।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 03.16 ।। Addditional II
।। अध्याय 03. 16 ।। विशेष II
।। सृष्टि यज्ञ चक्र, वेद और अज्ञान ।।विशेष – 3.16 ।।
आतिभोतिकवादी दृष्टिकोण के कारण समाज या बुद्धि जीवी अपने अपने मत का प्रतिपादन करते है और मनुष्य के उदार के लिए वो स्वयं के नियम बनाते है जिस का अनुसरण कम विवेक शील लोग लोग करते है और यंही से समाज मे विघटन होता है और धर्म, गोत्र, जाति, नियम व कर्मकांड तैयार हो जाते है। विभिन्न विचारधारों से विभिन्न मार्ग मनुष्य की उन्नति के होने से मतभेद और सही-गलत की विवेचना होती है और जो यहां सही है वो किसी और जगह गलत।
आदि गुरु शंकराचार्य ने कहते है।
जो वस्तु जिसके द्वारा बढ़ती है , उसके द्वारा उसका नाश सम्पादित नहीं होता है । जो वस्तु जिसके साथ रहती है , वह उसके विरोध के लिए अर्थात् निवर्त्तक सिद्ध नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि कार्य की उत्पत्ति अज्ञान से होती है। नित्य-शुद्ध-बुद्ध- स्वरूप आत्मा में ब्राह्मणत्व आदि धर्म का आरोप करके पुरुष , ब्राह्मण आदि के लिए विधान किये हुए कर्मों को करने लगता है । इसलिए अज्ञान ही कर्म का कारण है। यह बात सही है कि जो जिसके साथ रहते है, वह उसका नाशक नहीं हो सकता । प्रकाश अन्धकार का नाशक है , इसलिए वे दोनों एकत्र नहीं रह सकते । परन्तु कर्म और अज्ञान एकत्र रहते हैं । इसलिए इन दोनों में नाश्य-नाशक का भाव नहीं है । एकमात्र ज्ञान ही अज्ञान का नाशक है ।।
कौन कर्म और अज्ञान – इन दोनों के नाश की कल्पना करने में समर्थ है अर्थात पुरुष के लिए यह कल्पना करना कि कौन कर्म और अज्ञान को नाश कर सकता है , कठिन है । किसी समय में भी अज्ञान के साथ कर्म का विरोध देखने में नहीं आता है ।इसलिए कर्म से अज्ञान का नाश नहीं हो सकता है । जिस क्षण, ज्ञान के संयोग से कर्म का नाश होता है , उस समय ज्ञान और कर्म दोनों का विरोध होना उचित है ; जैसे प्रकाश और अंधकार दोनों में परस्पर विरोध होता है । तात्पर्य यह है कि हम एक ऐसा नियम देखते हैं कि एक ही समय में , किसी के संयोग से दूसरी वस्तु का नाश होता है । मन में भी परस्पर विरोध देखने में आता है । अतः पृथक-पृथक स्वभाववाले उन दोनों का ही विरोधीपना उचित है , जैसे अन्धकार और प्रकाश का आपस में विरोधीपना है । इसलिए जब ज्ञान का सम्बन्ध ( संयोग ) होता है , तब अज्ञान का नाश होता है । अर्थात ज्ञान ही अज्ञान के नाश का कारण है ।।
अंधकार और प्रकाश के समान , अज्ञान और ज्ञान इन दोनों का भी परस्पर विरोध देखने में आता है । ज्ञान के सिवाय किसी से भी अज्ञान का नाश नहीं हो सकता । इसलिए सुधी ( बुद्धिमान ) लोगों को अविद्या के नाश के लिए ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए और यह ज्ञान आत्मा आत्मा और अनात्मा के विवेक द्वारा सिद्ध होता है और किसी प्रकार से नहीं । इसलिए उस तत्त्वज्ञान को पाने के निमित्त युक्ति के द्वारा आत्मा और अनात्मा का विवेक करना चाहिए । इस विवेक से देह , जीव आदि अनात्मक पदार्थों में आत्मबुद्धिरूपी- गाँठ खुल जाती है ।।
इस लिये कुछ लोग कृष्ण भगवान को कर्तव्य पालन के लिए अपने रिश्तेदारो की हत्या की सलाह देना, को सही नही मानते। सत्य की विवेचना भी अपने अपने मत के अनुसार की जाती है। किसी के प्राण बचाने के लिये बोला गया झूठ भी सही माना जाता है। आतिभोतिकवादी मनुष्य के गुण यदि किसी मे अधिक मात्रा में हो तो उस को भी उस के विरुद्ध प्रयोग में लाया जाता है, कर्ण एवम राजा बलि की दान शीलता के कारण उन को छला गया और वो अपनी कीर्ति के लिए धोखा खाने को तैयार हो गए। युधिष्टर ने द्रोण को मरवाने के लिए झूठ तक बोला।
