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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  03.15 ।। Additional II

।। अध्याय    03. 15 ।। विशेष II

।। वेद ।। विशेष – 3.15 ।।

वेदों का सार: क्या लिखा हैं हमारे वेदों में?

वेद मानव सभ्यता के सबसे प्राचीन और हिन्दू धर्म के लिखित दस्तावेज़ हैं। ऐसा माना जाता है की हिन्दू धर्म के आदर्श विश्व के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। ये वेद ही हैं जिनके आधार पर अन्य धार्मिक मान्यताओं और विचारधाराओं का आरंभ और विकास हुआ है। कुछ मान्यताओं के अनुसार वेदों को ईश्वर की वाणी भी समझा जाता है। वेद में लिखे गए मंत्र जिनहे ऋचाएँ कहा जाता है, कहा जाता है की इनका इस्तेमाल आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके लिखे जाने के समय था।

वेद शब्द का अर्थ:

वेद शब्द की उत्पत्ति वास्तव में संस्कृत भाषा के शब्द ”विद” से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है जानना या ज्ञान का जानना। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वेद का शाब्दिक अर्थ ज्ञान का जानना भी होता है। 

वेद क्या हैं?

सरल शब्दों में कहा जाए तो वेद भारतीय और विशेषकर हिन्दू धर्म के वे ग्रंथ हैं। इनमें ज्योतिष, गणित, विज्ञान, धर्म, औषधि, प्रकर्ति, खगोल शास्त्र और इन सबसे संबन्धित सभी विषयों के ज्ञान का अकूत भंडार भरा पड़ा है। ऋषि-मुनियों द्वारा रचे वेद हिन्दू संस्कृति की रीढ़ माने जाते हैं। 

वेदों का इतिहास:

वेदों का इतिहास का धागा एक अनंत दिशा की ओर ले जाता है फिर भी कुछ इतिहासकारों के अनुसार 1500-1000 ई. पू. के आसपास के समय में वेदों की रचना की गयी होगी। युनेस्को ने भी 1800 से 1500 ई.पू. में रची ऋग्वेद की 30 पाण्डुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहर की श्रेणी में रखा है।

हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों में इस बात का प्रमाण मिलता है की वेदों की रचनाकार स्वयं भगवान ब्रह्मा हैं और उन्होंने इन वेदों के ज्ञान तपस्या में लीन अंगिरा, आदित्य, अग्नि और वायु ऋषियों को दिया था। इसके बाद पीड़ी दर पीड़ी वेदों का ज्ञान चलता रहा।

वेदों की संख्या:

सभी जानते हैं की वेदों की संख्या चार है, लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं की शुरुआत में वेद केवल एक ही था, अध्ययन की सुविधा की द्रष्टि से उसे चार भागों में बाँट दिया गया। एक और मत इस संबंध में प्रचलित है जिसके अनुसार, अग्नि, वायु और सूर्य ने तपस्या करी और ऋग्वेद, आयुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को प्राप्त किया। ऋग्वेद, आयुर्वेद और सामवेद को क्रमशः अग्नि, वायु और सूर्य से जोड़ा गया है। इसको आगे स्पष्ट करते हुए बताया गया है की अग्नि से अंधकार दूर होता है और प्रकाश मिलता है इसी प्रकार वेदों से अज्ञान का अंधेरा छंट कर ज्ञान का प्रकाश होता है। वायु का काम चलना है जिसका वेदों में अर्थ कर्म करने से जोड़ा गया है। इसी प्रकार सूर्य अपने तेज और प्रताप के कारण पूजनीय है यही वेदों में भी स्पष्ट किया गया है।

वेदों के प्रकार

वेद चार प्रकार के हैं और इनकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

1. ऋग्वेद: 

वेदों में सबसे पहला वेद ऋग्वेद कहलाता है। इस वेद में ज्ञान प्राप्ति के लिए लगभग 10 हज़ार मंत्रों को शामिल किया गया है जिनमें पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति, देवताओं के आवाहन के मंत्र आदि लिखे गए हैं।  ये सभी मंत्र कविता और छंद के रूप में लिखे गए हैं। इसे विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना गया है।

