।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 03.09 ।।
।। अध्याय 03. 09 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 3.9॥
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।..।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥..।।
“yajñārthāt karmaṇo ‘nyatra,
loko ‘yaḿ karma-bandhanaḥ..I
tad-arthaḿ karma kaunteya,
mukta-sańgaḥ samācara”..I
भावार्थ :
यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है इस यज्ञ की प्रक्रिया के अतिरिक्त जो भी किया जाता है उससे जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन उत्पन्न होता है, अत: हे कुन्तीपुत्र! उस यज्ञ की पूर्ति के लिये संग-दोष से मुक्त रहकर भली-भाँति कर्म का आचरण कर॥ ९॥
Meaning:
Other than those actions performed for yajna, this world gets bound by action. Therefore, O Kaunteya, perform actions in that regard, without attachment.
Explanation:
A knife in the hands of a robber is a weapon for intimidation or committing murder, but in the hands of a surgeon is an invaluable instrument used for saving people’s lives. The knife in itself is neither murderous nor benedictory—its effect is determined by how it is used. As Shakespeare said: “For there is nothing good or bad, but thinking makes it so.” Similarly, work in itself is neither good nor bad. Depending upon the state of the mind, it can be either binding or elevating. Work done for the enjoyment of one’s senses and the gratification of one’s pride is the cause of bondage in the material world, while work performed as yajña (sacrifice) for the pleasure of the Supreme Lord liberates one from the bonds of Maya and attracts divine grace. Since it is our nature to perform actions, we are forced to work in one of the two modes. We cannot remain without working for even a moment as our mind cannot remain still.
Shri Krishna spoke about why performing action is essential, as well as what kind of action to perform. With this shloka, he begins the main topic of this chapter, which deals with how to perform actions. The second chapter mentioned it briefly, but this chapter goes deeper into it.
Shri Krishna uses the beautiful metaphor of a “yajna” to convey this teaching. In Indian culture, a yajna is a formal ritual of worship. Firstly, we fix a higher ideal before commencing a yajna, and dedicate the entire yajna to that ideal. Typically, that ideal is a “devataa” or a deity. Secondly, we perform actions such as chanting mantras and pouring oblations into the sacrificial fire, but do so with absolutely no trace of selfishness. Some mantras even include the words “naa mama” or “not me” to make unselfishness explicit.
Action as worship is not a bondage, in fact it leads to liberation, whereas action which is not a worship, is cause of bondage. Because I will have tensions, whether it will work properly, there is a constant anxiety; whether the child will get admission or not; whether I will be able to go to America or not, whether I will be able to win the contract or not. Every action is a poison for us, because every action causes stress and strain. Now what they are talking all over is that the life style of an individual nowadays is a such a stress; that so many people are talking about stress management; even a person who conducts the stress management is stressed about how to conduct the stress management.
The perfect karm yogis, even while fulfilling their household duties, perform all their works as yajña to me, knowing me to be the Enjoyer of all activities. They spend whatever free time they have in hearing and chanting my glories. Such people, though living in the world, never get bound by their actions.
So how does that ancient ritual apply to us? Let’s look at a practical example. An accountant working for a corporation can be successful if she acts in the spirit of a yajna. She should set a higher ideal, e.g. “I dedicate myself to the success of this corporation”. Then, she should perform her job responsibilities in the service of that goal. She will, for instance, frequently sign large cheques where there are opportunities to play games for selfish profit. But she will not even think about such things because her focus is on the company’s well being, not hers.
Now let’s see what happens when her goal becomes becomes selfish. She will begin to do things that generate “conflict of interest” in corporate- speak. She may slowly divert some of the company money to a shell company owned by a friend and so on. From a wordly perspective, she will get kicked out of the company sooner or later. From a spiritual perspective, each selfish action will bind her, propelling her into further selfish desires, and away from self-realization.
Therefore what is Karma yōga? Work is worship, is karma yōga. Our society is duty-based society; and Dayananda swami beautifully says; where duty is emphasised, humility will come, whereas where right is emphasised, there fight will come; court will come; divorce will come; all these things will come and therefore, Krishna says, you do what you have to do; as an offering to the Lord and that too how, without expecting any thing in return and without bothering about the consequences.
