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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  03.21 ।।

।। अध्याय    03.21 ।।

श्रीमद्भगवद्गीता 3.21

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः

यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते

“yad yad ācarati śreṣṭhas,

tat tad evetaro janaḥ..।

sa yat pramāṇaḿ kurute,

lokas tad anuvartate”..।।

भावार्थ : 

महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य मनुष्य भी उसी का ही अनुसरण करते हैं, वह श्रेष्ठ-पुरुष जो कुछ आदर्श प्रस्तुत कर देता है, समस्त संसार भी उसी का अनुसरण करने लगता है॥ २१॥

Meaning:

Whatever an ideal person does, so do other people (imitate him). Whatever standard he sets, other people follow.

Explanation:

In the previous verse, Shri Krishna provided the example of king Janaka who, though being a warrior king, achieved self-realization through performance of karma yoga. Here Shri Krishna puts forth yet another argument to Arjuna, knowing very well that Arjuna always put others first before himself. Shri Krishna said that whosoever looked up to Arjuna as a role model would also take to this path if Arjuna followed it.

whatever a śreṣṭhaḥ puruṣaḥ; a superior person, a hero, a model does; and as I said for a child, śreṣṭhaḥ puruṣaḥ is the parent; and whatever the parents or the teacher or a ruler does, the other people also follow the same thing because human beings are sheepish people, that is why many new fashions come.

Now, an extremely important but subtle point made by Shri Krishna is hidden in the phrase “ideal person does”. He wants us to realize that actions speak louder than words. For instance, we cannot expect our children to not drink alcohol or smoke if we preach to them, but drink and smoke ourselves. Not just children, but most people watch what we do and not what we say.

Human minds are sheepish minds; therefore it has got an advantange also, he has got disadvantage also; take advantage of that, and what do you do, do noble things at home, all swearing words, the child picks up, we think the child is sleepy and does not know, etc. or playing at the most wrong time, the child will repeat, when some has come, the child will very very carefully repeat that word;

Therefore, Shri Krishna urges us to practice karmayoga, and not to simply tell people that we are learning it and so on.

if a great leader is a karm yogi, at least the followers will continue to do their karm and dutifully perform their responsibilities. This will help them learn to discipline their mind, senses, and slowly rise to the transcendental platform. Hence, to present an example for society to follow, Shree Krishna suggests that Arjun should practice karm yog. He now gives his own example to illustrate the above point. A great leader of society becomes a karm sanyāsī, and renounces work, it sets an errant precedent for others.

Sage Tulsidas says: “One who renounces worldly duties, without the concurrent internal enlightenment with divine knowledge, treads the quick path to hell.”

So in addition to urging us and Arjuna to perform karmayoga, Shri Krishna also reveals an important leadership lesson. The best way to lead is to lead by example, and not by making flowery speeches or hiring motivational speakers. This point is not just echoed in the management texts of today, but also in spiritual masterpieces such as the Dasbodh by Samarth Ramdas Swami.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व श्लोक में राजा जनक के उदाहरण द्वारा आत्मनिष्ठ कर्मयोगी को यद्यपि कुछ में कर्म करने का औचित्य नही रहता तो भी उसे लोकसंग्रह हेतु कर्म करते रहना चाहिये,बताया गया है। यह लोकसंग्रह का अर्थ के समाज, देश एवम विश्व के उत्थान के लिये कुछ ऐसे कर्म करना, जिन का सदाहरण मनुष्य अनुसरण कर सके। यह कोई धन जमा कर के, मंदिर, धर्मशाला, पाठशाला या अस्तपताल बनाने जैसा नही है।

मनुष्य मूलत अनुकरण करने वाला प्राणी है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। इतिहास के किसी काल में भी समाज का नैतिक पुनरुत्थान हुआ है तो उस केवल राष्ट्र के नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों के आदर्शों के कारण। शिक्षकों के सद्व्यवहार से ही विद्यार्थियों को अनुशासित किया जा सकता है यदि किसी राष्ट्र का शासक भ्रष्ट और अत्याचारी हो तो निम्न पदों के अधिकारी सत्य और ईमानदार नहीं हो सकते। छोटे बालकों का व्यवहार पूर्णत उनके मातापिता के आचरण एवं संस्कृति द्वारा निर्भर और नियन्त्रित होता है।

