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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  03.33।।

।। अध्याय    03.33 ।।  

श्रीमद्भगवद्गीता 3.33

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥

“sadṛśaḿ ceṣṭate svasyāḥ,

prakṛter jñānavān api..I

prakṛtiḿ yānti bhūtāni,

nigrahaḥ kiḿ kariṣyati”..II

भावार्थ : 

सभी मनुष्य प्रकृति के गुणों के अधीन होकर ही कार्य करते हैं, यधपि तत्वदर्शी ज्ञानी भी प्रकृति के गुणों के अनुसार ही कार्य करता दिखाई देता है, तो फिर इसमें कोई किसी का निराकरण क्या कर सकता है?॥३३॥

Meaning:

Even a wise person will behave according to his own nature. All beings follow their own nature. What can restraint do?

Explanation:

Shri Krishna here addresses a critical point, which is that even the most well-read and educated person will find it difficult to practice karmayoga. Why is this so? It is because inbuilt tendencies and urges inside us compel us to act against our will. These tendencies comprise our lower nature. Note that the lower nature is also called “prakriti” here, which is different than the prakriti that we saw earlier.

All beings – plants, animals and humans – are born with an innate set of traits. In humans, these traits are manifested in the body, mind and intellect. These traits are a product of our vaasanaas, which are impressions created by past actions.

It does not matter whether one is wise or foolish, rich or poor etc. All human beings are born with vaasanaas. These vaasanaas are “thought generators”. They cause thoughts about the material world to arise in our mind. And once a thought arises, it results into desire and action as we saw in the second chapter.

That nature should be sublimated by shifting the goal from worldly enjoyment to God-realization, and performing our prescribed duty without attachment and aversion, in the spirit of service to God.

Therefore, Shri Krishna says that mere restraint of actions will not result in eradication of desires, since the vaasanaas will continue to generate more and more thoughts. And direct suppression of thoughts is next to impossible. Many people try to repress thoughts and desires in the hope of progressing spiritually, but like a spring that is pushed down, that strategy backfires very easily.

But then, should we give up our efforts altogether? That is not the case. For example, you cannot teach tiger to be non-violent and eat grass. But you can change his behaviour to a certain extent through repeated training. Similarly, the vaasanaas can be channeled in the service of society. Like judo uses the opponent’s strength to subdue the opponent, karmayoga uses the energy of vaasanaas to extinguish them.

So here Krishna points out that everyone is born with a particular personality, which is determined according to śāstrā, by the three fold guṇas known as satva, rajas and tamas; and the personality of a human being is determined by the proportion of these three gunās; satva representing the knowledge faculty; rajas representing the dynamism or the activity faculty; and tamas representing the opposite of these two; that which dullens both satva and rajas; inertia faculty; both physical and intellectual inertia. Intellectual cholesterol is called Tamas.

Shree Krishna again comes back to the point about action being superior to inaction. Propelled by their natures, people are inclined to act in accordance with their individual modes. Even those who are theoretically learned carry with them the baggage of the sanskārs (tendencies and impressions) of endless past lives, the prārabdh karma of this life, and the individual traits of their minds and intellects. They find it difficult to resist this force of habit and nature. If the Vedic scriptures instructed them to give up all works and engage in pure spirituality, it would create an unstable situation. Such artificial repression would be counter-productive. The proper and easier way for spiritual advancement is to utilize the immense force of habit and tendencies and dovetail it in the direction of God. We have to begin the spiritual ascent from where we stand, and doing so requires we have to first accept our present condition of what we are and then improve on it.

We can see how even animals act according to their unique natures. Ants are such social creatures that they bring food for the community while forsaking it themselves, a quality that is difficult to find in human society. Dogs display the virtue of loyalty to depths that cannot be matched by the best of humans. Similarly, we humans too are propelled by our natures. Since Arjun was a warrior by nature, Shree Krishna told him, “If, motivated by pride, you think, “I shall not fight,” your decision will be in vain. Your own nature will compel you to fight.”

O Arjun, that action which out of delusion you do not wish to do, you will be driven to do it by your own inclination, born of your own material nature.” (Bhagavad Gita 18.60)

So therefore, Shri Krishna gives us a way out. Even though all of us have tendencies that can drag us lower, we can analyze those tendencies and overcome them through the technique of karmayoga. Having explained this, Shri Krishna gives us the exact location of our enemies, these lower tendencies, in the next shloka.