।। हिंदी समीक्षा ।।
कर्म प्रकृति की क्रिया है और मोक्ष जीव का धैय। अतः यज्ञ की क्रिया को यदि रोक कर मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग अपनाते है तो यह सृष्टि नियम के विरुद्घ होता है और प्रत्येक जीव के लिये संभव भी नही। जीव को यज्ञ अर्थात कर्म प्रकृति की क्रिया समझते हुए, अनासक्त भाव से करते रहना चाहिए जिस से मन के वेग शांत हो कर चित्त शुद्ध हो जाये।
आदि शंकराचार्य जी ने कहा है कि परस्पर विरोधी तत्व की युक्ति नही हो सकती। जैसे प्रकाश और अंधकार साथ नही हो सकते। स्वास्थ्य और बीमारी साथ साथ रख कर कोई सही नही चल सकता। वैसे ही कर्म प्रकृति का यज्ञचक्र है तो कर्म के साथ अज्ञान रखते हुए भी कोई मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए जो कर्म में राग एच द्वेष या स्वार्थ देखते है, वे उस के फल के बंधन से मुक्त नहीं होंगे। इसलिए कर्मयोग क्या है? तो हम कह सकते है, जो कर्म को निस्वार्थ भाव से परमात्मा का कार्य समझ कर, सात्विक भाव में उस को समर्पित करते हुए करता है, वह ही कर्म को यज्ञ अर्थात पूजा करते हुए करता है।
यह हो नही सकता कि कोई गलत करे और आप को गुस्सा न आये। किन्तु गुस्से को भी आने देना चाहिये और उस को अपने ऊपर हावी भी नही होने देना चाहिए और न ही गुस्से से मानसिक संतुलन बिगाड़ कर कोई कार्य करना चाहिए। गुस्से को रोकने से जितने विकार आएंगे उस से कम गुस्सा करते हुए शांत रहने से आएंगे। इसलिये निषिद्ध कर्मों को छोड़ कर नियत कर्म करने से सृष्टि यज्ञ चक्र का कार्य भी होता है और चित्त भी शांत और शुद्ध होता है। भावनाएं शक्तिशाली अस्त्र या ऊर्जा होती है, बशर्त है कि भावनाएं आप के नियंत्रण में हो, आप भावनाओ के नियंत्रण में न हो।
नियत कर्म प्रकृति के कर्म है, इस के अतिरिक्त जो भी कर्म किये जायेंगे, वे प्रवृति या निवृति में मोह, आशा, कामना या लोभ से प्रेरित होंगे। युद्ध भूमि में अर्जुन युद्ध के अतिरिक्त पलायन करता है तो वह लोभ या मोह से प्रेरित होगा और उन कर्म का बन्धन उसे भोगना होगा। उस का सन्यास भी सांसारिक और बंधन कारी होगा। घर और संसार के झगड़ो से दुखी हो कर सन्यास लेने वाला कभी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता।
भगवान श्री कृष्ण भी यही कहते कि कर्म एक निर्धारित प्रक्रिया है, इस के अतिरिक्त जगत में जो कुछ भी किया जाता है, जिस में जगत व्यस्त है, वह सब मोह, माया, लोभ, कामना के अंतर्गत होता है और जीव के लिये बन्धन कारी होता है।
पिछले श्लोक में भगवान कृष्ण अकर्म से कर्म को बेहतर बताते है एवम नियत काम करने को कहते है, जिस में हम ने कर्तव्य, विहित एवम नियत कर्म भी समझे। कुछ कर्म निषिद्ध भी बताए गए। अतः मनुष्य के चार अवस्था को ध्यान दे तो प्रथम अवस्था ब्रह्मचर्य की है जो आप को जीवन निर्वाह हेतु सक्षम होने के लिये प्रयाप्त शिक्षा एवम समर्थ बनने को प्रेरित करती है। ज्ञान जीवन निर्वाह के ज्ञान जैसे आज कल स्कूल कॉलेज में दिया जाता है एवम मन एवम बुद्धि विकास का ज्ञान जो योग, मनन एवम बौद्धिक विकास की पुस्तक एवम सत्संग में मिलता है। ज्ञान हमारी शारीरिक क्षमता का भी विकास है। जीवन निर्वाह का ज्ञान होने के बाद जब भी कर्म योद्धा हो कर आप सामाजिक जीवन मे कर्म शुरू करते है तो भगवान कृष्ण कहते है।