2. यजुर्वेद

इस वेद में समर्पण की प्रक्रिया के लिए लगभग 40 अध्यायों में 3750 गद्यात्मक मंत्र हैं। ये मंत्र यज्ञ की विधियाँ और यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्व ज्ञान का वर्णन भी इस वेद में है। इस वेद की दो शाखाएँ -शुक्ल और कृष्ण हैं। 

3. सामवेद

साम का अर्थ है रूपान्तरण, संगीत, सौम्यता, और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। इसमें संगीत की उपासना है जिसमें 1875 मंत्र हैं।

4. अथर्ववेद:

वेदों की श्रृंखला में सबसे आखिरी वेद है । इसमें गुण, धर्म, आरोग्य के साथ यज्ञ के लिए कवितामय मंत्र जिनकी संख्या 7260 हैं जो लगभग 20 अध्यायों में हैं , शामिल हैं। इसमें रहस्यमय विध्याओं के  जैसे जादू, चमत्कार आदि के भी मंत्र हैं। 

वेदों का सार:

वेदों का सार समझने के लिए वेदों का अध्ययन करना बहुत जरूरी है। इसके लिए वेदों के अंगों जिनहे “वेदांग” कहा जाता है का पढ़ा जाना जरूरी है। ये इस प्रकार हैं:

1. व्याकरण:

इसमें शब्दों और स्वरों की उत्पत्ति का बोध होता है।

2. शिक्षा: 

इसमें वेद मंत्रों के उच्चारण की विधि बताई गयी है।

3. निरुक्त:

वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन अर्थों में किया गया है उनके इन अर्थों का उल्लेख निरुक्त में किया गया है।

4. ज्योतिष:

इसमें वैदिक अनुष्ठानों और यज्ञों का समय ज्ञात होता है।

5. कल्प: 

वेदों के किस मंत्र का उपयोग किस मंत्र से करना चाहिए इसका वर्णन यहाँ दिया गया है। इसकी तीन शाखाएँ हैं — शौर्तसूत्र, ग्र्हयसूत्र,धर्मसूत्र।

6. छंद:

वेदों में प्रयोग किये गए मंत्र आदि छंदों की रचना का ज्ञान इसी शास्त्र से होती है।

इसके अतिरिक्त चारों वेदों के आगे भी चार भाग हैं जो इस प्रकार हैं:

संहिता: इसमें मंत्रों की विवेचना की गयी है।

ब्राह्मण ग्रंथ: इस भाग में ग्ग्द्य के रूप में कर्मकांड की व्याख्या की गयी है

आरण्यक: इस भाग में कर्मकांड का क्या उद्देश्य हो सकता है, इसकी व्याख्या करी गयी है।

उपनिषद:

इसमें ईश्वर, आत्मा और परब्रह्म के स्वभाव और आपसी संबद्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन किया गया है ।

कुछ विद्वानों के अनुसार, ब्राह्मण, आरण्यक, संहिता और उपनिषद के योग को भी समग्र वेद कहा जाता है। वेदों का अध्ययन इतना विशाल और गहरा है जिसका आदि और अंत समझना बहुत कठिन है। शोध रिपोर्टों के अनुसार वेदों का सार उपनिषद में समाया है और उपनिषद का सार भागवत गीता को माना गया है। इस क्रम में वेद, उपनिषद और भागवत गीता है वास्तविक हिन्दू धर्म ग्रंथ हैं, अन्य और कोई नहीं हैं। वेद स्म्र्तियोन  में वेद वाक्यों को विस्तार से समझाया गया है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत को इतिहास और पुराणों की प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथ माना गया है।  

इसलिए हिन्दू मनीषियों ने वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया गया है जिसका मुख्य कारण इन ग्रन्थों में वेदों के सारे ज्ञान को संक्षेप और सरल शब्दों में बताया गया है।

वेदों में क्या लिखा है

।।ॐ।। वेद ‘विद’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ज्ञान या जानना, ज्ञाता या जानने वाला; मानना नहीं और न ही मानने वाला। सिर्फ जानने वाला, जानकर जाना-परखा ज्ञान। अनुभूत सत्य। जाँचा-परखा मार्ग। इसी में संकलित है ‘ब्रह्म वाक्य’।

वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के ‘भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।

वेद को ‘श्रुति’ भी कहा जाता है। ‘श्रु’ धातु से ‘श्रुति’ शब्द बना है। ‘श्रु’ यानी सुनना। कहते हैं कि इसके मन्त्रों को ईश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन तपस्वियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था जब वे गहरी तपस्या में लीन थे। सर्वप्रथम ईश्वर ने चार ऋषियों को इसका ज्ञान दिया:- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।