I। हिंदी समीक्षा ।।

इस संसार का संचालन प्रकृति के नियमो से होता है, प्रकृति ही क्रियाशील है, इसलिए ज्ञानी हो या अज्ञानी सभी प्रकृति के अंतर्गत क्रिया करते दिखते है, इसमें कोई मतभेद नहीं हो सकता। इसलिए जीव जब पुनर्जन्म लेता है तो वह अपनी पूर्व के संस्कार और   कर्म फलों के आधार पर विशिष्ट योनि में लेता। प्रत्येक पशु पक्षी, वनस्पति या मनुष्य के स्वयं के प्रकृति प्रदत्त गुण होते है। हाथी और चींटी समान गुण के नही हो सकते।

जीव जब शरीर धारण कर लेता है तो वह प्रकृति के नियमो से बंध जाता है। उन की प्रकृति स्वभावतः उसे कर्म को प्रेरित करती है और वह कर्म को करने के बाध्य है। जैसे भूख लगना। फिर कर्म के संग यही वह अपने को राग से जोड़ लेता है तो वह कर्म बन्धन हो जाता है।

प्रकृति का स्वभाव के अतिरिक्त बुद्धि से मनुष्य कुछ अतिरेक स्वभाव प्राप्त करता है किंतु यह अतिरेक यदि प्रकृति के अनुकूल हो तो ही क्रियावंतित हो पाता है।

जितने भी कर्म किये जाते हैं वे स्वभाव अथवा सिद्धान्त को सामने रखकर किये जाते हैं। स्वभाव दो प्रकार का होता है रागद्वेष रहित और रागद्वेष युक्त। जैसे रास्ते में चलते हुए कोई बोर्ड दिखायी दिया और उस पर लिखा हुआ पढ़ लिया तो यह पढ़ना न तो राग द्वेष से हुआ और न किसी सिद्धान्त से अपितु रागद्वेष रहित स्वभाव से स्वतः हुआ। किसी मित्र का पत्र आने पर उसे रागपूर्वक पढ़ते हैं और शत्रु का पत्र आने पर उसे द्वेष पूर्वक पढ़ते हैं तो यह पढ़ना रागद्वेषयुक्त स्वभाव से हुआ। गीता रामायण आदि सत्शास्त्रों को पढ़ना सिद्धान्त से पढ़ना हुआ।

मनुष्य जन्म परमात्मा प्राप्ति अर्थात मोक्ष प्राप्ति के लिये ही है अतः परमात्मा प्राप्ति के उद्देश्य से कर्म करना भी सिद्धान्त के अनुसार कर्म करना है। इस प्रकार देखना सुनना सूघँना स्पर्श करना आदि मात्र क्रियाएँ स्वभाव और सिद्धान्त दोनों से होती हैं। रागद्वेषरहित स्वभाव दोषी नहीं होता प्रत्युत रागद्वेष युक्त स्वभाव दोषी होता है। रागद्वेषपूर्वक होनेवाली क्रियाएँ मनुष्य को बाँधती हैं क्योंकि इन से स्वभाव अशुद्ध होता है और राग द्वेष रहित सिद्धान्त से होने वाली क्रियाएँ उद्धार करनेवाली होती हैं क्योंकि इनसे स्वभाव शुद्ध होता है। स्वभाव अशुद्ध होनेके कारण ही संसार से माने हुए सम्बन्ध का विच्छेद नहीं होता। स्वभाव शुद्ध होने से संसार से माने हुए सम्बन्ध का सुगमता पूर्वक विच्छेद हो जाता है। ज्ञानी महापुरुष के अपने कहलाने वाले शरीर द्वारा स्वतः क्रियाएँ हुआ करती हैं क्योंकि उस में कर्तृत्वाभिमान नहीं होता।

परमात्मप्राप्ति चाहने वाले साधक की क्रियाएँ सिद्धान्त अर्थात रागद्वेषहीन के अनुसार होती है। जैसे लोभी पुरुष सदा सावधान रहता है कि कहीं कोई घाटा न लग जाय ऐसे ही साधक निरन्तर सावधान रहता है कि कहीं कोई क्रिया रागद्वेषपूर्वक न हो जाय। ऐसी सावधानी होने पर साधक का स्वभाव शीघ्र शुद्ध हो जाता है और परिणामस्वरूप वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।यद्यपि क्रिया मात्र स्वाभाविक ही प्रकृति के द्वारा होती है तथापि अज्ञानी पुरुष क्रियाओं के साथ अपना सम्बन्ध मान कर अपने को उन क्रियाओं का कर्ता मान लेता है । पदार्थों और क्रियाओं से अपना सम्बन्ध मानने के कारण ही रागद्वेष उत्पन्न होते हैं जिनसे जन्ममरणरूप बन्धन होता है। परन्तु प्रकृति से सम्बन्ध न माननेवाला साधक अपने को सदा अकर्ता ही देखता है ।स्वभाव में मुख्य दोष प्राकृत पदार्थों का राग ही है। जबतक स्वभाव में राग रहता है तभी तक अशुद्ध कर्म होते हैं। अतः साधक के लिये राग ही बन्धन का मुख्य कारण है। राग माने हुए अहम् में रहता है और मन बुद्धि इन्द्रियों एवं इन्द्रियों के विषयोंमें दिखायी देता है। अहम् दो प्रकार का है,

