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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  03.18 ।। Additional II

।। अध्याय    03. 18 ।। विशेष II

।। सृष्टि यज्ञ चक्र, वेद, धर्म, अज्ञान और कर्म ।। विशेष – 3.18 ।।

गत दो दिन से मनन हेतु हम लोग महाभारत के काल मे अति भौतिकवादी दृष्टिकोण को चर्चा कर रहे थे। उस के अनुसार नित्य से अलग हो कर यह सृष्टि की रचना हुई है। संसार देव और मनुष्य के मध्य यज्ञ चक्र से चलता है। बुद्धि मन, विवेक शरीर और कामनाओं से वशीभूत हो कर मनुष्य कर्म करता है। कर्म करेगा तो फल भी मिलेगा। अतः निष्काम हो कर कर्म करने को कहा गया है, इस के अतिरिक्त कर्म फल का हेतु न बनना एवम उस के फल पर अधिकार न रखना भी बोला गया है।

जीव ब्रह्म का अंश है, जिस का संयोग प्रकृति से होने से लिंग स्वरूप शरीर प्राप्त हुआ। यही लिंग स्वरूप शरीर कर्म फल के बंधन और संस्कारो से बंधा, कर्म फल भोगने हेतु विभिन्न योनियों में जन्म लेता है और पुण्य एवम पाप फल भोगने हेतु स्वर्ग – नरक  आदि स्थानों में भी घूमता है। इसी जीव को जन्म – मरण के चक्र से बचने हेतु मनुष्य जन्म मिलता है, जिस में बुद्धि से अपने अज्ञान को वह पहचान कर, उसे मिटा कर अपने ज्ञान स्वरूप को प्राप्त कर सके। किंतु प्रकृति का मोह उसे ऐसा होने नही देता।

आदि गुरु शंकराचार्य जी कहते है।

प्राणी मोहवश अर्थात भ्रान्ति में पड़कर  ; आत्मा में देह , इन्द्रिय आदि अनात्म पदार्थों के धर्मों का और इसके विपरीत भाव से देह , इन्द्रिय,  मन अनात्म पदार्थों में आत्मा के धर्मों का अध्यास अर्थात आरोपण करके जन्मते और मरते हैं ।

मूढजन भ्रान्ति के कारण मोह में पड़कर– मैं मनुष्य हूँ  , मैं द्विज हूँ  , मैं ज्ञानी हूँ  , मैं अज्ञानी हूँ  , मैं अत्यंत ही पापी हूँ  , मैं पतित हूँ  , मैं सज्जन हूँ , मैं सुखी हूँ और मैं दुःखी हूँ– ऐसी- ऐसी कल्पनायें आत्मा में करते रहते हैं ।

अधिकांश  लोग बुद्धि के दोष से ; आत्मा जो जन्म-मरण धर्मों वाला नहीं है ; उस आत्मा में देह , इन्द्रिय आदि अनात्म पदार्थों के जन्म , मरण , भूख,प्यास,सुख, क्लेश आदि धर्मों  का विपरीत भाव से निश्चित रूप से आरोपण करते हैं ।

सब को ही आत्मा के विषय का ज्ञान है । ‘ मैं नहीं हूँ  ‘ ऐसी प्रतीति किसी को भी नही होती है  — क्योंकि ऐसा ज्ञान , सर्वत्र व्यापक आत्मा में हो ही नहीं सकता है।

अपने अस्तित्व के विषय में आत्मा को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है  ; जिसका अवलम्बन लेकर प्रमाणों की प्रमाणता सिद्ध होती है , उसके ज्ञान के लिए प्रमाण की क्या आवश्यकता है ? वह स्वयं प्रमाण के बल से , वस्तु का ज्ञान करा देता है।

अति समीपता और स्वच्छता के कारण बुद्धिरूप दर्पण में आत्मा का प्रतिबिंब पड़ने पर  , बुद्धि आत्मा के समान भासने लगती है ; जिससे मन बुद्धि के समान भासता है , इन्द्रियाँ मन के समान भासती हैं और यह शरीर इन्द्रियों के समान भासता है । इस कारण ही देह , इन्द्रिय आदि अनात्म वस्तुओं में आत्मत्त्व का ज्ञान होता  है।

अतः मनुष्य को आसक्ति और कर्ता भाव का त्याग करना आवश्यक है। इसलिए निष्काम होने के लिए सामाजिक व्यवस्था में धर्म, नियम एवम आचरण बनाये गए। किन्तु उन में भी जन जन के हित हेतु समय एवम स्थान के हिसाब से कर्तव्य का निर्धाहरण किया गया।

