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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  04.23।।

।। अध्याय    04.23 ।।

श्रीमद्भगवद्गीता 4.23

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥

“gata-sańgasya muktasya,

jñānāvasthita-cetasaḥ..।

yajñāyācarataḥ karma,

samagraḿ pravilīyate”..।।

भावार्थ :

प्रकृति के गुणों से मुक्त हुआ तथा ब्रह्म-ज्ञान में पूर्ण रूप से स्थित और अच्छी प्रकार से कर्म का आचरण करने वाले मनुष्य के सभी कर्म ज्ञान रूप ब्रह्म में पूर्ण रूप से विलीन हो जाते हैं। (२३)

Meaning:

One who is unattached, who is liberated, who is established in knowledge, works for the sake of yajnya, his actions are completely dissolved.

Explanation:

What is the end result of following the practical tips given so far? Shri Krishna says that if we make the yajnya spirit a part of our life, rather than implement it only in work projects, it has the power to destroy all our vaasanaas. In this shloka, he tells Arjuna that for the person who is totally detached, free from attachments and established in the eternal essence, all of his accumulated karmaas melt away, like ice before the sun.

These five verses are important because Krishna resolves the conflict by saying that it is not a must; physical renunciation is not a must, but inner detachment is a must. There is no choice with regard to inner detachment; but with regard to physical renunciation, it is not compulsory. Hence taking Sanayasa does not make any person free from any delusion for getting moksha, it needs inner detachment.

As we learned earlier, we perform selfish actions as a result of an unhealthy relationship with the world. Each such selfish action generates a negative reaction from the world which accumulates in our psyche as a karma. The way out of this predicament is correct knowledge, which is nothing but a healthy relationship with the world where all traces of selfishness are gone, where one works in a spirit of yajnya. This attitude of yajnya slowly makes us lose our identification with the body, mind, intellect and material objects. As our attachment goes away, we become liberated individuals.

Therefore he jnani Karmyogi grahastha never forgets this vedantic teaching and such a person performs all the actions as the worship of the lord. Chaitanya Mahaprabhu said: “The soul is by nature the servant of God.” That is the motive behind the action, that is the purpose behind the action. But in the case of an ajnani, what is the purpose behind the action; it is not yajnah; He hopes the action will produce an expected result and after getting the expected result, his life would become purṇaḥ; therefore apurṇatvam is the cause of ajnani’s action; whereas jnani’s action is not triggered by apurṇatvam; ajnani acts for happiness; jnani acts out of happiness; that is the small and big difference.  Therefore  all his actions dissolves without producing either puṇya or paapa; praviliyate means they get dissolved, they do not add to agami karma. All karma of jnani is like roasted seeds, which can not germinate any new plant.

Shri Krishna concludes the current topic of practical karmayoga advice by assuring us that the fire of knowledge burns the masses of karma that we have accumulated, provided that our actions are totally unselfish.

।। हिंदी समीक्षा ।।

चतुर्थ अध्याय का यह श्लोक कर्मयोग की समग्र परिभाषा को समेट कर उदघोषित करता  कि सर्व संबंध शून्य, ज्ञान में स्थित वाले मुक्त पुरुष के सम्पूर्ण कर्म यज्ञार्थ आचरण करते हुए समग्र लय में लीन हो कर नष्ट हो जाते है और वो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। चैतन्य महाप्रभु कहते है कि आत्मा ब्रह्म का स्वरूप है, इसलिए जीव भी प्रकृति और आत्मा से ब्रह्म का ही अनुचर अर्थात सेवक है।

गतसङ्गस्य क्रियाओँ का, पदार्थों का घटनाओं का, परिस्थितियों का, व्यक्तियों का जो सङ्ग है इन के साथ जो हृदय से लगाव है वही वास्तव में बाँधनेवाला अर्थात् जन्ममरण देनेवाला है। स्वार्थभाव को छोड़ कर केवल लोगों के हित के लिये लोकसंग्रहार्थ कर्म करते रहने से कर्मयोगी क्रियाओँ पदार्थों आदि से असङ्ग हो जाता है अर्थात् उस की आसक्ति सर्वथा मिट जाती है।

