।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 03.06 ।।
।। अध्याय 03. 06 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 3.6॥
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
“karmendriyāṇi saḿyamya,
ya āste manasā smaran..I
indriyārthān vimūḍhātmā,
mithyācāraḥ sa ucyate”..।।
भावार्थ :
जो मनुष्य कर्म-इन्द्रियों को वश में तो करता है किन्तु मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, ऎसा मूर्ख जीव मिथ्याचारी कहलाता है॥ ६॥
Meaning:
One who sits, forcibly restraining his organs of action, yet keeps thinking about objects, that foolish individual is known as a hypocrite.
Explanation:
The second chapter of the Gita informed us that the way to achieve the ultimate spiritual goal is by eliminating our vaasanaas, because they are the source of selfish desires. But this message has the potential to be dangerous if it is misinterpreted.
Attracted by the lure of an ascetic life, people often renounce their work, only to discover later that their renunciation is not accompanied by an equal amount of mental and intellectual withdrawal from the sensual fields. This creates a situation of hypocrisy where one displays an external show of religiosity while internally living a life of ignoble sentiments and base motives. Hence, it is better to face the struggles of the world as a karm yogi, than to lead the life of a false ascetic. Running away from the problems of life by prematurely taking sanyās is not the way forward in the journey of the evolution of the soul.
Under the banner of becoming more spiritual, some people put their bodies through extreme fasting, while some forcibly repress their urges. We see a milder version of this behaviour when individuals are trying to rid themselves of addictions by simply cutting off the supply or going “cold-turkey”.
For example, if one has an addiction to alcohol, one tries not to keep alcohol in the house to avoid temptation. That may work in the short term, but an addiction is not in the body, it is in the mind. It is like any other vasanaa and will come up as a desire when one sees alcohol the next time.
So in this shloka, Shri Krishna issues a strong warning to anyone who thinks that they can advance on the spiritual path through extreme repression of the body or of the mind. He uses a strong term to admonish such individuals by calling them hypocrites.
Let’s connect this shloka to the previous one. It informed us that the body, mind and intellect comprise the three gunaas. These gunaas born of prakriti will always compel us to perform actions. But the current shloka tells us that repression of action will not lead to elimination of desires. We have no choice but to perform action, yet we need clear up our desires and vasanaas.
So the argument that Krishna gives here that the giving up of action is a highly risky affair also. Instead of promoting self-knowledge and mōkṣaḥ, it can become counter productive also. Because a person can fully dedicate himself or herself to the pursuit of Vēdānta only when he has transcended the worldly pursuits or worldly desires.
Shree Krishna makes a general observation with regard to the āśrama and what is that observation. Between the āśramas; sanyāsa āśrama is more difficult. It is not meant for majority of people; it is only meant for minority; Krishna will point out that in the fifth chapter.
And according to Krishna there is no uniform answer to the question because it will depend upon the type of the seeker; so the śāstrā never uniformly point out that Grihasthā āśrama is better. Śāstrā does not uniformly point out that sanyāsa āśrama is better, because it depends upon the type of seeker, just as a doctor cannot prescribe uniform medicine to all people; it will depend upon the type of patient.
Saga Kabir says for such Sanyasi “O Ascetic Yogi, you have donned the ochre robes, but you have ignored dyeing your mind with the color of renunciation. You have grown long locks of hair and smeared ash on your body (as a sign of detachment). But without the internal devotion, the external beard you have sprouted only makes you resemble a goat.”
