।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 03.08 ।।
।। अध्याय 03. 08 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 3.8॥
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥
“niyataḿ kuru karma tvaḿ,
karma jyāyo hy akarmaṇaḥ..।
śarīra-yātrāpi ca te na,
prasiddhyed akarmaṇaḥ”..।।
भावार्थ :
हे अर्जुन! तू अपना नियत कर्तव्य-कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म न करने से तो तेरी यह जीवन-यात्रा भी सफ़ल नही हो सकती है॥ ८॥
Meaning:
You should perform prescribed actions, since action is superior to inaction. Also, even the journey of the body cannot be accomplished through inaction.
Explanation:
In the two slōkās, 47 and 48 of the 2nd chapter, karma yōga has been summarised. In the 3rd chapter Krishna is going to elaborately discuss from verse no.8 up to verse no.20. i.e.
karmaṇye vādhikāras te, mā phaleṣu kadācana ।
mā karma-phala-hetur bhūr, mā te sańgo ‘stv akarmaṇi ।। 2.47 ।।
yoga-sthaḥ kuru karmāṇi, sańgaḿ tyaktvā dhanañjaya ।
siddhy-asiddhyoḥ samo bhūtvā, samatvaḿ yoga ucyate ।। 2.48 ।।
Having covered the topic of why one should perform action, Shri Krishna now speaks about what kind of action should be performed. He urges Arjuna to only perform “niyatam” or prescribed actions. What does this term mean?
Karma yoga consists of two portions; one is karma and another is yoga.
The word yoga means proper attitude; towards what. towards the action and not only the action; towards the result of action also; that is more important; so proper attitude towards action and result is called yogaḥ.
Now we will take each part, each segment for study. What is proper action?
The scriptures divide action into three varieties; satvikam karma, rājasam karma, and tāmasam karma. Satvikam karma is the best action; which is ideal part of karma yoga. Satvic karma is an action in which the beneficiaries are maximum; we call it niṣkama karma; self-less activity. and rājasam karma is only mediocre, secondary; rajasic karma is selfish activity in which the beneficiaries are minimum; Rajasic karma is madhyama karma; selfish action is secondary and tamasam karma is the worst. tāmasa karma, is harmful karma, for own benefit.
Selfless action is uttamam; selfish action is madhyamam; and harmful action is adhama; a karma yogi’s life should be such that it abounds in satvic karma and it has got minimum of tāmasic karma or better to be Nil.
Scriptures classify actions into several categories. Let us look at the two main ones: “niyatam” or prescribed actions, and “nishiddha” or forbidden actions . Prescribed actions are those that are enjoined in the Vedas. But in today’s context, we can interpret this as one’s duties. These include performing one’s svadharma, serving one’s parents, family, and nation etc. Forbidden actions are the “thou shalt not” actions such as killing another being, stealing, cheating and so on. So here, Shri Krishna urges Arjuna to perform prescribed actions, but without any trace of attachment to the action or to the fruit.
The classification of work as niyatam and nishiddh shall depend on Varna, aasharam and performance of duty. Arjun was standing in war ground and killing enemies to win the war his niyam duty as against the general principle Killing someone is Nishiddh work.
Now one may say “I like to watch a movie and enjoy a good meal. Those do not seem like prescribed duties. How should we think about those?”. Shri Krishna does not advocate repressing anything, as we saw earlier. But we should to define boundaries to any action, as well as minimize attachment or selfish motive. The best way to do so is to share.
If you want to watch TV, watch it collectively with your family and friends. Or share your meal with them. Doing so will ensure that our previously self-serving actions lose any trace of selfishness or ego. The best example here is a mom that always cooks what the family members like, and puts her preferences on a lower priority.
In addition, Shri Krishna reiterates the notion that one should never resort to inaction, He says that if one does not act, one cannot even perform maintenance of one’s body.
Until the mind and intellect reach a state where they are absorbed in God-consciousness, physical work performed in an attitude of duty is very beneficial for one’s internal purification. Hence, the Vedas prescribe duties for humans, to help them discipline their mind and senses. In fact, laziness is described as one of the biggest pitfalls on the spiritual path.
Laziness is the greatest enemy of humans, and is especially pernicious since it resides in their own body. Work is their most trustworthy friend, and is a guarantee against downfall.
