।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.18।।
।। अध्याय 04.18 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 4.18॥
कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
“karmaṇy akarma yaḥ paśyed,
akarmaṇi ca karma yaḥ..।
sa buddhimān manuṣyeṣu,
sa yuktaḥ kṛtsna-karma-kṛt”..।।
भावार्थ :
जो मनुष्य कर्म में अकर्म (शरीर को कर्ता न समझकर आत्मा को कर्ता) देखता है और जो मनुष्य अकर्म में कर्म (आत्मा को कर्ता न समझकर प्रकृति को कर्ता) देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह मनुष्य समस्त कर्मों को करते हुये भी सांसारिक कर्मफ़लों से मुक्त रहता है। (१८)
Meaning:
One who sees inaction in action, and action in inaction, he is wise among all people, he is well integrated and accomplishes his actions.
Explanation:
From the 18th to 24th verses, Krishna deals with knowledge which is a solution for all human problems, and this portion is the main and extremely important topic of the 4th chapter. In this portion, Krishna condenses the teachings of all the Upaniṣads; and because of this portion alone and similar portions alone, the Bhagavat Gita is called an upaniṣad; iti shrimat bhagavad Gītāsu upaniṣadsu.
Because, the essence of Upaniṣad is jñānam; one who sees action -inaction must be having the right vision; and I should see inaction in action; that must be the right vision. Shri Krishna employs his poetic prowess to teach us how to apply the knowledge of karma to our actions. He uses the words karma and akarma (action and inaction) differently in different parts of the shloka, so let us take it part by part.
Every individual, according to Vedanta, which is the basic teaching of the Vedānta, consists of two parts, one is the body- mind- complex part called anatma; anatma aṁśạ or dēha aṁśạ; and this
second part is the consciousness principle, which pervades the body- mind- complex because of which alone the body- mind- complex is sentient.
Vedanta says, the body- mind- complex is blessed by the consciousness principle. The consciousness principle is called dehi alias atma and the body- mind- principle is called deha; and sometimes called ahaṃkāra also; the ego and the self.
Therefore what is wisdom? Accept actions at anatma level; never try to escape from action; and own up the actionlessness or permanent rest in atma level. I am ever restful, peaceful; at atma level; and at anatma level, all the time, one action or the other will be there; this wisdom is called jnana karma sanyasaḥ; and this idea Krishna wants to convey in this verse;
Now, let us understand what is meant by “seeing inaction in action”. The word action in this phrase refers to activity of any sort: thinking, feeling, working. To be clear, even thinking a thought is action. And the word “inaction” here refers to the constant awareness that the eternal essence, our self, is inactive, and not the doer of action. It means complete detachment from the work and detachment from a sense of agency or doership, because the mind has now attached itself to a higher ideal. So therefore jñāni sees the inner- actionlessness amidst outer activity. Inner inactionlessness means what; actionlessness at the level of atma; outer- action means what? action at the level of the anatma.
So therefore, one who sees inaction in action knows that his every activity is happening out of prakriti or nature. His true identity is the eternal essence that neither does any action not enjoys the result of any action. From a practical standpoint, it refers to the attitude that we have towards our work. It is the difference between a worker who can perform tough tasks and not feel tired, and the worker who feels that every minute of his work is a burden.
Then the second lesson that Krishna wants to give is that the body- mind- complex otherwise called ahaṃkara or ego, can never be free from action; because it is a finite entity; and it is a material entity; it is made up of matter. Therefore Krishna wants to say that at anatma level, karma cannot be given up, atma level, karma need not be given up.
So for example, if someone needs help crossing the road and we think “I won’t help him because I will be late for my bus”. Behind our absence of helping someone cross the road is a selfish motive. Similarly, if we hold back on admitting a mistake that we had committed, our absence of admitting our guilt is driven by a selfish motive. This is seeing action in inaction.
Shri Krishna then goes on to say that one who constantly uses his discrimination to eliminate all sense of doership from every action – that person is wise and is well integrated in the yajna spirit. That person will accomplish any task that he takes up without fail. His success is guaranteed.
