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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  03.12 ।।

।। अध्याय    03. 12 ।।

श्रीमद्भगवद्गीता 3.12

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः॥

“iṣṭān bhogān hi vo devā,

dāsyante yajña-bhāvitāḥ..।

tair dattān apradāyaibhyo,

yo bhuńkte stena eva saḥ”..।।

भावार्थ : 

यज्ञ द्वारा उन्नति को प्राप्त देवता तुम लोगों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किन्तु जो मनुष्य देवताओं द्वारा दिए हुए सुख-भोगों को उनको दिये बिना ही स्वयं भोगता है, उसे निश्चित-रूप से चोर समझना चाहिये॥१२॥

Meaning:

The deities, nourished by yajna, will also provide you the objects you desire. One who consumes these objects without offering them to others, he is a thief.

Explanation:

So far, Shri Krishna spoke about the need for karmayoga, the actions to perform under karmayoga, and the attitude with which those actions should be performed. He also emphasized the notion of yajna or selfless dedication. Now Shri Krishna gives third level of action that a person can operate under.

As administrators of various processes of the universe, the devatas provide us with rain, wind, crops, vegetation, minerals, fertile soil, etc. We human beings are indebted to them or the nature who do not believe the devatas for all that we receive from them. The devatas perform their duty and expect us to perform our duty in the proper consciousness too under give and take methods. Since these celestial gods are all servants of the Supreme Lord, they become pleased when someone performs a sacrifice for him and in turn assist such a soul by creating favorable material conditions. Thus, it is said that when we strongly resolve to serve God, the universe begins to cooperate with us by its blessing.

karma yoga is a double edged sword, which can give you both material benefit and spiritual benefit Similarly karma yoga is two-in-one, it will give both prosperity: material and as well as the spiritual growth; but which one do you want is your choice. Because everybody may not be interested in mokṣa. If you are interested in dharmartha kama, there is nothing wrong; but the only condition that Bhagavan puts is: fulfil your dharmartha kama through karma yoga method not through any what? corrupt way of life. Not  only to make distribution of earning but also to earn through legitimate method, through legal methods, through ethical methods fulfil your goals, never take to shortcut methods becoming quickly rich, doubly rich, do not and do that.

However, if we begin looking upon the gifts of nature, not as means of serving the Lord but as objects of our own enjoyment, Shree Krishna calls it a thieving mentality. Often people ask the question, “I lead a virtuous life; I do not harm anyone, nor do I steal anything. But I do not believe in worshipping God, nor do I believe in him. Am I doing anything wrong?” This question is answered in the above verse. Such persons may not be doing anything wrong in the eyes of humans, but they are thieves in the eyes of God. Let us say, we walk into someone’s house, and without recognizing the owner, we sit on the sofa, eat from the refrigerator, and use the restroom. We may claim that we are not doing anything wrong, but we will be considered thieves in the eyes of the law, because the house does not belong to us. Similarly, the world that we live in was made by God, and everything in it belongs to him. If we utilize his creation for our pleasure, without acknowledging his dominion over it, from the divine perspective we are certainly committing theft. If you enjoy the worldly benefits in selfish manner, then you are No.1 thief. Such a selfish person does not care about anyone but himself due to his large ego. And if you do not do the thanks giving, you are an ungrateful person; ingratitude is the worst weakness of a human being. The śāstrās say that for all the pāpams there is prāyascittam, there is one pāpam for which there is no prāyascittam and that is the pāpam of ingratitude.

An obvious example is someone who is part of a project team. He does not do any work in team but claims all the credit. In today’s language we would call such a person a freeloader. Such people are never held in good standing by anyone.

In traditions all over the world, we see evidence that we are encouraged to give back something each time we take something. In Indian culture, it is customary that before one eats a meal, one offers it to the less fortunate, the wise and learned, and to animals. In most cultures, when you cut down a tree, you are encouraged to plant few more. Even in the corporate world, when a company earns profits, it invests a portion back into the business before handing out the dividends.