So what’s the conclusion? We have to find a way to eliminate vasanaas WHILE we are performing actions. That technique is karma yoga.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जो आत्मज्ञानी न होने पर भी शास्त्रविहित कर्म नहीं करता उस का वह कर्म न करना बुरा है यह कहते हैं जो मनुष्य हाथ पैर आदि कर्मेन्द्रियों को रोक कर इन्द्रियों के भोगों को मन से चिन्तन करता रहता है वह विमूढात्मा अर्थात् मोहित अन्तःकरण वाला मिथ्याचारी ढोंगी पापाचारी कहा जाता है।
यहाँ कर्मेन्द्रियाणि पद का अभिप्राय पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक् हस्त पाद उपस्थ और गुदा) से ही नहीं है प्रत्युत इनके साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों (श्रोत्र त्वचा नेत्र रसना और घ्राण) से भी है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों के बिना केवल कर्मेन्द्रियों से कर्म नहीं हो सकते। गीता ज्ञानेन्द्रियों को भी कर्मेन्द्रियाँ ही मानती है। गीता मन की क्रियाओं को भी कर्म मानती है।
मनोविज्ञान की आधुनिक पुस्तकों मे उपर्युक्त वाक्य का सत्यत्व सिद्ध होता है। शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन का स्वभाव है एक विचार को बारंबार दोहराना। इस प्रकार एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ संस्कार (वासना) बन जाता है और फिर जो कोई विचार हमारे मन में उठता है उनका प्रवाह पूर्व निर्मित दिशा में ही होता है। विचारो की दिशा निश्चित हो जाने पर वही मनुष्य का स्वभाव बन जाता है जो उसके प्रत्येक कर्म में व्यक्त होता है। अत निरन्तर विषय चिन्तन से वैषयिक संस्कार मन में गहराई से उत्कीर्ण हो जाते हैं और फिर उन से प्रेरित विवश मनुष्य संसार में इसी प्रकार के कर्म करते हुये देखने को मिलता है।
जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों में रहता है वास्तव में वह अध्यात्म का सच्चा साधक नहीं वरन् जैसा कि यहाँ कहा गया है विमूढ और मिथ्याचारी है। कबीर ने ऐसे मिथ्याचारियो के लिए कहा है।
मन ना रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।
आसन मारि मंदिर में बैठै ब्रह्म-छाँड़ि पूजन लागे पथरा।
कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।
जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले काम जराय जोगी होय गैले हिजरा।
मथवा मुँड़ाय जोगी कपड़ा रँगौले गीता बाँच के होय गैले लबरा।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा॥
आसक्ति त्याग न तो इन्द्रियों का दमन है, न ही शमन। जब आलस्य एवम निद्रा को त्याग कर कर्मठ भाव से कर्म करते हुए, निष्काम भाव को मनुष्य प्राप्त करता है तो ही वह कर्मयोगी कहलाता है। अतः बाह्य आचरण या आवरण मनुष्य को योगी नही बनाता। इसलिये लोग जब करने योग्य क्रियाओ को छोड़ कर इन्द्रियों को हठ से रोक कर बैठ जाते है और कहने लगते है कि मैं ज्ञानी हूँ, पूर्ण हूँ। वे सब धूर्त एवम मिथ्याचारी ही होते है।
वस्तुतः यह श्लोक कलयुग की भ्रांति “कलौ कर्ता च लिप्यते” अर्थात कलयुग में दोष बुद्धि में नही, कर्म में रहता है, के मिथ्या वचन को प्रतिपादित करता है कि बिना शुध्द मन के कोई भी सदाचारी नही हो सकता। अतः लोग क्या कहेंगे इस भय से कोई कितना भी अच्छा आचरण करे, मन की मलिनता रहते, वह शुद्ध नही हो सकता।