A wise person sees the actionlessness of the atma; the permanent peace of the atma; when karmaṇi, even when there are actions at anatma level; so he does not find peace by stopping the action; but he discovers peace in spite of action. Wise person sees potential action, karma means potential action, where?, akarmaṇi, in the actionlessness of the body- mind- complex. The wise person sees potential action in the actionlessness of the body- mind- complex, which means, body- mind- complex is ever active; either outwardly- active, explicitly- active or potentially- active; whereas atma is ever actionless.
So never try for leisure at the end of action; discover the leisure amidst the action; in spite of the action. So therefore jñāni sees the inner- actionlessness amidst outer- activity. Inner- inactionlessness means what; actionlessness at the level of stma; outer- action means what? action at the level of the anātma.
The following four shlokas describe the attributes of such an integrated person, similar to the characteristics of a wise person from the second chapter.
।। हिंदी समीक्षा ।।
गीता यहाँ उन जीव का वर्णन करती है जो प्राज्ञ अर्थात विवेक से जीवन जीने वाले है एवम जिन्होंने इन्द्रियों, मन, बुद्धि एवम अहम को समझ कर नियंत्रित कर लिया है। इन्हे योगी पुरुष भी कह सकते है।
गहन अर्थ वाले श्लोक 17 में हम ने पढ़ा कि कर्म, अकर्म एवम विकर्म क्या होता है। अतः यह स्पष्ट है कि कर्मेन्द्रियों एवम ज्ञानेंद्रियों द्वारा जो कार्य किया जाता है उसे मात्र क्रिया ही बोलेंगे, एवम मन, बुद्धि से युक्त हो कर चेतन यदि कोई क्रिया अहम या कामना के साथ करता है तो ही वो कर्म है।
अतः कर्म का बंधन नही लगने के लिए गीता शास्त्र के अनुसार यही एकमेव सच्चा साधन है,कि निःसंग बुद्धि से अर्थात फल आशा छोड़ कर निष्काम बुद्धि से वह सात्विक कर्म किया जाए जिसे से कर्म बंधन न हो और जिसे अकर्म कह सके।
इसलिए जो पुरुष कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म के कर्म देखता है, वही बुद्धिमान है और योग युक्त है। अर्थात ज्ञानद्वारा कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व अभिमान गलित हो जाने से जो पुरुष अपने आत्मस्वरूप में स्थित हुआ अपने आत्मा में कर्मो का किसी प्रकार लेप नही देखता और आकाशवत अपने स्वरूप में कर्मो का कोई विकार नही पाता, ऐसा तत्ववेत्ता पुरुष देहादिद्वारा सब कुछ करता हुआ भी वास्तव में अकर्ता ही होता है और वह कर्म में अकर्म ही देखता है। परंतु इस के विपरीत कर्तृत्त्व अभिमान विद्यमान रहते हुए जो पुरुष केवल देह इंद्रियादी के व्यापारों को रोक बैठा है, ऐसे पुरुष के मानसिक संकल्प विकल्प देहाभिमान के कारण रससंयुक्त ही होते है और अवश्य फल के हेतु बनते है । इस प्रकार उस का अकर्म भी फलसहित होने के कारण कर्म ही है। ऐसा अकर्म व कर्म के तत्व को जानने वाला जो बुद्धिमान पुरुष है वही मेरे स्वरूप में योगयुक्त है।
विवेकी पुरुष सहजता से अवलोकन कर सकता है कि शरीर से अकर्म होने पर भी उस के मन और बुद्धि पूर्ण वेग से कार्य कर रहे होते हैं। वह यह भी अनुभव करता है कि शरीर द्वारा निरन्तर कर्म करते रहने पर भी वह शान्त और स्थिर रहकर केवल द्रष्टाभाव से उन्हें स्वयं अकर्म में रहते हुए देख सकता है यह अकर्म सात्त्विक गुण की चरम् सीमा है। ऐसा व्यक्ति समत्व की महान् स्थिति को प्राप्त हुआ समझना चाहिये जो ध्यानाभ्यास की सफलता के लिए अनिवार्य है।