प्रत्येक कर्म कर्त्ता के लिये बन्धन उत्पन्न नहीं करता। केवल अविवेकपूर्वक किये हुये कर्म ही मन में वासनाओं की वृद्धि करके परिच्छिन्न अहंकार और अपरिच्छिन्न आत्मस्वरूप के मध्य एक अभेद्य दीवार खड़ी कर देते हैं। वासनाओं से पूर्ण अन्तकरण वाले व्यक्ति में दिव्यत्व का कोई प्रकाश नहीं दिखाई देता।
पारम्परिक अर्थानुसार यज्ञ के अतिरिक्त जो अन्य कर्म हैं वे वासनाओं को उत्पन्न कर व्यक्ति के विकास में अवरोधक बन जाते हैं।यहां यज्ञ शब्द का अर्थ है वे सब कर्म जिन्हें मनुष्य निस्वार्थ भाव एवं समर्पण की भावना से विश्व के कल्याण के लिये करता है। ऐसे कर्म व्यक्ति के पतन में नहीं वरन् उत्थान में ही सहायक होते हैं। यज्ञ शब्द का उपर्युक्त अर्थ समझ लेने पर आगे के श्लोक और अधिक स्पष्ट होंगे और उनमें उपदिष्ट ज्ञान सम्पूर्ण विश्व के उपयुक्त होगा।जब समाज के लोग आगे आकर परस्पर सहयोग एवं समर्पण की भावना से कर्म करेंगे केवल तभी वह समाज दारिद्रय और दुखों के बन्धनों से मुक्त हो सकता है यह एक ऐतिहासिक सत्य है। ऐसे कर्मों का सम्पादन अनासक्ति के होने से ही संभव होगा। अर्जुन में यह दोष आ गया था कि वह विरुद्ध पक्ष के व्यक्तियों के साथ अत्यन्त आसक्त हो गया और परिणामस्वरूप परिस्थिति को ठीक समझ नहीं पाया इसलिये समसामयिक कर्तव्य का त्याग कर कर्मक्षेत्र से पलायन करने की उसकी प्रवृत्ति हो गयी।
गीता के अनुसार कर्तव्यमात्र का नाम यज्ञ है। यज्ञ शब्द के अन्तर्गत यज्ञ दान तप होम तीर्थ सेवन व्रत वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक व्यावहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ आ जाती हैं। कर्तव्य मान कर किये जाने वाले व्यापार नौकरी अध्ययन अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मों का नाम भी यज्ञ है। दूसरों को सुख पहुँचाने तथा उन का हित करने के लिये जो भी कर्म किये जाते हैं वे सभी यज्ञार्थ कर्म हैं। यज्ञार्थ कर्म करने से आसक्ति बहुत जल्दी मिट जाती है तथा कर्मयोगी के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं, अर्थात् वे कर्म स्वयं तो बन्धनकारक होते नहीं प्रत्युत पूर्वसंचित कर्मसमूह को भी समाप्त कर देते हैं। वास्तव में मनुष्य की स्थिति उस के उद्दश्य के अनुसार होती है क्रिया के अनुसार नहीं। जैसे व्यापारी का प्रधान उद्देश्य धन कमाना रहता है अतः वास्तव में उस की स्थिति धन में ही रहती है और दुकान बंद करते ही उस की वृत्ति धन की तरफ चली जाती है। ऐसे ही यज्ञार्थ कर्म करते समय कर्मयोगी की स्थिति अपने उद्देश्य परमात्मा में ही रहती है और कर्म समाप्त करते ही उस की वृत्ति परमात्मा की तरफ चली जाती है। सभी वर्णों के लिये अलग अलग कर्म हैं। एक वर्ण के लिये कोई कर्म स्वधर्म है तो वही दूसरे वर्णों के लिये (विहित न होनेसे) परधर्म अर्थात् अन्यत्र कर्म हो जाता है।