1) चेतन द्वारा जड के साथ माने हुए सम्बन्ध से होनेवाला तादात्म्यरूप अहम्।

2) जड प्रकृति का धातुरूप अहम्।

जड प्रकृति के धातुरूप अहम् में कोई दोष नहीं है क्योंकि यह अहम् मन बुद्धि इन्द्रियों आदि की तरह एक करण ही है। इसलिये सम्पूर्ण दोष माने हुए अहम् में ही हैं। ज्ञानी महापुरुष में तादात्म्यरूप अहम् का सर्वथा अभाव होता है अतः उस के कहलानेवाले शरीर के द्वारा होने वाली समस्त क्रियाएँ प्रकृति के धातुरूप अहम् से ही होती हैं। वास्तव में समस्त प्राणियों की सब क्रियाएँ इस धातुरूप अहम् से ही होती हैं परन्तु जड शरीर को मैं और मेरा मानने वाला अज्ञानी पुरुष उन क्रियाओं को अपनी तथा अपने लिये मान लेता है और बँध जाता है।  जैसे कोई ज्ञानी महापुरुष अंग्रेजी भाषा नहीं जानता और उससे अंग्रेजी बोलने के लिये कहा जाय तो वह बोल नहीं सकेगा। वह जिस भाषा को जानता है उसी भाषा में बोलेगा। भगवान् भी अपनी प्रकृति (स्वभाव) को वश में करके जिस योनि में अवतार लेते हैं उसी योनि के स्वभाव के अनुसार चेष्टा करते हैं जैसे भगवान् राम या कृष्ण रूप से मनुष्य योनि में अवतार लेते हैं तथा मत्स्य कच्छप वराह आदि योनियों में अवतार लेते हैं तो वहाँ उस उस योनि के अनुसार ही चेष्टा करते हैं। तात्पर्य है कि भगवान् के अवतारी शरीरों में भी वर्ण योनि के अनुसार स्वभाव की भिन्नता रहती है पर परवशता नहीं रहती। इसी तरह जिन महापुरुषों का प्रकृति (जडता) से सम्बन्ध विच्छेद हो गया है उन में स्वभाव की भिन्नता तो रहती है पर परवशता नहीं रहती।

परन्तु जिन मनुष्यों का प्रकृति से सम्बन्ध विच्छेद नहीं हुआ है उन में स्वभाव की भिन्नता और परवशता दोनों रहती हैं। ज्ञानी महापुरुष की प्रकृति निर्दोष होती है। वह प्रकृति के वश में नहीं होता प्रत्युत प्रकृति उस के वश में होती है।

कर्मों की फल जनकता का मूल बीज कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थबुद्धि है। ज्ञानी महापुरुष में कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थबुद्धि नहीं होती। उसके द्वारा चेष्टामात्र होती है। बन्धनकारक कर्म होता है चेष्टा या क्रिया नहीं। उस का स्वभाव इतना शुद्ध होता है कि उसके द्वारा होने वाली क्रियाएँ भी महान् शुद्ध एवं साधकों के लिये आदर्श होती हैं। पीछे के और वर्तमान जन्म के संस्कार मातापिता के संस्कार वर्तमान का सङ्ग शिक्षा वातावरण अध्ययन उपासना चिन्तन क्रिया भाव आदि के अनुसार स्वभाव बनता है। यह स्वभाव सभी मनुष्यों में भिन्न भिन्न होता है और इसे निर्दोष बनाने में सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं। व्यक्तिगत स्वभाव की भिन्नता ज्ञानी महापुरुषों/में भी रहती है। चेतन में भिन्नता होती ही नहीं और प्रकृति (स्वभाव) में स्वाभाविक भिन्नता रहती है। प्रकृति है ही विषम। जैसे एक जाति होनेपर भी आम आदिके वृक्षों में अवान्तर भेद रहता है ऐसे ही प्रकृति (स्वभाव) शुद्ध होने पर भी ज्ञानी महापुरुषों में प्रकृति का भेद रहता है। ज्ञानी महापुरुष का स्वभाव शुद्ध (रागद्वेषरहित) होता है अतः वह प्रकृति के वश में नहीं होता। इस के विपरीत अशुद्ध (रागद्वेषयुक्त) स्वभाववाले मनुष्य अपनी बनायी हुई परवशता से बाध्य होकर कर्म करते हैं। यदि स्वभाव अशुद्ध हो तो वह अशुद्ध कर्मों में और शुद्ध हो ते वह शुद्ध कर्मों में मनुष्य को लगा देगा।