वास्तव में मनुष्य स्वरूप से असङ्ग ही है। किंतु असङ्ग होते हुए भी यह शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि पदार्थ परिस्थिति व्यक्ति आदि से सम्बन्ध मान कर सुख की इच्छा से उन में आबद्ध हो जाता है। मेरी मनचाही हो अर्थात् जो मैं चाहता हूँ वही हो और जो मैं नहीं चाहता वह नहीं हो ऐसा भाव जबतक रहता है तब तक यह सङ्ग बढ़ता ही रहता है। वास्तव में होता वही है जो होनेवाला है। जो होनेवाला है उसे चाहें या न चाहें वह होगा ही और जो नहीं होनेवाला है उसे चाहें या न चाहें वह नहीं होगा। अतः अपनी मनचाही कर के मनुष्य व्यर्थ में (बिना कारण) फँसता है और दुःख पाता है। कर्मयोगी संसार से मिली हुई शरीरादि वस्तुओं को अपनी और अपने लिये न मानकर उन्हें संसार की ही मानकर संसार की सेवा में अर्पण कर देता है। इस से वस्तुओं और क्रियाओं का प्रवाह संसार की ओर ही हो जाता है और अपना असङ्ग स्वरूप ज्यों का त्यों रह जाता है। कर्मयोगी का अहम् भी सेवा में लग जाता है। तात्पर्य यह है कि उस के भीतर मैं सेवक हूँ यह भाव भी नहीं रहता। यह भाव तो मनुष्य को सेवकपने के अभिमान से बाँध देता है। इस प्रकार संसार की वस्तुओँ को संसार की सेवा में सर्वथा लगा देने से अन्तःकरण में एक प्रसन्नता होती है। उस प्रसन्नता का भी भोग न किया जाय तो स्वतःसिद्ध असङ्गता का अनुभव हो जाता है।

जो अपने स्वरूप से सर्वथा अलग हैं उन क्रियाओँ और शरीरादि पदार्थों से अपना सम्बन्ध न होते हुए भी कामना ममता और आसक्तिपूर्वक उन से अपना सम्बन्ध मान लेने से मनुष्य बँध जाता है अर्थात् पराधीन हो जाता है। कर्मयोग का अनुष्ठान करने से जब माना हुआ (अवास्तविक) सम्बन्ध मिट जाता है तब कर्मयोगी सर्वथा असङ्ग हो जाता है। असङ्ग होते ही वह सर्वथा मुक्त हो जाता है अर्थात् स्वाधीन हो जाता है। जिस की बुद्धि में स्वरूप का ज्ञान नित्य निरन्तर जाग्रत् रहता है वह ज्ञानावस्थितचेतसः है।

कर्म में अकर्म देखने का ही एक प्रकार है यज्ञार्थ कर्म अर्थात् यज्ञ के लिये कर्म करना। निःस्वार्थभाव से केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना यज्ञ है। जो यज्ञ के लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है और जो यज्ञ के लिये कर्म नहीं करता अर्थात् अपने लिये कर्म करता है वह कर्मोंसे बँध जाता है।

(1) कर्ता करण और कर्म इन तीनों के मिलने से कर्मों का संचय होता है। यदि कर्तापन न रहे तो कर्मों का संग्रह नहीं होता ।

2) कर्मयोग में ममता (मेरापन) का त्याग और ज्ञानयोग में अहंता (मैंपन) का त्याग मुख्य है। ममता का त्याग होने से अहंता का और अहंता का त्याग होने से ममता का त्याग स्वतः हो जाता है। इसलिये कर्मयोग में पहले ममता मिटती है फिर अहंता स्वतः मिट जाती है और ज्ञानयोग में पहले अहंता मिटती है फिर ममता स्वतः मिट जाती है।

(3) इसी अध्याय के नवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है वह मेरे को प्राप्त होता है। जन्म तो केवल भगवान् के ही दिव्य होते हैं पर कर्म मनुष्यमात्र के भी (यदि वे करना चाहें तो) दिव्य हो सकते हैं।

