।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 03.10 ।। Additional II
।। अध्याय 03. 10 ।। विशेष II
।। स्वामी अड़गड़ानंद जी की श्लोक 3.10 की व्याख्या ।। विशेष 3.10।।
स्वामी अड़गड़ानंद जी ने इस श्लोक की व्याख्या कुछ अलग प्रकार से की है। यज्ञ सहित प्रजा को किस ने रचा ? यह प्रजापति ब्रह्मा वस्तुतः वह जीव है जिस ने प्रजा के मूल उद्गम परमात्मा में प्रवेश पा लिया है। बुद्धि ही ब्रह्म है- अहंकार सिव बुद्धि अज, मन ससि चित्त महान। उस समय बुद्धि यंत्र होती है। उस पुरुष की वाणी में परमात्मा बोलता है।
भजन की वास्तविक क्रिया प्रारम्भ हो जाने पर बुद्धि का उत्तरोत्तर उत्थान होता है। प्रारम्भ में वह बुद्धि ब्रह्मविद्या से संयुक्त होने के कारण ‘ब्रह्मवित‘ कही जाती है। क्रमशः विकारों का शमन होने पर ब्रह्मविद्या में श्रेष्ठ होने पर वह ‘ब्रह्मविद्वर‘ कही जाती है। उत्थान और सूक्ष्म हो जाने पर बुद्धि की अवस्था विकसित हो जाती है। वह ‘ब्रह्मविद्वरियान‘ कहलाती है। इस अवस्था मे ब्रह्मविद्वत्ता पुरुष दुसरो को भी उत्थान मार्ग में लाने का अधिकार प्राप्त कर लेता है। बुद्धि की पराकाष्ठा है – ‘ब्रह्मविद्वरिष्ठ‘ अर्थात ब्रह्मवित की वह अवस्था, जिस में इष्ट प्रवाहित है। ऐसी स्थिति वाले महापुरुष प्रजा के मूल उद्गम परमात्मा में प्रविष्ट और स्थित रहते है। ऐसे महापुरुषों की बुद्धि मात्र यंत्र है। वे ही प्रजापति कहलाते है।
प्रजापति प्रकृति के द्वंद का विश्लेषण कर आराधना क्रिया की रचना करते है। यज्ञ के अनुरूप संस्कारो का देना ही प्रजा की रचना है। इससे पूर्व समाज अचेत, अव्यवस्थित रहता है। सृष्टि अनादि है। संस्कार पहले से ही है, किन्तु अस्त-व्यस्त, विकृत है। यज्ञ के अनुरूप उन्हें ढालना ही रचना या सजाना है।
इसप्रकार परमात्मा स्वरूपस्थ महापुरुषों ने भजन के प्रारम्भ में यज्ञ सहित संस्कारो को सुसंगठित कर कहा कि इस यज्ञ से तुम वृद्धि को प्राप्त हो। यह इष्ट सम्बन्धी कामनाओ की पूर्ति करेगा और इष्ट परमात्मा है इसलिये उस की कामना से तुम परमात्मा को प्राप्त करो।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 3.10 ।।
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