Therefore, taking without giving back is the lowest level of action. The next shloka illustrates the two higher levels of action. We need to gauge which level we belong to, so that we can start moving to the highest level of selflessness.

।। हिंदी समीक्षा ।।

दसवें श्लोक से कर्मयोग को ब्रह्म यानि प्रजापति से उत्पन्न सृष्टि एवम देव के मध्य परस्पर सहयोग की प्रवृति के रूप में भगवान कर्म को यज्ञ के रूप में प्रस्तुत कर रहे है। प्रत्येक कर्मो का फल कार्य करने वाले को प्राप्त अवश्य ही होगा किन्तु उस का कितना कर्म फल बंधन कारी है और कितना उस के अधिकार में है यह आज विस्तृत रूप में जानने की चेष्ठा करते है तांकि इस के आगे के श्लोक को भी सही समझ सके।

शरीर निर्वाह की समस्त आवश्यक सामग्री (भोजन वस्त्र धन मकान आदि) को अपने सुख के लिये काम में लाने से है। यह शरीर माता पिता से मिला है और इस का पालन पोषण भी उन्हीं के द्वारा हुआ है। विद्या गुरुजनों से मिली है। देवता सब को कर्तव्य कर्म की सामग्री देते हैं। ऋषि सब को ज्ञान देते हैं। पितर मनुष्य की सुख सुविधा के उपाय बताते हैं। पशु, पक्षी, वृक्ष, लता आदि दूसरों के सुख में स्वयं को समर्पित कर देते हैं। (यद्यपि पशु, पक्षी आदि को यह ज्ञान नहीं रहता कि हम परोपकार कर रहे हैं तथापि उन से दूसरों का उपकार स्वतः होता रहता है) इस प्रकार हमारे पास जो कुछ भी सामग्री बल योग्यता पद अधिकार धन सम्पत्ति आदि है वह सब की सब हमें दूसरों से ही मिली है। इसलिये इन को दूसरों की ही सेवा में लगाना है। शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि सभी पदार्थ हमें संसार से मिले हैं। ये कभी अपने नहीं हैं और अपने होंगे भी नहीं। अतः इनको अपना और अपने लिये मानकर इनसे सुख भोगना ही बन्धन है। इस बन्धन से छूटने का यही सरल उपाय है कि जिन से ये पदार्थ हमें मिले हैं इन्हें उन्हीं का मानते हुए उन्हीं की सेवा में निष्काम भावपूर्वक लगा दें। यही हमारा परम कर्तव्य है।साधकों के मन में प्रायः ऐसी भावना पैदा हो जाती है कि अगर हम संसार की सेवा करेंगे तो उसमें हमारी आसक्ति हो जायगी और हम संसार में फँस जायँगे परन्तु भगवान् के वचनों से यह सिद्ध होता है कि फँसने का कारण सेवा नहीं है प्रत्युत अपने लिये कुछ भी लेने का भाव ही है। इसलिये लेने का भाव छोड़ कर देवताओं की तरह दूसरों को सुख पहुँचाना ही मनुष्य मात्र का परम कर्तव्य है।कर्मयोग के सिद्धान्त में प्राप्त सामग्री सामर्थ्य समय तथा समझदारी का सदुपयोग करने का ही विधान है। प्राप्त सामग्री आदि से अधिक की (नयी नयी सामग्री आदि की) कामना करना कर्मयोग के सिद्धान्त के विरुद्ध है। अतः प्राप्त सामग्री आदि को ही दूसरों के हित में लगाना है। अधिक की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। युक्तिसंगत बात है कि जिस में जितनी शक्ति होती है उस से उतनी ही आशा की जाती है फिर भगवान् अथवा देवता उस से अधिक की आशा कैसे कर सकते हैं अपने कर्तव्य का पालन न करनेवाला मनुष्य सब को प्राप्त होनेवाली सामग्री (अन्न जल वस्त्र आदि) का भाग दूसरों को दिये बिना ही अकेला स्वयं ले लेता है। अतः वह चोर ही है। जो मनुष्य दूसरों को उनका भाग न देकर स्वयं अकेले ही भोग करता है वह तो चोर है ही पर जो मनुष्य किसी भी अंश में अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है अर्थात् सामग्री को सेवा में लगाकर बदले में मानबड़ाई आदि चाहता है वह भी उतने अंश में चोर ही है। ऐसे मनुष्य का अन्तःकरण कभी शुद्ध और शान्त नहीं रह सकता। कितना भाग उस के हिस्से का है यह जानने के कार्य करते समय मनोवृति कैसी हो, इस को जानते है।