तीसरे अध्याय 3.9 में भी यह बताया गया है कि सृष्टि यज्ञ के लिये कर्म बंधक नहीं होते।वही इस श्लोक में बताया गया है। गीता की दृष्टि से स्वर्ग से परे अथार्त मोक्ष पर है क्योंकि स्वर्ग प्राप्ति के लिए किए कर्म बंधन कारी है किंतु यज्ञार्थ कर्म जो अनासक्त बुद्धि से करने से समग्र लय में लीन हो कर मोक्ष प्रद हो जाते है। स्वर्ग या वैकुंठ आदि के लिये जितने भी कर्म है, वह उस स्थान को प्राप्त करने की आशा से जुड़े है, मुख्य धैय मुक्त होना है अर्थात मोक्ष को प्राप्त हो कर ब्रह्मलीन होना है।

यज्ञ में आहुति छोड़ते समय अंत मे ‘इदम न मम’ यह मेरा नही है – इन शब्दों का उच्चारण किया जाता है; इन मे स्वार्थ त्याग रूप निर्ममत्व का जो तत्व है, वही यज्ञ में प्रधान भाग है। इस रीति से न मम कह कर अर्थात ममतायुक्त बुद्धि छोड़ कर, ब्रह्मापर्ण पूर्वक जीवन के समस्त व्यवहार करना भी एक बड़ा यज्ञ या होम ही हो जाता है; इस यज्ञ से देवाधिदेव परमेश्वर अथवा ब्रह्म का यजन हुआ करता है। मीमांसकों के द्रव्य यज्ञ संबंधी जो सिंद्धान्त है,वे इस यज्ञ बड़े यज्ञ के लिए भी उपयुक्त होते है; और लोक संग्रह के निमित जगत के आसक्ति विरहित कर्म करने वाला पुरुष कर्म के समग्र फल से मुक्त होता हुआ अंत मे मोक्ष पाता है।

यदि हम श्लोक 4.16 से ध्यान  पूर्वक अध्ययन करे तो हमे सब से भगवान श्री कृष्ण ने कर्म, अकर्म एवम विकर्म को बताया, उस के  बाद कर्मयोगी के गुण श्लोक 18 से 22 तक बताए कि कर्मयोगी कर्म में अकर्म एवम अकर्म में कर्म को जानता है, वो कामना एवम संकल्प रहित है, वो नित्यतृप्त, निराश्रयी, कतृत्वअभिमान और फल की आसक्ति को त्याग चुका है, जिस ने चित व शरीर को जीत लिया है, निर आस है एवम जिस ने समस्त भोग सामग्री को त्याग दिया है एवम जो संतुष्ट, द्वन्दों से अतित, मत्सरता रहित एवम सिद्धि एवम असिद्धि में सम चित है।

यह कर्मयोगी के लक्षण है, गुण नही। गुण अपनाए जाते और लक्षण स्वतः पैदा हो जाते है। गुण अपनाने से अहम नही मिटता क्योंकि गुण अपनाने वाले मौजूद है। 

जब इंद्रियाओ, मन, बुद्धि से जुड़े चेतन का अहम एवम ममत्व चेतन्य की प्राप्त हो अपनी आत्मा को प्राप्त कर के नष्ट हो जाता है । और जो अनाशक्त भाव से कर्म में अकर्म एवम अकर्म में कर्म को पहचान लेता है वो योगी इन सब लक्षण को भी प्राप्त होता है।

व्यवहार में दुनियादारी और गृहस्थी में जीव के पीछे धन कमाने और अपने को समाज में स्थापित करने की चिंता रहती है और फिर बच्चो की पढ़ाई, शादी विवाह आदि। इस में कभी कभी वह अपने स्वास्थ्य को भी भूल जाता है फिर अंत में यदि कामयाबी मिल भी जाए तो वह स्वास्थ्य खो चुका होता है। इसलिए बच्चो में अच्छे संस्कार भी तभी पड़ेंगे, जब वह स्वयं उन का पालन करता हो, अन्यथा जीवन व्यर्थ में कर्मफलो के साथ समाप्त हो कर पुनः जन्म की ओर चले जाता है। किंतु यदि यही कार्य वह परमात्मा के सेवक के रूप में लग्न और मेहनत से बिना काम और आसक्ति से करे, तो जीवन तो अच्छे और शांति से गुजरेगा, साथ में परमात्मा की ओर प्रवास भी होगा।

अब आगे के सात श्लोकों में (चौबीसवें से तीसवें श्लोक तक)  भिन्नभिन्न प्रकार के साधनों के यज्ञ रूप के बारे में पढ़ेगे।

।। हरि ॐ तत सत।। 4.23।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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