जैसा कि अनेक लोगों का विश्वास है कि कर्तव्य कर्म ही हमें पूर्णत्व की प्राप्ति करा देंगे ऐसा यहाँ नहीं कहा गया है। यह सर्वथा असंभव है। कर्म स्वयं ही इच्छा का शिशु है और कर्मों के द्वारा हम वस्तुओं को उत्पन्न कर सकते हैं और कोई भी उत्पन्न की हुई वस्तु स्वभाव से ही परिच्छिन्न विनाशी होती है। इस प्रकार कर्मों के द्वारा प्राप्त किया ईश्वरत्व रविवासरीय ईश्वरत्व होगा जो आगामी सोमवार को हम से विलग हो जायेगा श्री शंकराचार्य और अन्य आचार्यवृन्द पुन: पुन: यह दोहराते हैं कि कर्तव्य पालन से शुद्धान्तकरण वाले व्यक्ति में वह सार्मथ्य आ जाती है कि वह स्वयं के मन में तथा बाहर होने वाली क्रियाओं को साक्षी भाव से देख सकता है। जब वह यह जान लेता है कि उसके कर्म विश्व में हो रहे कर्मों के ही भाग हैं तब उसे एक अनिर्वचनीय समता का भाव प्राप्त हो जाता है जो ध्यान के अभ्यास के लिए आवश्यक है।
किसी व्यक्ति के शान्त बैठे रहने मात्र से उसे निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता। शारीरिक निष्क्रियता (अकर्म) किसी व्यक्ति के क्रियाहीन होने का मापदण्ड नहीं हो सकता। यह एक सुविदित तथ्य है कि जब कभी हम गम्भीर निर्माणकारी विचारों में मग्न होते हैं तो हम केवल शारीरिक दृष्टि से बिल्कुल शान्त और निष्क्रिय हो जाते हैं। इसलिए जीवन के पादमार्ग (फुटपाथ) पर ही चलने वाले लोगों की दृष्टि से जो व्यक्ति क्रियाहीन कहलाता है उसके हृदय में गम्भीर विचारों की क्रिया का चलना सम्भव हो सकता है।
बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध वाद्यों के समीप एक संगीतज्ञ हाथ में लेखनी लिए एक लेखक इन सब में कभी कभी निष्क्रयता देखी जाती है परन्तु वह निष्क्रियता सत्त्वगुण की है तमोगुण की नहीं। इन शान्त क्षणों के बाद ही वे अपनी श्रेष्ठ कलाकृति प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार जिस पुरुष में आत्मनिरीक्षण की क्षमता है वह अकर्म में कर्म को पहचान सकता है।एक विवेकी पुरुष जब जगत् में क्रियाशील रहता है उस समय मानो अपने आपको सब उपाधियों से अलग करके साक्षीभाव से स्वयं अकर्म में रहते हुए वह सब कर्मों को होते हुए देख सकता है।जब मैं इन शब्दों को लिख रहा हूँ तब मेरा ही कोई भाग मानों द्रष्टाभाव से देख सकता है कि हाथ में पकड़ी हुई लेखनी कागज पर शब्दों को लिख रही है। इसी प्रकार सभी कर्मों में स्वयं अकर्म में रहते हुए कर्मों को देखने की क्षमता दुर्लभ नहीं है। जो कोई पुरुष इसका उपयोग करेगा वह स्पष्ट रूप से सब कर्मों में इस द्रष्टा को अकर्म रूप से पहचान सकता है।रेल चलती है वाष्प नहीं। पंखा घूमता है विद्युत नहीं। इसी प्रकार ईंधन जलता है अग्नि नहीं। शरीर मन और बुद्धि कार्य करते है परन्तु चैतन्य आत्मा नहीं। इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाले पुरुष को सब मनुष्यों में बुद्धिमान कहा जाता है। उसे यहाँ आत्मानुभवी नहीं कहा गया है। निसन्देह वह मनुष्यों में श्रेष्ठ है और आत्मप्राप्ति के अत्यन्त समीपस्थ है।संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि निस्वार्थ भाव तथा अर्पण की भावना से कर्माचरण करने पर चित्त शुद्ध होता है और बुद्धि में कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने की क्षमता आती है। यह क्षमता दैवी और श्रेष्ठ है क्योंकि इसके द्वारा ही हम अपने आप को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं।