कर्म की शक्ति आप को भौतिकवाद और अध्यात्मवाद दोनो मार्ग में ले जा सकती है। कर्म यदि स्वार्थ, कामना, आसक्ति, अहंकार और ईर्ष्या से जुड़ लाए तो मनुष्य परिवार, समाज, देश और विश्व के प्रति अपने कर्तव्य को भूल कर संग्रह में लग जाता है, जिस से अन्य उस वस्तुओ का उपभोग नही कर सकते जो स्वयं संग्रह करने वाले के लिए भी अनुपयोगी है। लोभ प्रकृति को हानि तक पहुंचाने की सीमा तक पहुंच जाता है। तो ऐसे व्यक्ति को चोर ही कहा जाएगा। किंतु कर्म यदि योग से जोड़ दिया जाए तो कर्मयोग से अध्यात्मवाद का मार्ग तैयार हो जाता है।

संस्कृत में दो शब्द है–प्रवृत्ति और निवृत्ति। प्रवृत्ति का अर्थ है–किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन या गमन, और निवृति का अर्थ है–किसी वस्तु से निवर्तन या दूर गमन। ‘किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन’ का ही अर्थ है हमारा यह संसार–यह ‘मैं’ और ‘मेरा’। इस ‘मैं’ को धनसम्पत्ति, प्रभुत्व, नामयश द्वारा सर्वदा बढ़ाने का यत्न करना, जो कुछ मिले उसी को पकड़े रखना, सारे समय सभी वस्तुओं को इस ‘मैं’-रूपी केन्द्र में ही संग्रहित करना–इसी का नाम है ‘प्रवृत्ति’। यह प्रवृत्ति ही मनुष्यमात्र का स्वाभाविक भाव है–चहुँ ओर से जो कुछ मिले, लेना और सब को केन्द्र में एकत्रित करते जाना। और वह केन्द्र है उसका अपना मधुर ‘अहम्’। जब यह वृत्ति घटने लगती है, जब निवृत्ति का उदय होता है, तभी नीति और धर्म का आरम्भ होता है। ‘प्रवृत्ति’ और ‘निवृत्ति’ दोनों ही कर्मस्वरूप हैं। एक असत् कर्म है और दूसरा सत्। निवृत्ति ही सारी नीति एवं सारे धर्म की नींव है; और इसकी पूर्णता ही सम्पूर्ण ‘आत्मत्याग’ है, जिसके प्राप्त हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिए अपना शरीर, मन, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व निछावर कर देता है। तभी मनुष्य को कर्मयोग में सिद्धि प्राप्त होती है। सत्कार्यों का यही सर्वोच्च फल है। किसी मनुष्य ने चाहे एक भी दर्शनशास्त्र न पढ़ा हो, किसी प्रकार ईश्वर में विश्वास न किया हो और अभी भी न करता हो, चाहे उसने अपने जीवन भर में एक बार भी प्रार्थना न की हो, परन्तु केवल सत्कार्यों की शक्ति उसे यदि उस अवस्था में ले जाय, जहाँ वह दूसरों के लिए अपना जीवन और सब कुछ उत्सर्ग करने को तैयार रहे, तो हमें समझना चाहिए कि वह उसी लक्ष्य को पहुँच गया है, जहाँ एक भक्त अपनी उपासना द्वारा तथा एक ज्ञानी अपने ज्ञान द्वारा पहुँचता है। अतएव आपने देखा, ज्ञानी, कर्मी और भक्त तीनों एक ही स्थान पर पहुँचते हैं–एक ही स्थान पर आकर मिल जाते हैं; और वह स्थान है–आत्मत्याग। विभिन्न दर्शनों और धर्मों में आपस में कितना ही मतभेद क्यों न हो, जो व्यक्ति अपना जीवन दूसरों के लिए अर्पण करने को उद्यत रहता है, उसके समक्ष सभी मनुष्य ससम्मान उठ खड़े होते हैं–उसके सामने भक्तिभाव से माथा नवाते हैं। यहाँ किसी प्रकार के मतामत का प्रश्न नहीं–यहाँ तक कि वे लोग भी, जो धर्मसम्बन्धी समस्त विचारों पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, जब इस प्रकार का सम्पूर्ण आत्मत्यागपूर्ण कोई कार्य देखते हैं, तो उसके प्रति श्रद्धासम्पन्न हुए बिना नहीं रह सकते। क्या आपने यह नहीं देखा, एक कट्टर मतान्ध ईसाई भी जब एडविन अरनॉल्ड के Light of Asia (एशिया का आलोक) नामक ग्रन्थ को पढ़ता है, तो वह भी बुद्ध के प्रति किस प्रकार श्रद्धालु हो जाता हैं? और ये वे बुद्ध थे, जिन्होंने किसी ईश्वर का प्रचार नहीं किया, आत्मत्याग के अतिरिक्त जिन्होंने अन्य किसी भी बात का प्रचार नहीं किया।