प्रकृति के तीन गुण सत रज एवम तम से प्रेरित हो कर मनुष्य कर्म करता है। सत से प्रेरित मनुष्य संसार मे ज्ञान का विस्तार एवम जन हित के चिकित्सा, शिक्षा एवम सेवा का कार्य निष्काम को कर करता है किंतु सेवा की भावना, दया, कीर्ति एवम जान कल्याण की इच्छा उस को निष्काम नही होने देती और न्यून या अधिक वो अपने कर्मो के फल को प्राप्त करता है और   शनेः शनेः उस को अपने देह और कर्म से अनासक्ति होने लगती है और वो अहंता एवम ममता को छोड़ कर मोक्ष को प्राप्त होता है।

रज गुण के लोग अपने कार्यो में कीर्ति को प्राप्त होते है। डॉक्टर, CA, वकील, व्यापारी एवम नौकरी करने वाले कर्मयोगी अपने व्यवसाय में उन्नति प्राप्ति के दिन रात एक कर देते है और अपने लिए पूरी सुख सुविधा भी प्राप्त करते है। यह लोग समाज मे अपना योगदान खोज, अविष्कार एवम भौतिक साधनों का विस्तार कर के भौतिक सुख सुविधा को बढ़ाते है। यह कर्म के फल को भोगते है और जब अपने शिखर पर पहुच जाते है तो इन मे निष्काम भाव एवम अनासक्ति का जागरण होता है। इन का रज गुण सत में परिवर्तित होता है और यह फिर सत गुण से कार्य करते हुए मोक्ष को प्राप्त होते है।

प्रकृति के तीसरे गुण के लोग जो स्वयम को पूर्ण कर्ता मानते हुए कार्य करते है और इन के काम से किसी को नुकसान भी हो तो इन को कोई फर्क नही पड़ता। इन का जीवन इच्छाओ के वशीभूत होता है। किसी भी भागवत कृपा से इन के अंदर निष्काम भाव जागृत हो जाये तो यह भी मोक्ष के मार्ग में बढ़ जाएंगे।

यह सत, रज और तम की अवस्था एक ही मनुष्य में भी विभिन्न समय में विभिन्न अनुपात में रह सकती है। किन्तु तम गुण से सत गुण की ओर बढ़े, यही प्रयास होना चाहिए।

संसार का यह ‘चक्र के भीतर चक्र’ एक बड़ा भयानक यन्त्र है। इसके भीतर हाथ पड़ा नहीं कि हम गये। हम सभी सोचते हैं कि अमुक कर्तव्य पूरा होते ही हमें छुट्टी मिल जायगी, हम चैन की साँस लेंगे; पर उस कर्तव्य का मुश्किल से एक अंश भी समाप्त नहीं हो पाता कि एक दूसरा कर्तव्य सिर पर आ खड़ा होता है। संसार का यह प्रचण्ड शक्तिशाली, जटिल यन्त्र हम सबों को खींचे ले जा रहा है। इससे बाहर निकलने के केवल दो ही उपाय हैं। एक तो यह कि उस यन्त्र से सारा नाता ही तोड़ दिया जाय–वह यन्त्र चलता रहे, हम एक ओर खड़े रहें और अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर दें। अवश्य, यह कह देना तो बड़ा सरल है, परन्तु इसे अमल में लाना असम्भव-सा है। मैं नहीं कह सकता कि दो करोड़ आदमियों में से एक भी ऐसा कर सकेगा। दूसरा उपाय है–हम इस संसार क्षेत्र में उतर आयें और कर्म का रहस्य जान लें। इसी को कर्मयोग कहते हैं। इस संसारयन्त्र से दूर न भागो, वरन् इसके अन्दर ही खड़े होकर कर्म का रहस्य सीख लो। भीतर रह कर कौशल से कर्म कर के बाहर निकल आना सम्भव है। इस यन्त्र के भीतर से ही बाहर निकल आने का मार्ग है।

अब हमने देखा कि कर्म क्या है। यह प्रकृति की नींव का एक अंश है और सदैव ही चलता रहता है। जो ईश्वर में विश्वास करते हैं, वे इसे अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह समझ सकेंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि ईश्वर कोई ऐसे एक ‘असमर्थ’ पुरुष नहीं हैं, जिन्हें हमारी सहायता की आवश्यकता है। यद्यपि यह जगत् अनन्त काल तक चलता रहेगा, फिर भी हमारा ध्येय मुक्ति ही है, निःस्वार्थता ही हमारा लक्ष्य है; और कर्मयोग के मतानुसार उस ध्येय की प्राप्ति कर्म द्वारा ही करनी होगी। संसार को पूर्ण रूप से सुखी बनाने की जो सब भावनाएँ हैं, वे मतान्ध व्यक्तियों के लिए प्रेरणाशक्ति के रूप में भले ही अच्छी हों, पर हमें यह भी जान लेना चाहिए कि मतान्धता से जितना लाभ होता है, उतनी ही हानि भी होती है। कर्मयोगी प्रश्न करते हैं कि तुम्हें कर्म करने के लिए मुक्ति को छोड़ अन्य कोई उद्देश्य क्यों होना चाहिए? सब प्रकार के सांसारिक उद्देश्य के अतीत हो जाओ। तुम्हें केवल कर्म करने का अधिकार है, कर्मफल में तुम्हारा कोई अधिकार नहीं–’कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’

