी भूख की चिंता किए बिना अपना – अपना भोजन उस अनजान अतिथि को दिया। इसलिए उस के यज्ञ को नेवला ज्यादा महान कह रहा है। इसलिए कहा जाता है कि श्रद्धा पूर्वक और अपने सामर्थ्य के अनुसार दान करना चाहिए। अगर आप के पास कुछ नहीं है तो आप जल दान कर सकते हैं। दान अर्थात यज्ञ अहम, दया, कामना और आसक्ति और स्वार्थ के साथ नही किया जाना चाहिए क्योंकि क्रिया प्रकृति का कार्य है और कर्ता भाव और भोक्ता भाव ही कर्म बन्धन है।
यज्ञ अर्थात कर्म से मन और बुद्धि में शुद्धता आती है, जब मन और बुद्धि में शुद्धता आती है तो प्रकृति के साथ योग बनता और अपने स्वरूप का ज्ञान होता है। इसलिए जो योग के नाम पर ध्यान और कुंडली जागरण का अभ्यास कराते है, वे यदि मन और बुद्धि की आत्म शुद्धि के बिना होगा तो समझ जाओ कि अज्ञान ही होगा। आज के योगगुरु काफी कुछ ऐसे ही है। सांख्य में विवेक का होना ज्ञान के लिए जरूरी है। विवेक शुद्ध मन और बुद्धि से होता है तो बिना शुद्ध मन और बुद्धि के विवेक की लय कैसे कोई पैदा कर सकता है। मन की साधना शुरू होती है धारणा – ध्यान – समाधि से। स्थान में मन को नियंत्रित करना धारणा है, काल में मन को नियंत्रित करना ध्यान है और ध्यान प्रवाह प्रधान है, वस्तु प्रधान समाधि है अतः समाधि में वस्तु का स्फूरण होता है। मन में जो कार्य कारण भाव है उसे विलय करना ही योग अर्थात यज्ञ है। पहले मन को इंद्रियों में प्रत्याहार करो। आहार तो शरीर के लिए है। गीता अध्ययन कोई व्यवसायिक हो कर करता है तो कोई जानकारी और शिक्षित होने के लिए, किंतु जो आत्मशुद्धि के लिए करते है, वे ही मुमुक्षु हो कर ज्ञान को प्राप्त होते है। जो काम, वासना आसक्ति, मोह लोभ या स्वार्थ से गीता का अध्ययन करते है, उन के लिए ज्ञान नीरस ही होता है।
क्योंकि यह सृष्टि सनातन संस्कृति के अनुसार अपने लिए संग्रह नही करते हुए, लोकसंग्रह के कर्म रूपी यज्ञ से चलती है, इसलिए आगे भी यज्ञ के विस्तार पूर्वक ज्ञान के बाद कर्म के व्यवहारिक लोकसंग्रह को हम पढेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।। 4.31।।
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