वेद वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले छह-सात हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है। विद्वानों ने संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद इन चारों के संयोग को समग्र वेद कहा है। ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहे जाते हैं। बाकी ग्रन्थ स्मृति के अंतर्गत आते हैं।

संहिता : मन्त्र भाग। वेद के मन्त्रों में सुंदरता भरी पड़ी है। वैदिक ऋषि जब स्वर के साथ वेद मंत्रों का पाठ करते हैं, तो चित्त प्रसन्न हो उठता है। जो भी सस्वर वेदपाठ सुनता है, मुग्ध हो उठता है।

ब्राह्मण : ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों की चर्चा है। वेदों के मंत्रों की व्याख्या है। यज्ञों के विधान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन है। मुख्य ब्राह्मण 3 हैं : (1) ऐतरेय, ( 2) तैत्तिरीय और (3) शतपथ।

आरण्यक : वन को संस्कृत में कहते हैं ‘अरण्य’। अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों का नाम पड़ गया ‘आरण्यक’। मुख्य आरण्यक पाँच हैं : (1) ऐतरेय, (2) शांखायन, (3) बृहदारण्यक, (4) तैत्तिरीय और (5) तवलकार।

उपनिषद : उपनिषद को वेद का शीर्ष भाग कहा गया है और यही वेदों का अंतिम सर्वश्रेष्ठ भाग होने के कारण वेदांत कहलाए। इनमें ईश्वर, सृष्टि और आत्मा के संबंध में गहन दार्शनिक और वैज्ञानिक वर्णन मिलता है। उपनिषदों की संख्या 1180 मानी गई है, लेकिन वर्तमान में 108 उपनिषद ही उपलब्ध हैं। मुख्य उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वर। असंख्य वेद-शाखाएँ, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं। वर्तमान में ऋग्वेद के दस, कृष्ण यजुर्वेद के बत्तीस, सामवेद के सोलह, अथर्ववेद के इकतीस उपनिषद उपलब्ध माने गए हैं।

वैदिक काल : 

प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था। दरअसल वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है। अर्थात यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: माना यह जाता है कि पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्‍वेद, यजुर्वेद व सामवेद जि‍से वेदत्रयी कहा जाता था। मान्यता अनुसार वेद का वि‍भाजन राम के जन्‍म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि‍ अथर्वा द्वारा कि‍या गया।

दूसरी ओर कुछ लोगों का यह मानना है कि कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया। इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी। उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्‍य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के आज से 5112 वर्ष पूर्व होने के तथ्‍य ढूँढ लिए गए हैं।

वेदों के उपवेद:

ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

वेद के विभाग चार है: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गति‍शील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

1.ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। ऋग्वेद सबसे पहला वेद है जो पद्यात्मक है। इसके 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त है जिसमें 11 हजार मंत्र हैं। इस वेद की 5 शाखाएं हैं – शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है।

2.यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रह्माण, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। यह वेद गद्य मय है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मंत्र हैं। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण।

कृष्ण :वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है। कृष्ण की चार शाखाएं हैं।

शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्यों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें मौजूद है।

3.सामवेद : साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है।  इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं।इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं।

4. अथर्वदेव : थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कर्म करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। इसके 20 अध्यायों में 5687 मंत्र है। इसके आठ खण्ड हैं जिनमें भेषज वेद और धातु वेद ये दो नाम मिलते हैं।

सनातन धर्म में सामान्य हिंदू वेदों को नही पढ़ते, क्योंकि इस की मूल भाषा संस्कृत है और सांकेतिक है। किसी भी विषय को अत्यंत सार संक्षिप्त तौर पर लिखा है, किंतु यही ग्रंथ विदेशों में शोध का विषय चिकित्सा, विज्ञान और शिक्षा का है। इस लिए वे लोग अनुसंधान करते है और हम ताली बजा कर अपने पूर्वजों का गुणगान करते है। आधुनिक विज्ञान के लिए सनातन संस्कृति और वेद ही आपस में प्रतिस्पर्धा में है, जबकि अन्य कोई भी धर्म आधुनिक विज्ञान के साथ प्रतिस्पर्धा नही कर सकता।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 3.15 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

 

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