।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 03.05 ।।
।। अध्याय 03. 05 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 3.5॥
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
“na hi kaścit kṣaṇam api,
jātu tiṣṭhaty akarma-kṛt..I
kāryate hy avaśaḥ karma,
sarvaḥ prakṛti-jair guṇaiḥ”..।।
भावार्थ :
कोई भी मनुष्य किसी भी समय में क्षण-मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करता है॥ ५॥
Meaning:
For no one can stay without performing action, even for a moment. All beings, helplessly, are compelled to act by the gunaas born of prakriti.
Explanation:
So Krishna’s main aim is to point that by giving up duties or actions, you cannot get mōkṣaḥ. So the first argument is because sanyāsa does not guarantee liberation. Now the second argument He gives in the slōka is that it is impossible to give up all action. A person cannot remain action-less, even for a moment. You may give up physical actions, the more you give up physical action, and the mind becomes proportionately doubly active.
Imagine a huge forest untouched by man, like we see on the National Geographic channel. If we look at it superficially, we could conclude that there is nothing going on there. But if we pay close attention, we will begin to hear the chirping of the crickets, the babble of a brook, the fluttering of wings and so on.
Watching all the actions going on in the forest reminds us of a simple fact. It is the tendency of nature or “prakriti” to act continuously. It never stays action-less even for a moment. Even a rock that seems action-less is undergoing geological change that is visible only after thousands or millions of years.
Now let us shift our attention to the human body. It too, is constructed by nature. It is composed of substances derived from the food we eat, the water we drink and the air we breathe, all products of nature. If our body is made of components born out of nature, wouldn’t it also follow the tendency of nature towards continuous action?
Kabirdas or somebody said, in the tongue the nāmas of the Lord rolls, and in the hand, the mala rolls and the mind rolls all over the world. All are rolling. Tongue rolls, hand rolls, mind also rolls.
The best thing is to distribute some pamphlet at the beginning of the lecture and get it back at the end of the lecture; you will find it would have gone through all the forms; ships, birds; boat; some would have teared into hundred pieces; and if you are sitting on a lawn, you would be plucking the grass, and eating it too! Last janma would have been a goat or cow; so the old vāsana is showing up.
Therefore, Shri Krishna informs us that all beings have no choice but to act, because all beings are made up of prakriti. He explains that prakriti is nothing but three gunaas – energies or forces that make up this entire universe. These three energies are: rajas which causes movement, tamas which causes inertia, and sattva which maintains harmony between movement and inertia. This topic is taken up in great detail in later chapters.
In this way, Shri Krishna addresses the question raised earlier: “Why can’t I retire to the forest and cease all action?” We cannot, because the gunaas that we are made up are born out of nature, and nature never ceases to act continuously.
If this answer still does not satisfy us, let’s try to sit still for three hours. Even if we somehow manage to physically sit still, our minds will be racing with thoughts. And even the act of thinking is an action.
।। हिंदी समीक्षा ।।
मोक्ष जीवन का अंतिम लक्ष्य है और इस से मुक्ति तभी मिल सकती है जब कर्म के बंधन से मुक्ति मिले। हम ने दो निष्ठाएं पढ़ी जिस में सांख्य कहता है कि कर्म ही न करो तो बन्धन भी नही होगा, किन्तु भगवान श्री कृष्ण कहते है कि कर्म तो जीवन का लक्षण है, बिना कर्म किये कोई भी प्राणी जीवित ही नही रह सकता। कर्म नैसर्गिक, नैमित्तिक और काम्य होते है। नैष्काम्य होने के उपाय यही है कि कर्म के फल की आसक्ति का त्याग करो।