सत्सङ्ग सभा आदि में कोई व्यक्ति मन में इस भाव को रखते हुए प्रश्न करता है कि वक्ता और श्रोतागण मुझे अच्छा जानकार समझेंगे तथा उन पर मेरा अच्छा असर पड़ेगा तो यह अन्यत्र कर्म ही है यज्ञार्थ कर्म नहीं।तात्पर्य यह है कि साधक कर्म तो करे पर उसमें स्वार्थ कामना आदि का भाव नहीं रहना चाहिये। कर्म का निषेध नहीं है प्रत्युत सकामभाव का निषेध है।साधक को भोग और ऐश्वर्य बुद्धि से कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसी बुद्धि में भोगसक्ति और कामना रहती है जिस से कर्मयोग का आचरण नहीं हो पाता। निर्वाहबुद्धि से कर्म करने पर भी जीने की कामना बनी रहती है। अतः निर्वाहबुद्धि भी त्याज्य है। साधक को केवल साधनबुद्धि से ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये। सब से उत्तम साधक तो वह है जो अपनी मुक्ति के लिये भी कोई कर्म न करके केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करता है। कारण कि अपना हित दूसरों के लिये कर्म करने से होता है अपने लिये कर्म करने से नहीं। दूसरों के हित में ही अपना हित है। दूसरों के हित से अपना हित अलग अलग मानना ही गलती है। इसलिये लौकिक तथा शास्त्रीय जो कर्म किये जायँ वे सब के सब केवल लोकहितार्थ होने चाहिये। अपने सुख के लिये किया गया कर्म तो बन्धनकारक है ही अपने व्यक्तिगत हित के लिये किया गया कर्म भी बन्धनकारक है। केवल अपने हित की तरफ दृष्टि रखने से व्यक्तित्व बना रहता है। इसलिये और तो क्या जप चिन्तन ध्यान समाधि भी केवल लोकहित के लिये ही करे। तात्पर्य यह कि स्थूल सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों से होनेवाली मात्र क्रिया संसार के लिये ही हो अपने लिये नहीं। कर्म संसार के लिए है और संसार से सम्बन्धविच्छेद होने पर परमात्मा के साथ योग अपने लिये है।
व्यवहारिक भाषा मे नियत कर्म जिस से आप अपना जीवन जी रहे है अथवा मोह एवम लोभ के साथ सामाजिक जीवन जी रहे है जिस में पद, प्रसंशा या सम्मान की लालसा हो या फिर निषिद्ध कामो को कर रहे हो तो आप अपने कर्मो के बंधन में कार्य करते है जैसे हम समाज मे अपनी व्यक्तिगत दिनचर्या में देखते है और जो कार्य बिना आसक्ति भाव से जनहित में कर रहे है वो यज्ञ स्वरूप है क्योंकि उन के फल की आशा नहीं। एक भिखारी को दान देते समय आप को आप के त्याग, दया, आत्मसंतुष्टि के भाव को न लाते हुए भगवान का कार्य मान कर करते है तो आप यज्ञ करते है और उस कर्म के बंधन से मुक्त है।
जीवन निर्वाह के नियमित कर्म के अतिरिक्त यज्ञ की करना चाहिए जिस से आसक्ति, मोह, लोभ एवम कर्ता भाव से मुक्त हो, धीरे धीरे जीवन निर्वाह भी आसक्ति भाव से समाप्त हो कर परमात्मा की समर्पित होगा और जीव अपने जन्म मरण के चक्र से मुक्त होगा। आप यह मत भूले की जन्म से पहले आप नही थे और मृत्यु के बाद आप नही होंगे। आप के कर्म ही आप के संस्कार बनते है, आप की लालसा ही आप को पुनः जन्म देती है अतः कर्मयोग ही आप का प्रयास है जो मुक्ति की ओर ले जाता है।
पूर्वश्लोक में भगवान् ने कहा कि यज्ञ (कर्तव्यकर्म) के अतिरिक्त कर्म बन्धनकारक होते हैं। अतः इस बन्धनसे मुक्त होनेके लिये कर्मोंका स्वरूप से त्याग न कर के कर्तव्य बुद्धि से कर्म करना आवश्यक है। अब कर्मों की आवश्यक कर्तव्यता को पुष्ट करने के लिये और भी हेतु बताते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। 3.09 ।।
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