इस का कारण केवल यह है कि मतान्ध व्यक्ति यह नहीं जानता कि उस का स्वयं का जीवनलक्ष्य और उन लोगों का जीवनलक्ष्य, जिन्हें वह अपना विरोधी समझता है, बिलकुल एक ही है। एक उपासक अपने हृदय में निरन्तर ईश्वरीभाव एवं साधुभाव रखते हुए अन्त में उस एक ही स्थान पर पहुँचता है और कहता है, “प्रभो, जैसी तेरी मरजी।” वह अपने नाम में कुछ बचा नहीं रखता। यही आत्मत्याग है। एक ज्ञानी भी अपने ज्ञान द्वारा देखता है कि उस का यह तथाकथित भासमान “अहं” केवल एक भ्रम है; और इस तरह वह उसे बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता है। यह भी आत्मत्याग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अतएव हम देखते हैं कि कर्म, भक्ति और ज्ञान तीनों यहाँ पर आकर मिल जाते हैं। प्राचीन काल के बड़े बड़े धर्मप्रचारकों ने जब हमें यह सिखाया था कि “ईश्वर जगत् से भिन्न है, जगत् से परे है,” तो असल में उसका मर्म यही था। जगत् एक चीज है और ईश्वर दूसरी; और यह भेद बिलकुल सत्य है। जगत् से उनका तात्पर्य है स्वार्थपरता। निःस्वार्थता ही ईश्वर है। एक मनुष्य चाहे रत्नखचित सिंहासन में आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से निःस्वार्थ है तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोंपड़ी में ही क्यों न रहता हो, चिथड़े क्यों न पहनता हो, सर्वथा दीनहीन ही क्यों न हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे कि वह संसार में घोर रूप से लिप्त है।