अर्जुन भी जब हठपूर्वक युद्ध रूप कर्तव्य कर्म का त्याग करना चाहते हैं तब भगवान् उन्हें यही कहते हैं कि तेरा स्वभाव तुझे बलपूर्वक युद्ध में लगा देगा क्योंकि तेरे स्वभाव में क्षात्रकर्म (युद्ध आदि) करने का प्रवाह है। इसलिये स्वाभाविक कर्मों से बँधा हुआ तू परवश होकर युद्ध करेगा अर्थात् इस में तेरा हठ काम नहीं आयेगा।

जैसे सौ मील प्रति घंटे की गतिसे चलनेवाली मोटर अपनी नियत क्षमता से अधिक नहीं चलेगी ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष के द्वारा भी अपनी शुद्ध प्रकृति के विपरीत चेष्टा नहीं होगी। जिन की प्रकृति अशुद्ध है उनकी प्रकृति बिगड़ी हुई मोटर के समान है। बिगड़ी हुई मोटर को सुधारने के दो मुख्य उपाय हैं (1) मोटर को खुद ठीक करना और (2) मोटर को कारखाने में पहुँचा देना। इसी प्रकार अशुद्ध प्रकृति को सुधारने के भी दो मुख्य उपाय हैं (1) रागद्वेष से रहित हो कर कर्म करना और (2) भगवान् के शरण में चले जाना। यदि मोटर ठीक चलती है तो हम मोटर के वश में नहीं हैं और यदि मोटर बिगड़ी हुई है तो हम हम मोटर के वश में हैं।

प्रकृति के वश में होने के लिये साधक को चाहिये कि वह किसी आदर्श को सामने रखकर कर्तव्य कर्म करे। आदर्श दो हो सकते हैं (1) भगवान् का मत (सिद्धान्त) और (2) श्रेष्ठ महापुरुषों का आचरण। आदर्श को सामने रखकर कर्म करनेवाले मनुष्य की प्रकृति शुद्ध हो जाती है और नित्य प्राप्त परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है।

जैसे नदी के प्रवाह को हम रोक तो नहीं सकते पर नहर बनाकर मोड़ सकते हैं ऐसे ही कर्मों के प्रवाह को रोक तो नहीं सकते पर उसका प्रवाह मोड़ सकते हैं। निःस्वार्थभाव से केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना ही कर्मों के प्रवाह को मोड़ना है। अपने लिये किञ्चिन्मात्र भी कर्म करने से कर्मों का प्रवाह मुड़ेगा नहीं। तात्पर्य यह कि केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करने से कर्मों का प्रवाह संसार की ओर हो जाता है और साधक कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। ज्ञानी अर्थात तत्वदर्शी मनुष्य भी प्रकृति के आधीन कार्य करता हुआ दिखता है, इसलिए सामान्य जन उस के कार्य के भेद को नही जान पाता, किंतु वह जो कुछ भी करता है, निष्काम कर्मयोगी की भांति ही करता है। युद्ध हो या व्यापार या व्यवसाय, और अधिक परिवार के लोगो के संग व्यवहार, ज्ञानी पुरुष को भी सभी प्रकार की परिस्थितियों में काम करना पड़ता है, परंतु वह निष्काम है। एक भ्रष्ट अधिकारी से ज्ञान से कोई कार्य नहीं करवा सकता, अतः कार्यसिद्धि के लिए साम, दाम, दंड या भेद किसी भी मार्ग से कार्य किया जाए किंतु वह मोह, लोभ, स्वार्थ या अहम में नही हो कर निष्काम भाव से किया जाए तो उस में कुछ भी गलत नही है।

प्रत्येक मनुष्य का अपनी प्रकृति को साथ ले कर ही जन्म होता है अतः उसे अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करने ही पड़ते हैं। परंतु मनुष्य प्रकृति के अनुसार ही कर्म राग – द्वेष के साथ करे या नही, इस के लिए उसे परमात्मा ने बुद्धि दी है।  इसलिये अब भगवान् आगे के श्लोक में प्रकृति में चित्त शुद्ध करने का उपाय बताते हैं और स्पष्ट करते है कि कर्म की अनिवार्यता के अनुसार अर्जुन को युद्ध ही क्यों करना चाहिए, किसी अन्य कर्म को क्यों नही किया जा सकता।

।। हरि ॐ तत सत।।3.33।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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