।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.27।।
।। अध्याय 04.27 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 4.27॥
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥
“sarvāṇīndriya-karmāṇi,
prāṇa-karmāṇi cāpare..।
ātma-saḿyama-yogāgnau,
juhvati jñāna-dīpite”..।।
भावार्थ :
कुछ मनुष्य सभी इन्द्रियों को वश में करके प्राण-वायु के कार्यों को मन के संयम द्वारा आत्मा को जानने की इच्छा से आत्म-योग रूपी अग्नि में हवन करते हैं। (२७)
Meaning:
Others offer the activities of the senses and the activities of the life force into the flame of the discipline of self- restraint, kindled by knowledge.
Explanation:
In prior shlokas, Four yajnas have been talked about. Brahma jnana yajna; daiva yajna, indriya samyama yajna, viṣaya nigraḥ yajnaḥ.Now Krishna is introducing the fifth yajnah; viz., atma samyama yajnaḥ; atma samyamaḥ; means mental discipline; which is tougher yajnah; previously we talked about sensory discipline; it is relatively easier; if you can’t see the gory sight, you can close your eyes; and if you cant’ listen to the noise, you can close your ears; at least you can get away from that place even; but mental discipline is more difficult, because even if you get out of place, that thought can continue. Some people follow this mental discipline; and atma here means mind; samyama means discipline.
Shri Krishna gave us a variety of techniques to practice yajnya, from worship of a deity to more advanced techniques such as contemplation of the eternal essence, restraining movement of senses, and dissolving the notion of external objects altogether. In this shloka, he describes a technique for more advanced seekers where one not just restrains the senses, but also restrains the life forces or praana within our body. This discipline is the raaja yoga of Patanjali. It begins with the three limbs of yama, niyama and aasana that we saw in the previous sholka. Let us examine one key aspect of this technique, which is understanding of praana.
While haṭha yogis strive to restrain the senses with brute will-power, jnana yogis accomplish the same goal with the repeated practice of discrimination based on knowledge. They engage in deep contemplation upon the illusory nature of the world, and the identity of the self as distinct from the body, mind, intellect, and ego. The senses are withdrawn from the world, and the mind is engaged in meditation upon the self. The goal is to become practically situated in self-knowledge, in the assumption that the self is identical with the Supreme Ultimate reality. As aids to contemplation, they chant aphorisms such as: tattvamasi “I am That,” (Chhāndogya Upaniṣhad 6.8.7)[v21] and ahaṁ brahmāsmi “I am the Supreme Entity.”(Bṛihadāraṇyak Upaniṣhad 1.4.10) [v22]
The practice of jnana yog is a very difficult path, which requires a very determined and trained intellect. The Śhrīmad Bhāgavatam (11.20.7) states: nirviṇṇānāṁ jnanayogaḥ [v23] “Success in the practice of jnana yog is only possible for those who are at an advanced stage of renunciation.”
Praanaas are energy systems within our body that sustain physiological processes. There are five types of praana : praana, apaana, udaana, vayaana and samaana. Just like restraining the senses conserves energy that can be redirected towards advancing spiritually, so too can restraining the praanaas lead to the same outcome. However, this technique requires the guidance of a teacher and is not recommended for self-experimentation.
The senses and the praanaas are like rays of the sun emanating from our self. So as the yogi progresses in this yajnya, he regulates the praanaas using praanaayaam, the fifth limb of the raaja yoga technique which is described a later shloka. He then withdraws attention from senses and from the praanas, and redirects the energy towards concentration or dhyaana on the eternal essence, which is the sixth limb of Patanjali yoga. He then progresses to uninterrupted concentration or dhaarana, the seventh limb. Eventually, he attains direct perception of the eternal essence. This ultimate state is known as samaadhi, the eight and final limb of Patanjali yoga.