गीता की मीमांसा ज्यादातर सन्यास भाव से की गई है किंतु एक कर्मयोगी के दृष्टिकोण से उस को सृष्टि यज्ञ चक्र में परोपकार हेतु सम्मलित होना है। प्रकृति अपना कार्य करती है अतः प्रकृति के नियम को सम्मान देते हुए बिना कर्ता भाव के सृष्टि यज्ञ चक्र में परोपकार हेतु कर्मयोगी को कार्य करना ही चाहिए। यह सृष्टि रचना में जीवन रहते हुए आप निष्क्रिय नही हो सकते। रोज़ का उठना, बैठना, खाना और दैनिक कार्य करना जीवन के लिए अनिवार्य है अतः अकर्म की स्थिति में कोई भी कर्मयोगी नही रह सकता । एक कर्मयोगी की भांति निःसंग, निस्पर्ह, निर्लिप्त एवम निष्काम भाव से प्रकृति के साधनों को उपयोग में लाते हुए, जीवन अकर्ता भाव से जीना चाहिए और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहिए। हम सभी मानते है कि प्रकृति त्रियामी गुणों से अपने माया से यह संसार चलाती है। उस के इस सृष्टि यज्ञ चक्र में हम सब एक साधन की भांति कार्य करते है, इसलिये इस संसार मे प्रकृति से निमित सभी कार्य कर्तव्य धर्म की भांति साधन बन कर ही करते रहना और कर्ता भाव का त्याग ही कर्मयोगी के लिए अकर्म है।
यह मेरा अपना मत है कि कर्म, अकर्म और विकर्म व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टिकोण से भी प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न हो सकते है। इसलिए यदि पूर्ण के श्लोक में से भीष्म, द्रोण और कर्ण का उदाहरण पुनः ले तो उन के कर्म अधर्म का साथ देने से विकर्म तो अवश्य थे किंतु ज्ञानी की दृष्टिकोण से यह सभी कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखते थे। ये तीनों योद्धा ने कौरव सेना का युद्ध लड़ा और कहा गया है कि यदि यह युद्ध जीतने के लिए कौरव सेना की ओर से लड़ते तो अकेले ही पांडवों की पूरी सेना पर भारी थे। भीष्म ने स्वयं अपनी मृत्यु का रहस्य बताया और कर्ण ने जानते हुए भी कवच कुंडल का दान भी किया और चार पांडवों को जीवन दान भी दिया। प्रथम दिन के युद्ध की संध्या पर वह अर्जुन वध भी कर सकता था, किंतु उसे मुक्ति के लिए मृत्यु चाहिए थी। द्रोणाचार्य ने भी युधिष्ठिर के झूठ पर हथियार त्यागे जिस से निहत्थे पर पांडव उन का वध कर सके। इसलिए ज्ञानी पुरुष यह लोग ही थे जिन्हे कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म का ज्ञान था। किसी के मन में कोई लोभ, लालसा या क्रोध, राग या द्वेष भी नही। इसलिए ज्ञानी के विकर्म कर्म भी अकर्म ही होते है।
व्यवहार में कोई भी जीव बिना कर्म के नही रह सकता क्योंकि वह प्रकृति का भाग है, इसलिए प्रकृति तो क्रियाशील होने से कर्म में लगी रहती है और अपने कार्य के जीव को निमित्त भी बनाती है। अतः किसी भी वर्ण में विभिन्न कर्तव्य के पालन हेतु अनेक परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। इस स्थिति में कर्म से दूर भी नही जा सकते तो कर्म को सत्व भाव से आत्मा से अकर्म करते हुए किया जाए, जैसे अर्जुन के सम्मुख युद्ध की स्थिति है। इसी प्रकार जीव ने जब जन्म लिया है और मृत्यु तक उसे जीने के अपने कर्म करना भी अनिवार्य है। अतः आत्मा के अनुसार वह बिना कोई कर्म किए नही रह सकता तो लोकसंग्रह हेतु लक्ष्य बना कर आलस्य त्याग कर, उचित योग्यता को प्राप्त करते हुए कर्म भी लोकसंग्रह के लिए करे। कर्म में आसक्ति और कर्ताभाव नही करते हुए उसे करने से अकर्म में कर्म को देखते हुए, वह प्रकृति का भी आनंद ले सकेगा और अपने जीवन की ऊंचाइयों को भी प्राप्त करेगा। आलस, निठल्ले, कर्महीन जीवन जीने वाले कभी सन्यासी नही हो सकते और कर्म में अकर्म एवम अकर्म में कर्म देखनेवाले कर्मयोगी ही वास्तविक सन्यासी होता है। यही ज्ञान कर्मयोग सन्यास है।