प्रत्येक मनुष्य, घर में बच्चे और स्कूल में विद्यार्थी सभी अपने आदर्श पुरुष को खोजते है और उन के जैसा बनने की चेष्टा और कल्पना करते है। अतिभौतिकवाद ने धन का महत्व इतना अधिक बढ़ा दिया है कि आज की युवा पीढ़ी जितना जल्दी हो सके, बिल गेट्स, अंबानी या अदानी आदि बनने के लिए नैतिकता और धर्म के मार्ग को त्याग कर धन को कमाने में लगी है, जिसे हम आसुरी प्रवृति भी कह सकते है। किंतु आज भी अनेक लोग अपने गुरुजनों, महापुरुषों और पूर्वजों को आदर्श मान कर श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करना चाहते है।

यद्यपि श्रेष्ठ मनुष्य अपने लिये कोई आचरण नहीं करता और उस में कर्तृत्वाभिमान भी नहीं होता तथापि लोगों की दृष्टि में वह आचरण करता हुआ दिखता है। यही आचरण दिखने के कारण यहाँ आचरति क्रिया का प्रयोग हुआ है। उसके द्वारा सबके उपकार के लिये स्वतःस्वाभाविक क्रियाएँ होती हैं। अपना कोई स्वार्थ न रहने के कारण उस की छोटी बड़ी प्रत्येक क्रिया लोगों का स्वतः हित करनेवाली होती है। यद्यपि उस के लिये कोई कर्तव्य नहीं है तस्य कार्यं न विद्यते और उस में करने का अभिमान भी नहीं है तथापि उस के द्वारा स्वतःस्वाभाविक सुचारुरूप से कर्तव्य का पालन होता है। इस प्रकार उस के द्वारा स्वतः स्वाभाविक लोग संग्रह होता है। अभी हाल के वर्षो में जब सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार के लिए नाम घोषित हुए, तो यह ज्ञात होता है कि बिना किसी नाम, पद,सम्मान और ख्याति के अनेक लोग लोग संग्रह के लिए कार्य कर रहे और उस के साधन के अभाव की भी अपेक्षा नहीं करते। इन्हे प्रेरणा ईश्वर और सदगुरु की होती है।