भगवान श्री कृष्ण द्वारा ज्ञान तभी समझ में आने लगता है, जब अज्ञान का आवरण जीव के ऊपर से हटना शुरू होता है। अज्ञान में जीव अपने को प्रकृति के संग बंधन में कर्ता और भोक्ता भाव में ही रहता है अतः वह ज्ञान भी सांसारिक या स्वर्ग के सुख के लिए खोजता है, जब की उस का लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त होना है।
अर्जुन ही एक मात्र सक्षम और अनुसूय अर्थात मन और बुद्धि से सरल और किसी भी विकार से परे थे। संसार का संचालन प्रकृति करती है, इसलिए वह योग्य व्यक्ति को उस की योग्यता के अनुसार निमित्त बनाती है। महाभारत के समय, व्यक्तिगत धर्म और लोभ, स्वार्थ आदि का प्रभाव बढ़ गया था। अतः प्रकृति को स्वयं को संतुलित करने के लिए योग्य व्यक्ति की आवश्यकता थी, वह अर्जुन था।
जब आप को प्रकृति किसी कार्य के लिए चुने तो निस्वार्थ, निष्काम, निर्लिप्त भाव से यदि हम उस कार्य को दक्षता से लोकसंग्रह के लिए पूर्ण करते है, तो ही इस सृष्टि यज्ञ चक्र के लिए हम कर्तव्य पालन करते हैं।
पारलौकिक दृष्टिकोण मोक्ष धर्म की ओर प्रशस्त है अतः सांसारिक एवम यज्ञ चक्र का भाग नहीं। कर्मयोग, भक्ति योग एवम ज्ञानयोग किसी मे भी पराकाष्ठा इस देह के बंधन से मुक्त नित्य की प्राप्ति है, यहां कोई मत भेद नही है, एक की मार्ग है।
अतः जाने या अनजाने में जो भी सत्य के उस के विरुद्ध कार्य बन्धकारी है, जो आतिभोतिकवादी दृष्टिकोण से सही है वो भी बंधन में डालता है। युद्धिष्ठर को झूठ बोलने पर नरक से गुजरना पड़ा।
संसार में सफलता का माप दंड सुखी एवम बड़ा परिवार होना, आर्थिक दृष्टि से अति संपन्न होना, उच्च पद पर आसीन होना या उच्च ज्ञान से युक्त होना आदि माना जाता है, किंतु क्या जीव का मनुष्य जन्म अतिभौतिकवादी हो कर जीना है या मोक्ष को प्राप्त करते हुए, जन्म – मरण के चक्कर से मुक्त होना है। कर्म का अधिकार यदि मनुष्य को दिया है, तो उस का कारण उस को बुद्धि दे कर उस के सदुपयोग करने के लिए दिया है। इसी को हम गीता में सृष्टि यज्ञ चक्र से समझ रहे है।
अतः गीता की विवेचना करना या उसे समझना तभी संभव है जब हम अतिभौतिकवादी दृष्टिकोण को त्याग कर सोचे। कल युग मे कर्म को प्रधानता है, इसलिये किसी गरीब की सहायता करना ज्यादा श्रेष्ठ कार्य है, वनस्पत उस की सहायता का धन कहा से लाये। जब सहायता अनैतिक धन से होती है तो उस के परिणाम भी अनैतिक ही होते है। मंदिर में पूजा हो, भागवत की कथा हो या दान धर्म के कितने भी बड़े कार्य हो, यदि धन एवम कर्म करने वाले शुद्ध नही होंगे तो वह यज्ञ च्रक के विरुद्ध एवम पापकारी ही होगा।
ब्राह्मण जीविका के उन लोगो के लिये यज्ञ करते है जो काला बाजारी या अनैतिक तरीके से धन कमाते है। ब्रह्मा ने कहा कि तुम यज्ञ करो, यज्ञ से उत्पन्न देवताओं को समर्पित करो और जो शेष बचे उसे अपने लिये प्रयोग करो, किन्तु कर उस उल्टा रहे है, अतः जब असंतुलन बढ़ता है तो प्रकृति स्वयं ही संतुलन करती है।
पदार्थ का अन्यथा भावरूप अध्यास , जीव के संसार का कारण है । पण्डितजनों ने इसको अज्ञानमूलक आवृत्तिलक्षण माना है ।।
यह दृषिकोंण अभी हम तृतीय अध्याय में कर्म योग के अंतर्गत सृष्टि के यज्ञ चक्र की निरंतर गति में रख रहा हूँ जो आगे विवेचन में काफी काम आएगा। इस पर कल और मनन करते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 3.16 ।। क्रमश: ।।
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