Our body is an important tool in our spiritual journey. Nowhere in the Gita has Shri Krishna asked us to neglect it. In fact, here he is saying that one should absolutely perform action to maintain the body, including bathing it, feeding it, keeping it strong and fit, and going to the doctor if it is not working properly. It is an extremely practical teaching.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अध्याय 2 में सांख्य योग का वर्णन करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने दो श्लोक 47 एवम 48 में कर्मयोग का सार गम्भीर कहे थे। कर्म और योग दोनो की युक्ति एवम मनुष्य द्वारा योग में स्थित हो कर, कर्म किस प्रकार करना चाहिए, यह इस अध्याय के श्लोक 8 से 20 में विस्तृत रूप में बतलाते है।
कमर्ण्येवाधकारस मा फलेषुकदाचन ।
मा कमर्फलहेतुभूर्म ते सङ्गोऽस्त्वकम । २.४७ ॥
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
अनासक्त भाव से हमारा तात्पर्य मन, वचन, एवम कर्म से हमारी उस कर्म के फल के प्रति या हेतु के प्रति कोई आसक्ति न हो। एक बालक जो कुछ करता है वह अज्ञान से करता है इसलिये यह नही कहा जा सकता कि वह अनासक्त भाव से कार्य कर रहा है। अनासक्त भाव विवेक पूर्ण ज्ञान से किये कर्म को ही कहते है, जिस में कर्म को करना या न करने का निर्णय होता है। इन्द्रियों में कामना का आवेक होता है इसलिये कर्म करना अनिवार्य है। इसलिये भगवान श्री कृष्ण कहते है कि हे अर्जुन! तू अपने नियत कर्म सात्विक भाव से अनासक्त होकर कर। इस से चित्त की शुद्धि भी होगी, जन्म लेने का उद्देश्य भी पूर्ण होगा, इन्द्रियों का कर्म के प्रति आवेक भी शांत होगा और सृष्टि चक्र भी चलता रहेगा। ज्ञानी पुरुष विवेक का सदुपयोग कर के विहित एवम नियत कर्म करते है एवम निषिद्ध कर्मों का त्याग करते है। वे मिथ्याचार या कपट पूर्ण आचरण नही करते। अतः कर्म करते हुए ज्ञान द्वारा विवेक जाग्रत रखते हुए जीवन व्यतीत करना उनलोगों की अपेक्षा कंही अच्छा है, जो आलस्य- प्रमाद में या अविवेकपूर्ण निषिद्ध कर्मों में लगे हुए है।
शास्त्रों में विहित तथा नियत दो प्रकार के कर्मों को करने की आज्ञा दी गयी है। विहित कर्म का तात्पर्य है सामान्यरूप से शास्त्रों में बताया हुआ आज्ञा रूप कर्म जैसे व्रत उपवास उपासना आदि। इन विहित कर्मों को सम्पूर्णरूप से करना एक व्यक्ति के लिये कठिन है। परन्तु निषिद्ध कर्मों का त्याग करना सुगम है। विहित कर्म को न कर सकने में उतना दोष नहीं है जितना निषिद्ध कर्म का त्याग करने में लाभ है जैसे झूठ न बोलना चोरी न करना हिंसा न करना इत्यादि। निषिद्ध कर्मों का त्याग होने से विहित कर्म स्वतः होने लगते हैं। नियतकर्म का तात्पर्य है वर्ण आश्रम स्वभाव एवं परिस्थिति के अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्म जैसे भोजन करना व्यापार करना मकान बनवाना मार्ग भूले हुए व्यक्ति को मार्ग दिखाना आदि।
कर्मयोग की दृष्टि से जो वर्ण धर्मानुकूल शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म प्राप्त हो जाय वह चाहे घोर हो या सौम्य नियत कर्म ही है। यहाँ भगवान् अर्जुन से यह कहते हैं कि क्षत्रिय होने के नाते अपने वर्णधर्म के अनुसार परिस्थिति से प्राप्त युद्ध करना तेरा स्वाभाविक कर्म है। क्षत्रिय के लिये युद्ध रूप हिंसात्मक कर्म घोर दीखते हुए भी वस्तुतः घोर नहीं है प्रत्युत उस के लिये वह नियतकर्म ही है। दूसरे अध्याय में भगवान् ने कहा है कि स्वधर्म की दृष्टि से भी युद्ध करना तेरे लिये नियतकर्म है।
यहां जीवन यात्रा एवम कर्तव्य कर्म भी बोला गया है। जीवन यात्रा जन्म से मृत्यु तक होती है जिस में शिक्षा, धन उपार्जन, गृहस्थ जीवन एवम सामाजिक जीवन भी है। विहित एवम निषिद्ध कर्म समय, स्थान एवम विचारधारा के अनुसार तय होता है, जो एक सामान्य व्यक्ति के निषिद्ध है वो देश की सीमा में खड़े सैनिक के लिए विहित है। जो नियम भारत मे विहित है वो अमेरिका में नही। इस को कौन तय कर सकता है। जीवन यात्रा में कर्म आप के भाव को नही देखता आप जैसा कर्म करेंगे वैसा ही फल प्राप्त होगा। फिर कर्तव्य भी कौन निश्चित करेगा। यदि हम कृष्ण भगवान के जीवन चरित्र को देखे तो उन्होंने विहित या निषिद्ध सभी कार्य किये। फिर भी उन पर कोई आक्षेप नही लगता।