जिस मनुष्य ने अपने अज्ञान को अध्यास से पहचान लिया, वही अध्याय 2 के 47वे. श्लोक को भी समझ सकता है। कर्म के लिए प्रकृति निमित्त बनाती है, कब, कौन, कहां, कैसे और किस प्रकार मिलेगा यह कौन वर्तमान में जानता है। अर्जुन को स्वजनों से अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ेगा, यह वह भी नही जानता था। युद्ध अर्जुन की इच्छा से तय भी नही हुआ। इस लिए कर्म के निमित्त हो कर मनुष्य यदि कर्म करता है तो उस अधिकार भी उसे कर्ता भाव और आसक्ति भाव से करे या न करे, तक ही सीमित है। परिस्थितियां प्रकृति तय करती है, फिर वह उस का हेतु भी नही है और रिजल्ट भी विभिन्न कारणों से तय होता है तो वह उस फल का कारक भी नही होता।

कर्मयोगी कहते हैं कि मनुष्य अध्यवसाय द्वारा इस सत्य को जान सकता है और इसे कार्यरूप में परिणत कर सकता है। जब परोपकार करने की इच्छा उसके रोम रोम में भिद जाती है, तो फिर उसे किसी बाहरी उद्देश्य की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। हम भलाई क्यों करें?–इसलिए कि भलाई करना अच्छा है। कर्मयोगी का कथन है कि जो स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से भी सत्कर्म करता है, वह भी अपने को बन्धन में डाल लेता है। किसी कार्य में यदि थोड़ी सी भी स्वार्थपरता रहे, तो वह हमें मुक्त करने के बदले हमारे पैरों में और एक बेड़ी डाल देता है। अतएव, एकमात्र उपाय है–समस्त कर्मफलों का त्याग कर देना, अनासक्त हो जाना, यह जान रखो कि न तो यह संसार हम हैं और न हम से यह संसार, न हम यह शरीर हैं और न वास्तव में हम कोई कर्म ही करते हैं। हम हैं आत्मा–हम अनन्त काल से विश्राम और शान्ति का आनन्द भोग रहे हैं। हम क्यों किसी के बन्धन में पड़ें? यह कह देना बड़ा सरल है कि हम पूर्णरूप से अनासक्त रहें, परन्तु ऐसा हो किस तरह? बिना किसी स्वार्थ के किया हुआ प्रत्येक सत्-कार्य हमारे पैरों में और एक बेड़ी डालने के बदले पहले की ही एक बेड़ी को तोड़ देता है। बिना किसी बदले की आशा से संसार में भेजा गया प्रत्येक शुभ विचार संचित होता जायगा, वह हमारे पैरों में से एक बेड़ी को काट देगा और हमें अधिकाधिक पवित्र बनाता जायगा, जब तक कि हम पवित्रतम मनुष्य के रूप में परिणत नहीं हो जाते। पर हो सकता है, यह सब आप लोगों को केवल एक अस्वाभाविक और कोरी दार्शनिक बात ही जान पड़े, जो कार्य में परिणत नहीं की जा सकती।

 मैंने भगवद्गीता के विरोध में अनेक युक्तियाँ पढ़ी हैं, और कई लोगों का यह सिद्धान्त है कि बिना किसी हेतु के हम कुछ कर्म कर ही नहीं सकते। उन्होंने शायद मतान्धता से रहित कोई निःस्वार्थ कर्म कभी देखा ही नहीं है, इसीलिए वे ऐसा कहा करते हैं।

याद रहे नित्य अकर्ता है। अतः उस तक वो ही पहुच सकता है जिस ने निष्कर्मण्य की स्थिति प्राप्त ही हो एवम जिस की आत्मा परमात्मा से मिल गयी हो।