हल का सारा भार बैल के कंधों पर रहता है, फिर भी खेत की जुताई हलवाहे की देन है। ठीक इसी प्रकार साधन का सारा भार साधक के ऊपर ही रहता है किंतु वास्तविक साधक तो इष्ट है जो उस के पीछे लगा हुआ है जो उस का मार्ग दर्शन करता है।
जीव परब्रह्म का अंश है और उस का मृत्युलोक में होना प्रकृति का संयोग है। क्रिया शील केवल प्रकृति है, वह मात्र दृष्टा, साक्षी एवम अकर्ता ही है। क्योंकि भ्रम से वह स्वयं को प्रकृति के साथ जुड़ कर कर्ता मान लेता है, इसलिये अकर्म में भी कर्म को देखने लगे जाता है। जो इस तथ्य को जानता है कि वही कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को भी जानता है। हम प्रकृति में भटक रहे है या परमात्मा में, इस का निर्णय इष्ट के निर्देशन में जो साधक इस आत्मिक पथ पर अग्रसर होता है, अपने को अकर्ता समंझ कर धारावाहिक कर्म करता है वो ही बुद्धिमान है, उस की जानकारी यथार्थ है, वही योगी है।
अर्जुन युद्ध भूमि में मोह से युद्ध नही करना चाहता। यह उस का अकर्म में कर्म है अर्थात अपने कर्तव्य दायित्व से पीछे हटना और युद्ध वह निष्काम भाव से करे तो यह उस कर्म में कर्म होगा। व्यवहारिक दृष्टिकोण से समय के अनुसार कौन सा कार्य करना चाहिए और किस कार्य को नही करना चाहिए, इस के निर्णय लेने की क्षमता जिस में है वही प्राज्ञ अर्थात तत्वदर्शी या विवेकी जीव है। क्योंकि आप का कौन सा कर्म अकर्म होगा और जिसे हम अकर्म कहते है, वह क्या वास्तव में अकर्म है या कर्म, यही ज्ञान होना चाहिये।
जब प्रकृति हमे किसी ऐसे मोड़ पर ले जाती है, जिस में हमे निर्णय ले कर आगे बढ़ना है किंतु हम कर्तव्य का पालन किसी कामना, मोह या आसक्ति से नही करते तो वह भी अकर्म में कर्म है। कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में अर्जुन का युद्ध से पलायन कर्म है या अकर्म, यही अर्जुन को समझना है और जब हम अर्जुन जैसी परिस्थिति में हो, हमारा भी निर्णय करना या न करना, सही है या गलत -कर्म या अकर्म है, इस को भी हमे विवेक से ही समझना है।
कर्म में अकर्म या अकर्म में कर्म को देखना काफी गहन है। अष्टवर्क गीता में दुष्ट वृति के लोगो द्वारा कर्म न करना भी अकर्म है जब कि सात्विक व्यक्ति द्वारा कर्म करना ही अकर्म है। कर्मयोगी के कर्तव्य कर्म में अर्जुन की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी जहां युद्ध नहीं करना या करना दोनों स्थितियों में द्वंद था। कामना को ले कर युद्ध करना विकर्म या राजस भाव मे कर्म योगी के कर्म ही रहेगा। किन्तु जनहित अर्थात प्रकृति के नियमानुसार परोपकार के लिए बिना कोई कामना रखते गए युद्ध अकर्म कहलायेगा। अतः कर्म में अकर्म या अकर्म में कर्म कोई शाब्दिक परिभाषित क्रिया न हो कर परिस्थिति एवम कर्तव्य धर्म द्वारा नियत कर्म है जिसे कर्ता निःसंग हो कर सात्विक भाव से करता है। जैसे किसी गरीब की निःसंग भाव से आवश्यक होने पर भी सहायता न करना विकर्म है और आवश्यकता न होने पर भी सहायता करना भी विकर्म है।
अब आगे के दो श्लोकों।में कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखनेवाले अर्थात् कर्मों का तत्त्व जाननेवाले सिद्ध कर्मयोगी महापुरुष का वर्णन को जानेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।।4.18।।
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