व्यवहार में ऊपर है मीठी बाते करने वाला इंसान बहुत बार मिलते है जिन का वास्तविक उद्देश्य लोभ या स्वार्थ होता है। वो बाते परमार्थ की करता है और उस का मन भटक रहा है कि कौन कितनी दक्षिणा चढ़ा रहा है। मैंने काफी प्रवचनकर्ता या भजन करने वाली मंडली को सजधज कर स्टेज पर आना, सहशर्त प्रवचन के लिए तैयार होना और फिर परमार्थ की बाते करते सुना है। इस के विपरीत, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, रामसुखदासजी या गीता प्रेस के संचालक हनुमान प्रसाद जी जैसे लोगो को पढ़ा और इन का सार्वजनिक जीवन और निजी जीवन एक सा पाया।
क्योंकि मन यदि कर्म या क्रिया से मुक्त नहीं हो सकता तो ज्ञान योग का मार्ग नहीं अपना सकते एवम संयासी बन कर भटकने के अतिरिक्त कुछ नही मिलता, मन हमेशा प्रकृति के अधीन विभिन्न वासनाओ में फस कर रह जाता है। इस से बेहतर है कि कर्म करे और धीरे धीरे निष्काम कर्म की ओर बढ़ कर मुक्त हो।
पहले भी पढा था कि मन, बुद्धि एवम शरीर पर प्रकृति का प्रथम अधिकार है जिस का संचालन वो माया से करती है। जीव अहम एवम मोह में रहता है और प्रकृति चलती रहती है। प्रकृति से मुक्त होने के मन, बुद्धि को ही मजबूत बनाना पड़ता है, इस लिए प्रकृति से प्रेरित सभी काम करते हुये, निष्काम, निःद्वन्द, बिना फल की आशा एवम हेतु के भाव को जगाना पड़ता है। इस लिये संतुष्टि का भाव पैदा किया जाता है। फिर सभी काम समय एवम स्थान के अनुसार कर्तव्य भाव से करते हुए अहम को परम तत्व में मिलाना है। इसलिये कर्मयोग सामान्य व्यक्ति के एक सरल मार्ग है। गीता भक्ति मार्ग से ज्यादा कर्म योग पर ध्यान देती है क्योंकि कर्मयोगी प्रकृति के रहस्यों को को खोज कर कार्य करता है। वो प्रकृति के हर कार्य का आनंद लेता है किंतु उस से निर्लिप्त रहता है।
यह बात याद रखिये जो आप छोड़ते है वो ही आप के मन में स्थायी होती है कि यह बात छोड़ी हुई है। जो मन मे स्थायी है वो कभी भी और कंही भी पुनः प्रकट होगी। अतः कर्मयोगी किसी को छोड़ता नहीं है उस को निष्काम भाव से करते हुए परमात्मा को समर्पित करता है, वो उस का कर्ता नही बनता इसलिये निर्लिप्त भी है और मन से मुक्त भी।
सांख्य योगी होना सरल नहीं है क्योंकि सांख्य योगी की विषयों के प्रति दोष दृष्टि होती है, विषय इंद्रियों से देखे, सुने, स्पर्श, सूंघे या चखे जाते है क्योंकि प्रकृति में जीवन है तो उस के नियम का पालन करना ही होगा। सांख्य योगी में अपनी शक्तियों को उच्च स्तर तक ले जाने की तितिक्षा होती है, अभाव और कष्ट सहने की क्षमता होती है, वह सुख, दुख, मान – अपमान में विचलित नहीं होता। उसे कोई आदत या आवश्यकता नहीं होती, जो भी परिस्थिति हो, स्थान, समय या वस्तु उसे विचलित नहीं कर सकती एवम उस की श्रद्धा एकनिष्ठ और मुमुक्षु की भांति होती है। अतः सांख्य योग मार्ग प्रत्येक मनुष्य के अपनाने योग्य मार्ग नही है। प्रकृति सांख्य योगी को पथ भ्रष्ट करती रहती है। महर्षि विश्वामित्र तक मेनका के आकर्षण से अपने को नही बचा पाए।
चौथे श्लोकमें भगवान् ने कर्मयोग और सांख्ययोग दोनों की दृष्टि से कर्मों का त्याग अनावश्यक बताया। फिर पाँचवें श्लोक में कहा कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। छठे श्लोक में हठपूर्वक इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर अपने को क्रियारहित मान लेनेवाले का आचरण मिथ्या बताया। इससे सिद्ध हुआ कि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेमात्रसे उनका वास्तविक त्याग नहीं होता। अतः आगे के श्लोक में भगवान् वास्तविक त्यागकी पहचान बताते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। 03.06 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)