।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 03.29।। Additional II
।। अध्याय 03.29 ।। विशेष II
।। कर्मयोग एवम सांख्य योग का मूल तत्व ।। विशेष 3.29 ।।
श्लोक 3.28 और 3.29 गीता के सांख्य एवम कर्म योग का मूल श्लोक है अतः इस को समझना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि आगे यदि गीता में जब हम भगवान के वचन सुनेंगे तो इस श्लोक को समझे बिना नही समझ सकेंगे। यह श्लोक प्रकृति और जीव के मध्य के संबंध और कार्य प्रणाली को बतलाता है।
आप नित्य है अर्थात ब्रह्म के अंश स्वरूप प्रकाशवान, नित्य और अकर्ता है और मन, बुद्धि, इन्द्रिय एवम शरीर अनित्य अथार्त प्रकृति प्रदत्त है। नित्य अक्रियाशील एवम साक्षी है। इसलिए जो सामने आता है या हो रहा है वो प्रकृति द्वारा जीव के द्वारा की गई क्रियाएं है।
याद रखिए जो जीव अपने को प्रकृति का स्वरूप अर्थात कर्ता और भोक्ता नही मानता, जिसे अपने ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान है, उसे ही आत्मा या ब्रह्म का अंश कहते है। किंतु जो जीव प्रकृति के गुणों से बंधा अपने को कर्ता और भोक्ता मानता है उसे जीवात्मा कहते है।
आप को कही जाना है तो विचार पैदा होगा, विचार से आप मन बनेगा, फिर आप प्रोग्राम बनायेगे और उस के लिए साधन की तलाश करेंगे और उस स्थान पर पहुच जाएंगे। तत्व विद जानता है कि विचार पैदा होने से ले कर उस स्थान तक पहुंचने की समस्त क्रिया प्रकृति की है एवम वो मात्र साक्षी है, अज्ञानी इसे स्वयं का प्रयास कह कर अपने को कर्ता मानता है।
आप कल किसी काम को करने या किसी से मिलने का प्रोग्राम बनाते है, यह कौन बनाता है फिर कब, कहां और कैसे कौन मिलेगा, इस की प्रेरणा से ले कर क्रिया शीलता तक सब प्रकृति तय करती है, यदि आप ने अहम भाव से किया तो कर्म के बंधन में होंगे और अनासक्त भाव से अहम छोड़ कर किया तो कर्म बंधन से मुक्त होंगे। आसक्त भाव के कारण ही इस के फल से भी बंधे रहेंगे।
प्रकृति क्रियाशील है, किंतु बिना किसी माध्यम के यह कार्य नही कर सकती। इसलिए जैसे ही जीव का प्रकृति के साथ संयोग होता है, तो जीव में अहम भाव की महत्ता उत्पन्न हो जाती है। इस अहम भाव में बुद्धि का समावेश, फिर मन आदि मिला कर 25 तत्व जुड़ते है जो सम्पूर्ण प्रकृति है। सांख्य योगी प्रकृति की क्रियाओं को स्वीकार नहीं करता और जो भी शरीर क्रियाएं या कर्म करता है, उसे वह प्रकृति समझ कर त्याग देता है। यह जटिल और साधारण मनुष्य के लिए असंभव है। कर्म योगी इन सभी क्रियाओं को करता है किंतु वह उस में आसक्ति नही रखता। इस लिए प्रवृति और निवृति मोक्ष के दो मार्ग सांख्य और कर्म है जिस में प्रकृति से अपने संबंध को जानना और चित्त शुद्धि या आत्मशुद्धि को प्राप्त होना है। इस के बाद ज्ञान का मार्ग शुरू होता है जो कर्मयोगी और सांख्य योगी दोनो को प्राप्त करना है।
प्रकृति क्रियाशील है अतः विचार, मन, इंद्रियाओ जानित सुख दुख सभी बनते एवं नष्ट होंगे। कुछ प्रकृति आप के अंदर प्रेरणा पैदा कर के करवाती है और कुछ अन्य जीव में। अतः यह ही माया है जो प्रकृति द्वारा आप को इस संसार से बांध कर रखती है। यदि आप अपने हर कार्य को निमित मान कर करते है और हर दशा को प्रकृति की क्रिया समझ कर बिना अहम भाव के स्वीकार करते है तो ही आप नीरासक्त भाव के कर्मयोगी होंगे और अपने हर क्षेत्र में कर्तव्य का पालन कर सकेंगे। आलस्य और प्रमाद को भगवान श्री कृष्ण पहले ही नकार चुके है और कर्मयोगी को समय एवम स्थान के अनुकूल अपने कर्तव्य का पालन करना है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 3.29 ।।
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