।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.26।। Additional II
।। अध्याय 04.26 ।। विशेष II
।।स्वामी विवेकानंद – कर्मयोग 2 (संयम) ।। विशेष 04.26 ।।
इंद्रियाओ के संयम में भाव एवम शब्दो के महत्व को स्वामी विवेकानंद जी इस लेख से ज्यादा अच्छे तरीके से समंझ सकते है।
इस कर्मयोग के और भी कई पहलू हैं। इनमें से एक है ‘भाव’ तथा ‘शब्द’ के सम्बन्ध को जानना एवं यह भी ज्ञान प्राप्त करना कि शब्द-शक्ति से क्या क्या हो सकता है। प्रत्येक धर्म शब्द की शक्ति को मानता है; यहाँ तक कि किसी किसी धर्म की तो यह धारणा है कि समस्त सृष्टि ‘शब्द’ से ही निकली है। ईश्वर के संकल्प का बाह्य आकार ‘शब्द’ है और चूंकि ईश्वर ने सृष्टि-रचना के पूर्व संकल्प एवं इच्छा की थी, इसलिए सृष्टि ‘शब्द’ से ही निकली है। इस जड़वादमय जीवन के कोलाहल में हमारे स्नायुओं में भी जड़ता आ गयी है। ज्यों ज्यों हम बूढ़े होते जाते हैं और संसार की ठोकरें खाते जाते हैं, त्यों त्यों हममें अधिकाधिक जड़ता आती जाती है और फलस्वरूप, हमारे चारों ओर निरन्तर हमारे ध्यान को आकर्षित करनेवाली जो सारी घटनाएँ होती रहती हैं, उनके प्रति हम उदासीन रहकर उनसे कोई शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते। परन्तु कभी कभी ऐसा भी अवश्य होता है कि मनुष्य का स्वाभाविक भाव प्रबल हो उठता है और हम इन साधारण सांसारिक घटनाओं का रहस्य जानने का यत्न करने लगते हैं तथा उन पर आश्चर्यचकित हो जाते हैं। इस प्रकार आश्चर्यचकित होना ही ज्ञानलाभ की पहली सीढ़ी है।
शब्द के उच्च दार्शनिक तथा धार्मिक महत्व को छोड़ देने पर भी हम देखते हैं कि हमारे इस जीवन-नाटक में शब्द-प्रतीक का विशेष स्थान है। मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ, तुम्हें स्पर्श नहीं कर रहा हूँ। पर मेरे शब्द द्वारा उत्पन्न वायु के स्पन्दन तुम्हारे कान में जाकर तुम्हारे कर्ण-स्नायुओं को स्पर्श करते हैं और उससे तुम्हारे मन में असर पैदा होता है। इसे तुम रोक नहीं सकते। भला सोचो तो, इससे अधिक आश्चर्यजनक बात और क्या हो सकती है? एक मनुष्य दूसरे को ‘बेवकूफ’ कह देता है और बस इतने से ही वह दूसरा मनुष्य उठ खड़ा होता है और अपनी मुट्ठी बाँधकर उसकी नाक पर एक घूंसा जमा देता है। देखो तो शब्द में कितनी शक्ति है! एक स्त्री बिलख-बिलखकर रो रही है; इतने में एक दूसरी स्त्री आ जाती है और वह उससे कुछ सान्त्वना के शब्द कहती है। प्रभाव यह होता है कि वह रोती हुई स्त्री उठ बैठती है, उसका दुःख दूर हो जाता है और वह मुसकराने भी लगती है। देखो तो शब्द में कितनी शक्ति है! उच्च दर्शन में जिस प्रकार शब्द-शक्ति का परिचय मिलता है, उसी प्रकार साधारण जीवन में भी। इस शक्ति के सम्बन्ध में विशेष विचार और अनुसन्धान न करते हुए ही हम रात-दिन इस शक्ति को उपयोग में ला रहे हैं। इस शक्ति के स्वरूप को जानना तथा इसका उच्चतम रूप से उपयोग करना भी कर्मयोग का एक अंग है।
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व्यवहार में यज्ञ का अर्थ हम अपने कर्म से ही ले और कर्म करने की प्रक्रिया यज्ञ में आहुति के समान है। जब हम किसी कार्य विशेष हेतु कर्म करते है, जिस में हमारी कामना, मोह या आसक्ति है तो यह यज्ञ नही है क्योंकि यह कर्म निष्काम न हो कर कर्मफल हेतु बन्धन का कारक है। किन्तु सामाजिक दायित्व में अर्थ संग्रह, व्यापार, व्यवहार या कर्तव्य पालन किया जाए तो यज्ञ ही होगा क्योंकि इस मे स्वार्थ, मोह या आसक्ति न हो कर लोकसंग्रह का कार्य है। किसान खेती करता है या सैनिक सुरक्षा या व्यापारी व्यापार करता है और डॉक्टर, वकील आदि व्यवसाय करते है तो यदि वह पारिश्रमिक भी लेते है जो उन के कार्य के अनिवार्य है तो यह यज्ञ ही है जब तक उस मे लोभ, मोह, बेईमानी या आसक्ति न हो। राजा जनक में राज्य किया तो प्रजा के कर वसूलने से ले कर प्रजा पालन के समस्त दायित्व का पालन निष्काम कर्मयोगी की भांति किया।
निष्काम कर्म कर्मठ हो कर कर्म करने को कहता है जिस में जिस भी कार्य को किया जाए वह पूर्ण निष्ठा से सफलता के साथ किया जाए। किन्तु उस सफलता के प्रति आसक्ति या कामना या मोह या अहम न हो।
यज्ञ में अपनी इन्द्रियों से मोह, कामना, लोभ, क्रोध, वासना आदि की अग्नि में आहुति देने का अर्थ ही यही है। यही संसार के उच्चतम श्रेष्ठ लोगो के गुण भी है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 4. 26 ।।
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