सत्य को हम तोड़ मोड़ सकते है किंतु सत्य नहीं बदलता। कर्तव्य पालन में यदि असत है तो उस का परिणाम से कोई मुक्त नहीं। चाहे उस की कितना भी निष्काम भाव के करे। एक वकील यदि अपने किसी क्लाइंट को हत्या के मुकदमे से कर्तव्य समझ कर बचाता है एवम इस के बदले में अधिक फीस भी लेता है तो उस को भी इस का फल भोगना पड़ता है। अर्जुन को कर्तव्य पालन का आदेश देने वाले कृष्ण जानते थे कि आतिभोतिकवादी दृष्टिकोण से अर्जुन का कर्तव्य क्या है। कर्ण निष्काम भाव से युद्ध मे अपने कर्तव्य का पालन कर रहा था, उस की इच्छा एक बार सभी पांडव को हराने की थी उस के पूर्ण होने पर उसे अपने प्राणों का मोह नही था, इस लिए पूर्व संध्या को वो भी अर्जुन को मार सकता था किंतु युद्ध विराम को स्वीकार् किया। उस को मुक्ति स्वयं भगवान को देनी पड़ी। भीष्म चाहते तो पांडव सेना को पांडव सहित समाप्त कर सकते थे, उन्होंने स्वयं भगवान तक को हथियार उठा कर भगवान की प्रतिज्ञा भंग करवा दी। वे जानते थे कि अपने वचन से बंधे वे अन्याय का साथ दे रहे है, इसलिए अपनी मृत्यु का भी उपाय वे पांडव को देते है। जिस से अर्जुन उन को हरा सके। इसलिए जिस ने निरासक्त और निष्काम हो कर निष्कर्मण्यता की स्थिति प्राप्त कर ली है, वह कर्म करते हुए दिखने के बाद भी कर्म से मुक्त होता है, जैसे कुम्हार का चक्का घड़ा बनने के बाद भी घूमता रहता है, उस का शेष जीवन वैसे ही व्यतीत होता है।

कर्तव्य पालन में निष्काम हो सकते है किंतु कर्म फल से मुक्त नहीं। कर्म फल से मुक्त तो अहम और मोह से मुक्त हो कर ही हो सकते है। तर्क एवम समय एवम स्थान से  जो कार्य सही भी हो किन्तु सत्य के विपरीत, उस का कर्म फल से कोई मुक्त नही। कर्मयोगी सत प्रकृति में कार्य निष्काम हो कर कार्य करता है जिस से उस को कर्म का बंधन कम से कम हो।

जीव प्रकृति से जुड़ने से सृष्टि रचना का भाग बन जाता है। जीव नित्य, साक्षी और अकर्ता है अतः जो भी क्रिया होती है वह प्रकृति द्वारा होती है। आत्मनिष्ठ जीव प्रकृति से सम्बन्ध नही रखता इसलिये वह बन्धन मुक्त हो कर प्रकृति के समस्त कार्य निमित्त मात्र हो कर करता है। किंतु अज्ञानी जीव प्रकृति से सम्बन्ध रखता है और प्रकृति के समस्त कार्य कर्ता भाव से करते हुए कर्मफल के बन्धन में फस कर जन्म-मरण के चक्र को भोक्ता है।

कर्म हम किस रूप में करते है, उस के प्रति हमारा समर्पण और आसक्ति कैसी है, कर्मयोग के प्रकार को तय करता है। 1) जो कर्म योग ईश्वर की इच्छा समझ कर जो हो रहा है उसे स्वीकार करता है और कर्म करते हुए, अपनी आशाओं को पूर्ण होते देखना चाहता है, उस के कर्म योग अज्ञान, विधि का विधान या विधाता का लेख है। 2) जो मनुष्य निरासक्त हो कर कर्म परमात्मा की पूजा समझ कर करता है, उस के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है, उस के लिए कर्म यज्ञ के समान है। 3) जो कर्म अपने सामाजिक दायित्व को समझ कर परिवार, समाज, राष्ट्र एवम कर्तव्य भाव से करता है तो यह उस के लिए धर्म का आधार होता है। 4) किंतु जो कर्म आत्म शुद्धि के लिए अपने पिछले कर्म के फल को भोगने और नए कर्म अनासक्त और कर्ता भाव को छोड़ कर करता है तो यह कर्म उस की चित्त शुद्धि और आत्म शुद्धि का कार्य करता है। अब हमे तय करना है कि कर्म पर अपने अधिकार को हम किस प्रकार पूरा करते है।

यह मोक्ष, पुनः जन्म, कर्मो के फल आदि विचारधारा अतिभोतिकवाद दृष्टिकोण की ही देन है, पारलौकिक दृष्टिकोण को प्राप्त मनुष्य मौन है। सृष्टि यज्ञ चक्र के भोगता अनेक पुरुष महापुरुष, संत, परम संत, कर्तव्य वीर बहुत लोगो को सुना एवम पढा है जिन्होंने इस यज्ञ चक्र के नियम धर्म आचार बनाये। मत विभेद भी इन्ही लोगो की देने है क्योंकि यह कर्म प्रधान है, पारलौकिक दृष्टि कोण कंही नहीं है। अतः पूर्णत कर्तव्य पालन का सर्वोच्च व्यवहारिक ज्ञान है इसे ही हम आगे पढ़ेंगे।

गीता के अध्ययन को समझने के हम विस्तार से यह सब जान कर और समझ कर अपने अज्ञान को हटा सकते है। बस अध्ययन में अपनी नियमितता बनाए रखे।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 3.18 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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