अतएव केवल बाह्य कार्यों के आधार पर कर्तव्य की व्याख्या करना नितान्त असम्भव है।
अमुक कार्य कर्तव्य है तथा अमुक अकर्तव्य– कर्तव्याकर्तव्य का इस प्रकार विभाग-निर्देश नहीं किया जा सकता। परन्तु फिर भी आन्तरिक दृष्टिकोण (subjective side) से कर्तव्य की व्याख्या हो सकती है। यदि किसी कर्म द्वारा हम भगवान् की ओर बढ़ते हैं, तो वह सत् कर्म है और वह हमारा कर्तव्य है; परन्तु जिस कर्म द्वारा हम नीचे गिरते हैं, वह बुरा है; वह हमारा कर्तव्य नहीं। आन्तरिक दृष्टिकोण से देखने पर हमें यह प्रतीत होता है कि कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जो हमें उन्नत बनाते हैं, और दूसरे ऐसे, जो हमें नीचे ले जाते हैं और पशुवत् बना देते हैं। किन्तु विभिन्न व्यक्तियों में कौन-सा कार्य किस तरह का भाव उत्पन्न करेगा, यह निश्चित रूप से बताना असम्भव है। सभी युगों में समस्त सम्प्रदायों और देशों के मनुष्यों द्वारा मान्य यदि कर्तव्य का कोई एक सार्वभौमिक भाव रहा है, तो वह है–“परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीड़नम्।”–अर्थात् परोपकार ही पुण्य है, और दूसरों को दुःख पहुँचाना ही पाप है।
पहले तो हमें जन्म से प्राप्त कर्तव्य को करना चाहिए; और उसे कर चुकने के वाद, समाज-जीवन में हमारे ‘पद’ के अनुसार जो कर्तव्य हो, उसे सम्पन्न करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में किसी न किसी अवस्था में अवस्थित है; उसके लिए पहले उसी अवस्थानुयायी कर्म करना आवश्यक है।
मानव-स्वभाव की एक विशेष कमजोरी यह है कि वह स्वयं अपनी ओर कभी नजर नहीं फेरता। वह तो सोचता है कि मैं भी राजा के सिंहासन पर बैठने के योग्य हूँ। और यदि मान लिया जाय कि वह है भी, तो सब से पहले उसे यह दिखा देना चाहिए कि वह अपने वर्तमान पद का कर्तव्य भलीभाँति कर चुका है। ऐसा होने पर तब उसके सामने उच्चतर कर्तव्य आयेंगे। जब संसार में हम लगन से काम शुरू करते हैं, तो प्रकृति हमें चारों ओर से धक्के देने लगती है और शीघ्र ही हमें इस योग्य बना देती है कि हम अपना वास्तविक पद निर्धारित कर सकें। जो जिस कार्य के उपयुक्त नहीं है, वह दीर्घकाल तक उस पद में रहकर सब को सन्तुष्ट नहीं कर सकता। अतएव प्रकृति हमारे लिए जिस कर्तव्य का विधान करती है, उसका विरोध करना व्यर्थ है। यदि कोई मनुष्य छोटा कार्य करे, तो उसी कारण वह छोटा नहीं कहा जा सकता। कर्तव्य के केवल ऊपरी रूप से ही मनुष्य की उच्चता या नीचता का निर्णय करना उचित नहीं, देखना तो यह चाहिए कि वह अपना कर्तव्य किस भाव से करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में जन्मगत तथा अवस्थागत कर्तव्यों का बारम्बार वर्णन है। जीवन के विभिन्न कर्तव्यों के प्रति मनुष्य का जो मानसिक और नैतिक दृष्टिकोण रहता है, वह अनेक अंशों में उसके जन्म और उसकी अवस्था द्वारा नियमित होता है। इसीलिए अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवं हृदय तथा मन को उन्नत बनानेवाले कार्य करना ही हमारा कर्तव्य है।
कर्तव्यकर्मों से जी चुरानेवाला मनुष्य प्रमाद आलस्य और निद्रा में अपना अमूल्य समय नष्ट कर देगा अथवा शास्त्र निषिद्ध कर्म करेगा जिस से उस का पतन होगा।स्वरूप से कर्मों का त्याग करने की अपेक्षा कर्म करते हुए ही कर्मों से सम्बन्धविच्छेद करना श्रेष्ठ है। कारण कि कामना वासना फलासक्ति पक्षपात आदि ही कर्मों से सम्बध जोड़ देते हैं चाहे मनुष्य कर्म करे अथवा न करे। कामना आदि के त्याग का उद्देश्य रखकर कर्मयोग का आचरण करने से कामना आदि का त्याग बड़ी सुगमतासे हो जाता है।
अध्याय 2 के 47वें श्लोक में कर्म पर अधिकार आसक्ति और कर्ता भाव से करने या न करने तक ही सीमित है, क्योंकि जीव अर्थात आत्मा प्रकृति से बंधा है, किंतु अकर्ता और ब्रह्म का अंश है अतः कर्म अर्थात क्रिया प्रकृति ही जीव को निमित्त बना कर करती है, यदि हम यह ध्यान में रखे तो आगे ज्यादा अच्छे तरीके से गीता का अध्ययन कर सकेंगे।
पीछे के श्लोक में भगवान् ने कर्म किये बिना शरीर निर्वाह भी नहीं होने की बात कही। इस से सिद्ध होता है कि कर्म करना बहुत आवश्यक है। परन्तु कर्म करने से तो मनुष्य बँधता है कर्मणा बध्यते जन्तुः तो फिर मनुष्य को बन्धन से छूटने के लिये क्या करना चाहिये इस को भगवान् आगे के श्लोक में बताते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। 3.08 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)