Knowing fully well that most of us need more basic techniques, Shri Krishna gives us a whole range of options in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अभी तक श्लोक 23 से 25 में हम ने विभिन्न प्रकार के जीव द्वारा प्रकृति के तीन गुण सत, रज और तम पर नियंत्रण करते हुए, अपने समस्त कर्म पूर्ण ब्रह्म में विलीन करने के यज्ञ को पढ़ा, फिर स्वयं को ब्रह्म में कर्म के समर्पित यज्ञ को पढ़ा, फिर देव यज्ञ, इंद्रिय निग्रह यज्ञ और विषय भोग यज्ञ को समझा। यज्ञ का अर्थ जीव द्वारा प्रकृति के निमित्त हो कर कर्म करना ही है, किंतु यही कर्म जब अहम, राग और द्वेष, कामना, आसक्ति, लोभ, मोह और मुक्ति की भी आशा छोड़ कर ब्रह्म के प्रति यज्ञ में अग्नि की आहुति की भांति कर्तव्य कर्म समझ कर किए जाते है तो इन्हे कर्म सन्यास योग कहते है। अतः इन कर्म के फल का कोई बंधन नहीं होता, अर्थात यह कर्म भुने हुए बीज की तरह अंकुरित नही होते और जीव प्रारब्ध और संचित कर्म को भोग कर मोक्ष को प्राप्त होता है।
श्लोक 26 से 30 मुख्यतयः यज्ञ का अर्थ योग से लिया गया है। 28 एवम 29 में कर्मयोग एवम पातंजलयोग जो प्राणायाम से संबंधित है एवम 30-31 प्राणायाम एवम उपवास से संबंधित है। इन्हें हम आगे पढ़ेंगे।
श्लोक 26-27 तीन बातें बताई गई है।
1) इंद्रियाओ का संयम करना अर्थात उन को योग्य मर्यादा के भीतर अपने व्यवहार को करने देना।
2) इंद्रियाओ के विषय अर्थात उपयोग के पदार्थ सर्वथा छोड़ कर इंद्रियाओ को बिल्कुल समाप्त कर देना।
3) न केवल इंद्रियाओ के व्यापार को, प्रत्युक्त प्राणों के व्यापार को बंद कर पूरी समाधि लगा कर केवल आत्मानंद में ही मगन रहना।
यज्ञ शब्द के मूल अर्थ द्रव्यात्मक यज्ञ को लक्षणा से विस्तृत और व्यापक कर तप, सन्यास, समाधि एवम प्राणायाम प्रभृति भगवद प्राप्ति के सब प्रकार के साधनों को एक यज्ञ शीर्षक में ही समावेश कर दिया गया है। अतः यज्ञ का अर्थ मात्र हवन या द्रव्यात्मक यज्ञ न हो कर व्यापक हो गया है। मनुस्मृति में भी ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, भूत यज्ञ, मनुष्य यज्ञ एवम पितृ यज्ञ सभी पांच महायज्ञ गृहस्थ को भी करते रहने का निर्देश है, फिर यही कहा है इन्द्रियों में वाणी का हवन कर, अथवा वाणी में प्राण का हवन कर के या अंत मे ज्ञान यज्ञ से भी परमेश्वर का यजन किया जाना चाहिये। कालांतर में सन्यास में परमेश्वर का यजन ज्यादा होने से योग, प्राणायाम आदि सामान्य वर्ग में कम होने लगे, जो अब योग दिवस या योग विस्तार से पुनः सामान्य वर्ग में पुनः आ रहे है।
कर्म को त्याग कर को ज्ञान मार्ग द्वारा जीव इंद्रियों को वश में कर के प्राण वायु के कार्यों से मन और इंद्रियों को संयम करते है, जो पतंजलि योग शास्त्र अर्थात ज्ञान, ध्यान और बुद्धि योग है।
कर्मयोगी को सन्यासी की भांति भी योग अर्थात मन और इंद्रियों को प्राण वायु को नियंत्रित करते हुए यज्ञ की आवश्यकता है, जिस से मन और इंद्रियों पर उस का नियंत्रण अस्थायी न हो। हम इसे मनन और निंध्यासन से समाधि लगाना और संयम को प्राप्त करना भी कह सकते है जो सब से दुष्कर मार्ग है।
इस श्लोक में समाधि को यज्ञ का रूप दिया गया है। कुछ योगी लोग दसों इन्द्रियों की क्रियाओं का समाधि में हवन किया करते हैं। तात्पर्य यह है कि समाधि अवस्था में मन बुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों) की क्रियाएँ रुक जाती हैं। इन्द्रियाँ सर्वथा निश्चल और शान्त हो जाती हैं। समाधिरूप यज्ञ में प्राणों की क्रियाओँ का भी हवन हो जाता है अर्थात् समाधिकाल में प्राणों की क्रियाएँ भी रुक जाती हैं। समाधि में प्राणों की गति रोकने के दो प्रकार हैं एक तो हठयोग की समाधि होती है जिस