।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 04.12।। Additional II
।। अध्याय 04.12 ।। विशेष II
।। प्रकृति, जीव, कर्मयोग और वर्णव्यवस्था ।। विशेष 04.12 ।।
गीता अध्ययन गहन एवम अध्यात्म की ओर बढ़ रहा है । व्यक्त्वि के विकास के लिये आवश्यक है आप बाहर से ज्यादा अंदर से शांत हो। जिन्हों ने स्टीवन कौवे की eighth goal पढ़ी हो तो वो समंझ सकते है world के toppest व्यक्ति भी हिन्दू दर्शन शास्त्र के ज्ञान को व्यक्त्वि के विकास के लिए मान्यता देते है।
यह सत्य है कि हिंदू अध्यात्म मोक्ष के लिए संपूर्ण ज्ञान देता है, किंतु जो जीव प्रकृति की माया में फस चुका है और प्रकृति ने उसे लुभा लिया है तो वह क्यों कर वेदों और मोक्ष की बाते सुन कर आत्मशुद्धि और त्याग की ओर चलेगा। उस की दुनिया उस का परिवार, समाज, उस का व्यवसाय, उस का शरीर है। उस का झुकाव सांसारिक सुख में ज्यादा है क्योंकि वह तत्कालीन है। उसे अपने सांसारिक दुखो का पहले निवारण चाहिए।
यदि सत्व गुण से युक्त कोई एक व्यक्ति मिलता है तो 99, 999 जीव प्रकृति के तीनों गुणों से युक्त भी मिलेंगे। तो वेद, उपनिषद, गीता या पुराण जैसे ग्रंथो की रचना सत्व प्रधान जीव को ध्यान में रख कर की गई है या इन 99,999 जीव को इन्ही की कामना, मोह, लोभ आदि को पूर्ण करते हुए, इन्हे सत्व की ओर ले जाने के लिए की गई है। मोह, विषाद, भय में सत्व और रज गुण से युक्त अर्जुन को गीता भी सत्व भाव से युद्ध कैसे करे, यही तो सिखाती है। भगवान कहते भी है जब प्रकृति ने तुन्हें निमित्त बनाया है तो हे अर्जुन, युद्ध कर, विजयी हो, और प्रकृति के सुखों के साथ को भोग। अर्थात कर्म को मत त्याग, फल का भोग भी करो किंतु उस की लालसा या स्वार्थ को त्याग दो।
यह सब प्रकृति के तीन गुणों का खेल है, सत्व की बाते सभी को पसंद है, किंतु ऐशो आराम रज गुण में दिखता है। सत्ता, सुंदरी और संपत्ति का आकर्षण इतना अधिक है कि उस के अंदर मोक्ष की कामना रहती है किंतु प्रकृति का आकर्षण इतना अधिक है कि वह प्रयास ही नही कर पाता।
जीव के कर्म की अनिवार्यता भी है और कर्म की अनिवार्यता भी उसे अपने शरीर और समाज के करनी पड़ती है। निष्काम और निर्लिप्त भाव से कर्म कर पाना, कई बार प्रश्न चिन्ह बन कर खड़ा होता है कि फल की आशा या लालसा न हो तो कर्म ही कैसे करे? अतः भूखे को अध्यात्म का ज्ञान देना और रज और तम गुण के व्यक्ति को अध्यात्म की शिक्षा देना व्यर्थ है। इन का पहला उद्देश्य पेट भरना या प्रकृति के सुख को भोगना ही होगा।
सत्व प्रधान गुण को धारण करने वाला ब्राह्मण होता है, किंतु जो सत्व के साथ रज गुण का समावेश होने से जीव का वर्गीकरण क्षत्रिय हुआ है जिस का कार्य समाज की रक्षा करना और शासन करते हुए धर्म का पालन करना और करवाना है। रज गुण की अधिकता और तम गुण की न्यूनता में जीव वैश्य माना गया है, जो धन लाभ के साथ व्यापार करता है और जिस में तम गुण की प्रधानता हो, और रज गुण की न्यूनता, उसे शुद्र कहा गया है। अतः स्पष्ट है कि सत्व गुण प्रधान होकर जीना कठिन मार्ग है, अधिकतर जीव भौतिकवादी ही होता है, चाहे जन्म या जाति से किसी भी वर्ग का हो। भौतिकवाद के कारण ही जन्म से किसी भी कुल में जन्मा हो, कर्म से अधिकतर क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र ही होते है। हिंदू धर्म शास्त्र में सभी के लिए वेदों में अध्यात्म का मार्ग है। इसलिए कर्मकांडो से इन जीवो के लिए भौतिक सुख और कामनाओं के लिए पूजा पाठ की विधि है, चाहे पूजा करने वाला या कराने वाला दोनो ही आत्मशुद्ध न हो। शुद्र से ले कर वैश्य कर्म करने वाले इन्ही कर्म कांडो से अपनी कामनाओं की पूर्ति भी करते है और नीचे के स्तर पर गिरने से बच भी जाते है। जब भौतिक सुखों से त्रस्त हो जाते है तो सत्व गुण की ओर बढ़ने लगते है।
धन के लिए ही सही, देश की रक्षा के क्षत्रिय धर्म को निभाने वाला जाति या जन्म से किसी भी वर्ण का हो, अपने देश वासियों की रक्षा में यदि शहीद हो जाता है तो स्वर्ग को प्राप्त होता है। गर्मी, भूख और बेहाली को सहते हुए भी यदि किसान अन्न को चार पैसे कमाने के उगाता है तो वह भी किसी भी जाति और जन्म से किसी भी वर्ण का हो, लोकसंग्रह का कार्य करता है। किसी भी आधार में पैसे कमा कर जनहित के लिए मंदिर, धर्मशाला या समाज के पैसे खर्च करने वाला वैश्य, जाति या जन्म से किसी भी वर्ण का हो, सत कार्य ही करता है। चंद दक्षिणा के लिए पूजा, पाठ, हवन या यज्ञ करवाने वाला पंडित, जाति या जन्म से किसी भी वर्ण का हो, अध्यात्म को जीवित रखता है।