सांख्य योगी भी यही करता है, जीवित रहने के लिये सांस लेने जैसा कम से कम कर्म तो सभी को करना ही पड़ता है और उसे मुक्ति कर्म त्याग से नही ज्ञान से मिलती है, यदि कर्म त्याग से मुक्ति मिलती तो पत्थर सब से पहले मुक्त होता।
शरीर प्रकृति से बना है, प्रकृति नित्य गतिशील है, अतः हर क्षण परिवर्तन होता है। हर जीव इसी परिवर्तन का सहभागी है। यह गति ही बताती है जीव कर्म के बिना नही रह सकता। आप सोते है, खाते है या घूमते है कर्म तो कर ही रहे है।
कर्म से ज्ञान की उत्पत्ति होती है और कर्म से प्राकृतिक सुख भी मिलता है, हम सुख को खोजते है जो क्षणिक है ज्ञान जो मिला उसे भूल जाते है, इसलिए बार बार उसी सुख के पीछे पड़ जाते है। जैसे कुछ भोजन करने से आनन्द, शरीर को शक्ति एवम स्वाद भी मिलता है यह ज्ञान है और किन्तु हम शरीर की शक्ति, स्वाद, आनन्द के लिए इस ज्ञान को भूल कर भोजन में सुख को खोजते है जो क्षणिक होने से अंत मे दुख में परिवर्तित होता है।
ज्ञानी अपने ज्ञान को बढ़ाता है और कंही रुकता नही। धीरे धीरे उसे पता चलने लगता है कि सुख कर्म के फल में नही है, सुख निष्काम कर्म में है। वो अपने कर्मो के फलों को त्याग कर अपनी सम्पूर्ण शक्ति निष्काम कर्म में लगा देता है और निर्लिप्त और निःद्वन्द हो कर अपनी इच्छाओं को वश में कर के परमात्मा में मिलाता है। ज्ञान योग में योग इस शरीर की परिवर्तन शीलता को जानता है इसलिये उस प्रयास कर्मयोगी से पहले शुरू हो जाता है। प्रकृति का प्रथम अधिकार इस शरीर पर है अतः बुद्धि, मन, एवम शरीर को माया से मोहित करवा कर प्रकृति अपना कार्य करती है।
प्रकृति के सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के प्रभाव में मनुष्य सदैव रहता है। क्षणमात्र भी पूर्णरूप से निष्क्रिय होकर वह नहीं रह सकता। निष्क्रियता जड़ पदार्थ का धर्म है। शरीर से कोई कर्म न करने पर भी हम मन और बुद्धि से क्रियाशील रहते ही हैं। विचार क्रिया केवल निद्रावस्था में लीन हो जाती है। जब तक हम इन गुणों के प्रभाव में रहते हैं तब तक कर्म करने के लिए हम विवश होते हैं। प्रकृति के यह तीनों गुण मनुष्य को किसी भी कार्य के प्रवृत्त करते है और वह पूर्व जन्म के संस्कार एवम कर्मबन्धन के कारण कर्म करने को बाध्य हो जाता है।
मन और इंद्रियों से प्रकृति का वेग इतना अधिक होता है कि कोई भी एक इच्छा, लोभ, लालसा या राग पूरे नियंत्रण को नष्ट करते हुए, जीव को अपने साथ ले जाती है। विश्वामित्र जैसे ज्ञानी पुरुष मेनका के सामने प्रकृति के प्रवृत्त गुणों के समक्ष टिक न सके और बाध्य हो कर तप भंग कर बैठे।
इसलिए कर्म का सर्वथा त्याग करना प्रकृति के नियम के विरुद्ध होने के कारण असम्भव है। शारीरिक कर्म न करने पर भी मनुष्य व्यर्थ के विचारों में मन की शक्ति को गँवाता है। अत गीता का उपदेश है कि मनुष्य शरीर से तो कर्म करे परन्तु समर्पण की भावना से इससे शक्ति के अपव्यय से बचाव होने के साथ साथ उस के व्यक्तित्व का भी विकास होता है।आत्मस्वरूप को नहीं जानने वाले पुरुष के लिए कर्तव्य का त्याग उचित नहीं है।
आज के युग मे मनुष्य व्यवसाय, नौकरी या अन्य कोई भी काम करता है। परिवार , समाज और देश बनाता है, अपने जीवन के नियम बना कर उसे धर्म का रूप देता है किंतु प्रकृति के अनुसार जन्म, वृद्धि, क्षय फिर मृत्यु को प्राप्त होता है। यदि इस जीवन मे सुख की खोज प्रकृतिजन्य वस्तु में खोजता है तो मृत्यु के समय आसक्ति रह जाती है और अपने कर्मो के फल के पुनः जन्म लेता है। यह आसक्ति का ज्ञान होने से आसक्ति छूटती है फिर ही वो निष्काम होगा। अतः कर्मयोगी कर्म से नही भागता, वह नैष्काम्य हो कर कर्म करता हुआ सृष्टि की रचना का सहभागी होता है जिस का विवरण हम अठाहरवे अध्याय में पढ़ेंगे।
भगवान श्री कृष्ण गीता के माध्यम से कर्म की अनिवार्यता एवम आवश्यकता को सामने रख कर ऐसी युक्ति का वर्णन कर रहे है जो पूर्णतः व्यवहारिक एवम मोक्ष का मार्ग है। हम इसे ही समझने की चेष्टा करते है।
कर्म से मुक्ति नही हो सकती, मुक्ति कर्म के आसक्ति से होती है, कर्म के साथ जुड़े स्वार्थ से हो सकती है, कर्म से जुड़े सुख की इच्छा से हो सकती है। अतः सेवा भाव से कर्म ही कर्तव्य का पालन करवाता है।
इस लिए कर्मो को तीन भाग में बांट दिया जिस का विवरण आगे विस्तार से पढ़ेगे। यह तीन भाग सत, रज एवम तम है। कर्मफल की आसक्ति, मोह, लोभ, सुख और स्वार्थ से यह तीन गुण जाने जाते है। दुसरो को सेवा भाव से किये कर्म सत, स्वयं के उत्थान के लिए तो रज, औऱ स्वयम या दूसरों को हानि देने के लिए किए तो तम।
इस श्लोकमें यह कहा गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता। इसपर यह शंका हो सकती है कि मनुष्य इन्द्रियोंकी क्रियाओंको हठपूर्वक रोककर भी तो अपनेको अक्रिय मान सकता है। इसका समाधान करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।। 3.05।।
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