में प्राणों को रोकने के लिये कुम्भक किया जाता है। कुम्भक का अभ्यास बढ़ते बढ़ते प्राण रुक जाते हैं जो घंटों तक दिनों तक रुके रह सकते हैं। इस प्राणायाम से आयु बढ़ती है जैसे वर्षा होने पर जल बहने लगता है तो जल के साथ साथ बालू भी आ जाती है उस बालू में मेढक दब जाता है। वर्षा बीतने पर जब बालू सूख जाती है तब मेढक उस बालू में ही चुपचाप सूखे हुए की तरह पड़ा रहता है उस के प्राण रुक जाते हैं। पुनः जब वर्षा आती है तब वर्षा का जल ऊपर गिरने पर मेढक में पुनः प्राणों का संचार होता जाता है और वह टर्राने लग जाता है।दूसरे प्रकार में मन को एकाग्र किया जाता है। मन सर्वथा एकाग्र होने पर प्राणों की गति अपने आप रुक जाती है।
ज्ञानदीपिते समाधि और निद्रा दोनों में कारण शरीर से सम्बन्ध रहता है इसलिये बाहर से दोनों की समान अवस्था दिखायी देती है। यहाँ समाधि और निद्रा में परस्पर भिन्नता सिद्ध की गयी है। तात्पर्य यह कि बाहर से समान दिखायी देने पर भी समाधिकाल में एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही सर्वत्र परिपूर्ण है ऐसा ज्ञान प्रकाशित (जाग्रत्) रहता है और निद्राकाल में वृत्तियाँ अविद्या में लीन हो जाती हैं। समाधिकाल में प्राणों की गति रुक जाती है और निद्राकाल में प्राणों की गति चलती रहती है। इसलिये निद्रा आने से समाधि नहीं लगती।
समाधिरूप यज्ञ करने वाले योगी लोग इन्द्रियों तथा प्राणों की क्रियाओं का समाधि योग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं अर्थात् मनबुद्धि सहित सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोक कर समाधि में स्थित हो जाते हैं।समाधिकाल में सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और प्राण अपनी चञ्चलता खो देते हैं। एक सच्चिदानन्द घन परमात्मा का ज्ञान ही जाग्रत् रहता है।
प्राणायाम एक कठिन एवम तकनीक प्रक्रिया है जिसे किसी सिद्ध गुरु के निर्देश के अंतर्गत ही करना चाहिए। यह यज्ञ की पराकाष्ठा है जिस में समाधि अवस्था मे जिस परमात्मा को पाना था, उसी स्थिति को प्राप्त हो गए।
एकाग्र चित, मजबूत मानसिक स्थिति, इंद्रियाओ पर नियंत्रण एवम दृढ़ संकल्प आदि गुणों का विकास किसी भी उच्च व्यक्त्वि के लिये अनिवार्य है। यह सब गुण इन्ही यज्ञ से प्राप्त होते है।
पातंजलि कृत योगसूत्र में आत्मा को प्रत्यगात्मा तथा परागात्मा कहा गया है। जब तक जीवात्मा इन्द्रीयभोग में आसक्त रहता है तब तक वह परागात्मा कहलाता है और ज्योही वह इन्द्रीयभोग से विरत हो जाता है तो प्रत्यगात्मा कहलाने लगता है।
अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि। यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्यास करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें ‘विभूति’ या ‘सिद्धि’ कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है। इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं। कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी बनता है। सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को ‘ज्ञानयोग’ और योग को ‘कर्मयोग’ भी कहते हैं।
जीवात्मा के शरीर मे दस प्रकार के वायु कार्यशील रहते है और इसे श्वांस प्रक्रिया प्राणायाम द्वारा जाना जाता है। पतंजलि की योगपद्वति बताती है कि किस तरह शरीर के वायु के कार्यो को तकनीकी उपाय से नियंत्रित किया जाए।
इंद्रियाओ के शमन से समाधि के मध्य अन्य कई अवस्था होती है जिन्हें आगे के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण इन यज्ञ के बारे में कुछ और विस्तार से बताते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 4.27।।
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