प्रायः देखा जाता है कि जिस समाज सम्प्रदाय जाति वर्ण- आश्रम आदि में जो श्रेष्ठ मनुष्य कहलाते हैं और जिन को लोग श्रेष्ठ मानकर आदर की दृष्टिसे देखते हैं वे जैसा आचरण करते हैं उस समाज सम्प्रदाय जाति आदि के लोग भी वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं।अन्तःकरण में धन और पद का महत्त्व एवं लोभ रहने के कारण लोग अधिक धनवाले (लखपित करोड़पति) तथा ऊँचे पदवाले (नेता मन्त्री आदि) पुरुषों को श्रेष्ठ मान लेते हैं और उन्हें बहुत आदर की दृष्टि से देखते हैं। जिन के अन्तःकरण में जड वस्तुओं (धन पद आदि) का महत्त्व है वे मनुष्य वास्तव में न तो स्वयं श्रेष्ठ होते हैं और न श्रेष्ठ व्यक्ति को समझ ही सकते हैं। जिस को वे श्रेष्ठ समझते हैं वह भी वास्तव में श्रेष्ठ नहीं होता। यदि उन के हृदय में धन का अधिक आदर है तो उन पर अधिक धनवालों का ही प्रभाव पड़ता है जैसे चोर पर चोरों के सरदार का ही प्रभाव पड़ता है। वास्तव में श्रेष्ठ न होने पर भी लोगों के द्वारा श्रेष्ठ मान लिये जाने के कारण उन धनी तथा उच्च पदाधिकारी पुरुषों के आचरणों का समाज में स्वतः प्रचार हो जाता है। जैसे धन के कारण जो श्रेष्ठ माने जाते हैं वे पुरुष जिन जिन उपायों से धन कमाते और जमा करते हैं उन उन उपायों का लोगों में स्तवः प्रचार हो जाता है चाहे वे उपाय कितने ही गुप्त क्यों न हों यही कारण है कि वर्तमान में झूठ कपट बेईमानी धोखा चोरी आदि बुराइयों का समाज में किसी पाठशाला में पढ़ाये बिना ही स्वतः प्रचार होता चला जा रहा है। यह आश्चर्य की बात है कि वर्तमान में लोग लखपति को श्रेष्ठ मान लेते हैं पर प्रतिदिन भगवान नाम का लाख जप करनेवाले को श्रेष्ठ नहीं मानते। वे यह विचार ही नहीं करते कि लखपति के मरने पर एक कौड़ी भी साथ नहीं जायगी जब कि भगवन्नाम का जप करनेवाले के मरने पर पूरा का पूरा भगवन्नामरूप धन उस के साथ जायगा एक भी भगवान्नाम पीछे नहीं रहेगा। अपने अपने स्थान या क्षेत्र में जो पुरुष मुख्य कहलाते हैं उन अध्यापक व्याख्यानदाता आचार्य गुरु नेता शासक महन्त कथावाचक पुजारी आदि सभीको अपने आचरणों में विशेष सावधानी रखने की बड़ी भारी आवश्यकता है जिस से दूसरों पर उनका अच्छा प्रभाव पड़े। इसी प्रकार परिवार के मुख्य व्यक्ति (मुखिया) को भी अपने आचरणों में पूरी सावधानी रखने की आवश्यकता है। कारण कि मुख्य व्यक्ति की ओर सब की दृष्टि रहती है। रेलगाड़ी के चालक के समान मुख्य व्यक्ति पर विशेष जिम्मेवारी रहती है। रेलगाड़ी में बैठे अन्य व्यक्ति सोये भी रह सकते हैं पर चालक को सदा जाग्रत् रहना पड़ता है। उस की थोड़ी भी असावधानी से दुर्घटना हो जाने की सम्भावना रहती है। इसलिये संसार में अपने अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ माने जानेवाले सभी पुरूषों को अपने आचरणों पर विशेष ध्यान रखने की बहुत आवश्यकता है। किसी श्रेष्ठ व्यक्ति के अनुसरण में साधारण मनुष्य जो अनुसरण करते है, वह प्रायः भेड़ चाल ही होती है। श्रेष्ठ पुरुष शिष्य नही बनाते और न ही किसी को उन्हे अनुसरण करने को कहते है। मनुष्य को उन के गुणों को सीखना चाहिए और उस पर चलना चाहिए। जो स्वार्थ, स्वामी की कृपा, या चमत्कार की आशा में किसी को अपना आदर्श मानते है, वह आसुरी प्रवृति के अतिरिक्त कुछ नही है।

समाज मे प्रथम आचरण का आधार व्यक्ति का परिवार है क्योंकि घर से बुजुर्ग, माता-पिता जो भी आचरण करते है उस का प्रभाव बच्चों पर पहले पड़ता है। फिर शिक्षक और संगत का प्रभाव होता है। इसी प्रकार समाज को दिशा देने वाले महापुरुषों का आचरण एवम निष्काम कर्मयोग का प्रभाव होता है।

धर्म श्रेष्ठ व्यक्ति ने जो भी कृत्य किया है उस को उदाहरण मान कर सदाहरण मनुष्य को करने को कहता है, किन्तु इस मे विवेक का सदुपयोग अत्यंत आवश्यक है। परशुराम ने पिता की आज्ञा से माता का सिर काट दिया तो यह आचरण अनुशरण करने लायक नही है। श्रेष्ठ मनुष्य भी अपने अपने कर्मो के बन्धन को भोगते है, अतः उन के उन्ही आचरण को अनुशरण करना चाहिये, जो लोकसंग्रह के लिये, किये गए हो।

विवेक अच्छी संगति, अध्ययन, गुरु एवम अनुशासित जीवन से जाग्रत होता है। यदि नही तो वह दिशाहीन एवम दर्प से भरा होगा जो मनुष्य की उन्नति के सभी मार्ग रोक देगा।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये भगवान् कर्माचरण के लिए अर्जुन के समक्ष एक और कारण प्रस्तुत करते हैं। यदि वह कर्म नहीं करता तो सम्भव है समाज के अधिकांश लोग भी स्वकर्तव्यपराङमुख हो जायेंगे और अन्त में परिणाम होगा जीवन में संस्कृति का ह्रास होगा।

अब भगवान् आगे के तीन श्लोकों में अपना उदाहरण देकर लोकसंग्रह की पुष्टि करते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।। 3.21।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

 

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