सनातन सत्य है कि वेदों की शिक्षा और ज्ञान प्रकृति के सभी गुणों को ध्यान में रखते हुए, हमारे पूर्वजों में रचा है।कितने भी आक्रांता आए, किंतु जन्म और जाति से कोई किसी भी वर्ण का हो, उस ने कर्मयोगी हो कर धर्म की रक्षा की और आज भी हिंदू संस्कृति धीरे धीरे ही सही, सत्व की ओर ही बढ़ रही है। यही वैदिक ज्ञान और शिक्षा महत्व है कि वह प्रत्येक प्राकृतिक गुण के जीव को उस के अनुकूल स्थान भी देती है और उसे सत्व की ओर प्रेरित भी करती है। जो वेदों और हिंदू धर्म शास्त्रों को नही समझता, अपने को नास्तिक भी कहता और देवी देवताओं का मजाक भी करता है, स्वार्थ में अंधा हो कर समाज को क्षति भी पहुंचता है, हिंदू संस्कृति की महानता है कि इतने पथ भ्रष्ट जीव जो पूर्णतः तमो गुण से लिप्त है, उस के लिए भी परमात्मा राम और कृष्ण के स्वरूप में उद्धार ही करते है।
वेदान्त एवम गीता के अध्ययन में परब्रह्म के स्वरूप, जीव का उस के साथ सम्बन्ध एवम मोक्ष प्राप्ति के प्रमुख धैय को ध्यान में रखता हुए, ज्ञान, भक्ति, ध्यान एवम भक्ति को पढ़ेंगे। सिर्फ पढ़ने से या जोर जोर से भजन गाने से या प्रवचन मात्र सुनने से मोक्ष नही मिलता। यह तो आसक्ति का त्याग कर के स्वयं को ब्रह्म के साथ युक्त होने से मिलेगा। परंतु यदि रोज रोज मंदिर जाएंगे, गीता या वेदों का अध्ययन या चर्चा करेंगे, कामना से सही, यज्ञ, दान धर्म करेंगे तो किसी भी दिन सत्व गुण का परिमाण रज और तम गुण से अधिक होगा। फिर धीरे धीरे सत्व गुण अर्थात पूर्ण सात्विक भाव आने से जीव आगे गुणातीत हो कर मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है। यह एक जन्म में न भी हो, पर यात्रा तो शुरू रहेगी और इस जन्म में भी यदि आप गीता जैसे ग्रंथो और संत पुरुषो की संगत में है तो यह पूर्व जन्म का ही प्रभाव है।
इसी प्रकार जो लोग अपने को अनासक्त महसूस करते है उन में भी कर्म, कर्ता या किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति का कार्य की इच्छा या आसक्ति रहती ही है। यह तब तक है, जब तक जीव में प्राण है क्योंकि अहम का त्याग सब से कठिन है। गीता का अध्ययन हमारे लिये विचार एवम रहने का उच्चत्तम मार्ग खोल देता है, जिस से हम अपना जीवन स्तर ऊपर की ओर उठा कर चल सके। मानवीय जीवन के उच्चतम मूल्यों को पहचानना और उसे ग्रहण करना, इस का गहन अध्ययन अब शुरू हो रहा है। इसलिये एकाग्र चित्त से अध्ययन की आवश्यकता अब बढ़ जाएगी।
ईश्वर की आराधना किसी भी स्वरूप में की जाए व्यर्थ नही होती, वह हर स्वरूप में, हर भावना में उपलब्ध है। हम जिस स्वरूप में, जिस कामना है, जिस आसक्ति से उस के साथ जुड़ते है, वह हमें वही प्रदान कर देता है। किंतु मुक्ति का मार्ग मोक्ष है यह समझने में कभी कभी इतना समय लग जाता है कि आप को यह लगता है यह जन्म व्यर्थ ही गवा दिया। इसलिये गीता का अध्ययन अत्यंत ध्यान से भक्ति एवम ज्ञान से मोक्ष के लिये करना चाहिए।
जिस ने आत्मा को जान लिया, जो अद्वैत हो गया, वह तो स्वयं प्रकाशवान और ज्ञानवान हो गया। उसे कुछ जानना शेष नहीं रहा। जो अज्ञानी है, जो द्वैत भाव में है, जो कामना और आसक्ति में लिप्त है, उसे अपने अज्ञान को जानना होगा। इसलिए जीव को उस के अज्ञान का ज्ञान ही करने के लिए समस्त वेदों, उपनिषदों, गीता और पुराणों की रचना हुई है और उस के मोक्ष के लिए विभिन्न मार्ग जो भी बनाए है, उस के अज्ञान को मिटाने के लिए है।
गीता सभी रूढ़िवादी धार्मिक मान्यताओं को छोड़ कर जीव के मोक्ष के लिए निष्काम कर्मयोग पर अधिक बल देती है जो एक सामान्य व्यक्ति हम आप जैसे लोग जीते है। यही आगे चल कर नैष्कर्म्य मार्ग में ले कर जाता है जिसे हम संसार मे अपनी संपत्ति दान और जनसेवा करने वाले अनेक कर्मयोगियों में पाते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 04.12 ।।
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