कर्मयोग या गीता पर अधिकतर टिप्पणी सन्यासी भाव के लोगो ने लिखी। किन्तु एक कर्मठ कर्मयोगी होते इस संसार मे रहने हेतु केवल ऐश्वर्य की अपेक्षा केवल आत्मज्ञान की योग्यता भले ही अधिक हो, परंतु जिसे इस संसार में रहना है उस को अन्य लोगो के समान ही अपने लिये और अपने देश के लिए, ऐहिक समृद्धि प्राप्त कर लेने की आवश्यकता है और नैतिक हक़ भी है। इसलिए जब यह प्रश्न उठे कि इस संसार मे मनुष्य का सर्वोत्तम ध्येय परम् उदेद्श्य क्या है, तो हमारे कर्मयोग शास्त्र में अंतिम उत्तर यही मिलता है कि शांति, पुष्टि, प्रेय और श्रेय अथवा ज्ञान और  ऐश्वर्य दोनों को एक साथ प्राप्त करो। सोचने की बात है कि जिन भगवान से बढ़ कर संसार मे कोई श्रेष्ठ नही और जिन के दिखलाए हुए मार्ग में अन्य सभी लोग चलते है उन भगवान ने ही क्या ऐश्र्वर्य और संपत्ति को छोड़ दिया है क्या? कृष्ण, राम एवम जनक सभी ने राज्य का सुख भोगा और लोकसंग्रह के कार्य किया। लोकसंग्रह के कार्य के सामर्थ्यवान होना भी आवश्यक है, दान देने के अर्थ का उपार्जन करना भी आवश्यक है। कर्मयोग का सिंद्धांत सन्यास मार्ग से भिन्न है और बिना ज्ञान के ऐश्र्वर्य आसुरी संपत के अतिरिक्त कुछ नही। किसी किसी काम को करने के लिए साधन, साध्य और साधक होना चाहिये और अनासक्त भाव के लिए मन स्वाभाविक और उदार मनोवृतिया करुणा, दया या परोपकार भी होना चाहिए। जिस से किसी काम को करने की प्रवृति पैदा हो। कर्मयोगी भामाशाह, जमशेद जी टाटा, नरेंद्र मोदी, स्वतंत्र संग्राम ने हिस्सा लेने वाले अनेक योद्धा, लाल बहादुर शास्त्री, अजीज प्रेम जी, बिल गेट्स जैसे न जाने कितने लोग भी है जो धन सम्पती को अर्जन कर के ऐश्वर्य पूर्ण जीवन भी जीते है और अपनी संपत्ति पुनः जरूरतमंद की सेवा में लगा कर निवृति को प्राप्त भी होते है। भगवान श्री कृष्ण भी अर्जुन को कहते है कि यदि प्रकृति ने तुम्हे निमित्त बना कर युद्ध भूमि में खड़ा किया है तो युद्ध करो, मृत्यु तुम्हे स्वर्ग देगी और जीतने पर तुम राज्य के सुख का भोग कर सकोगे।

अतः हम कह सकते है कि सूर्य अपनी ऊर्जा से संसार का संचालन कर रहा है, पवन सभी मे सांस भर रहा है। धरती सब का पोषण कर रही है। जल जीवन को संचालित कर रहा है। तो जीव भी इसी प्रकृति का ही भाग है, यदि वह निष्काम भाव से लोक संग्रह के लिये कर्म न करते हुए, स्वार्थ में सिर्फ अपने लोभ की पूर्ति के लिये कर्म करता है तो वह अन्य की हिस्सो में चोरी ही कर रहा है। जब देवता और प्रकृति एक दूसरे के लिये कार्य करते है तो मनुष्य संग्रह किस के लिये करता है जबकि उस का शरीर नित्य भी नही है, वह सृष्टि यज्ञ चक्र में यदि लोकसंग्रह के लिये कर्म नही करता तो भगवान उसे चोर की उपाधि देते है।

गीता में प्रतिपादित निष्काम कर्म के सिंद्धांत का मूल कारण यही सृष्टि की रचना है जो सुचारू रूप से चलने के लिये एक दूसरे पर निर्भर है। आप जैसा करोगे, वैसा ही पाओगे। निज के स्वार्थ के लिये कर्म का बन्धन आप को उस के फलों को भोगने से मुक्त नही करेगा, अतः निष्काम कर्मयोगी ही प्रकृति के सृष्टि यज्ञ चक्र की आज्ञा ब्रह्मा जी ने तय की है।

।। हरि ॐ तत सत ।।3.12।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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