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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  03.04 ।। Additional II

।। अध्याय    03. 04 ।। विशेष II  

।। ज्ञान योग एवम कर्मयोग ।। विशेष 3.04 ।।

परमात्मा ने हिरण्यगर्भ अर्थात ब्रह्मा को सृष्टि के आरंभ में संसार की रचना का आदेश दिया तो ब्रह्मा में मरीचि आदि सात मानस पुत्रो को उत्पन्न किया। इन्होंने सृष्टि का अच्छे से आरम्भ करने के लिये योग अर्थात कर्ममय प्रवृति मार्ग का अवलम्बन किया। तद्पश्चात ब्रह्मा ने सनत्कुमार और कपिल प्रभृति दूसरे सात पुत्रो उत्पन्न किया जिन्होंने निवृति अर्थात सांख्य का अवलम्बन किया। ब्रह्मा ने तभी दोनो मार्गो की उत्पत्ति बतला कर आगे स्पष्ट किया कि दोनों मार्ग मोक्ष दृष्टि से तुल्यबल अर्थात परमेश्वर प्राप्ति है लिये स्वतंत्र एवम भिन्न भिन्न है।

यह स्पष्ट के सृष्टि की रचना परब्रह्म की  कल्पना है जिस में ब्रह्मा का मूल योगदान है। अतः यहाँ की हर वस्तु, विचार एवम क्रिया परब्रह्म का ही अंश है इसलिये सभी को उसी में मिलना है। मनुष्य जन्म का भी यही अंतिम लक्ष्य है कि किसी भी मार्ग से चले, उसे मुक्ति ही प्राप्त करने का प्रयास या मार्ग पकड़ना होगा।

क्योंकि ब्रह्म के संकल्प के विकल्प के कारण इस सृष्टि की रचना हुई। अतः सृष्टि ब्रह्मा द्वारा मानसिक रचना है जिस का संचालन भी ब्रह्म अपनी रचित प्रकृति और महामाया से स्वतंत्र रूप से नियम से आधारित करता है। इसलिए जीव प्रकृति के त्रिगुणो से मोहित हो कर यह अज्ञान में जीता है कि वह ही कर्ता और भोक्ता है। इसलिए कर्म के फलों को संचित करता और भोगता है और जन्म – मरण के दुखो को विभिन्न योनियों में भोगता है। अतः मुक्ति या मोक्ष ही जीव के अज्ञान का निवारण और उद्देश्य होता है।

प्रवृति मार्ग से मोक्ष की प्राप्ति भी हो और सृष्टि क्रम चलता रहे, इसलिये ब्रह्मा जी ने यज्ञ चक्र को उत्पन्न किया और देवताओं को इसे जारी रखने को कहा। यज्ञ चक्र – जन्म -विकास – क्षय – मृत्यु का चक्कर है जो कर्म से युक्त है।

प्रवृति मार्ग में कर्म करते हुए आसक्ति का त्याग करना है जबकि निवृति मार्ग में इन्द्रियों को कर्म से विमुक्त करते हुए, कर्मो का त्याग करना है। दोनो मार्ग स्वतंत्र है। इसलिये यदि कुछ टीकाकार यह मानते है कि कर्मयोग चित्तशुद्धि का साधन है और उस के बाद जीव को निवृति मार्ग को ही स्वीकार करना पड़ता है, गलत है। कर्म योगी कभी भी कर्म से विमुक्त नही होता, वह अपने कर्तव्य कर्म को नियत कर्म अनासक्त भाव से लोकसंग्रह के लिये करता है जिस से सृष्टि यज्ञ चक्र चलता रहे।

सांख्य योगी अपने जीव स्वरूप को पहचान कर अपना सम्बन्ध परमब्रह्म से जोड़ता है और अपने प्रकृति स्वरूप अनित्य शरीर से कर्म करते हुए भी निसंग रहता है और शेष जीवन व्यतीत कर के मोक्ष को प्राप्त होता है। कर्मयोगी भी समस्त कर्मो को परमात्मा द्वारा किये कर्म मानते हुए अनासक्त भाव से कर्म करता रहता है, एवम कर्म बन्धन से मुक्त रहते हुए मोक्ष को प्राप्त होता है, उस के समस्त कार्य लोकसंग्रह के एवं ब्रह्मा जी यज्ञ चक्र के अनुसार सृष्टि को चलते रहने के होते है। दोनो ही योगी स्वतंत्र मार्ग से एक ही मोक्ष को प्राप्त होते है। अतः किस के कौन का मार्ग उचित है यह उस के ज्ञान, निष्ठा एवम कर्म प्रवृति के वर्ण के अनुसार तय होता है।

अर्जुन सात्विक-राजसी प्रवृति से युक्त क्षत्रिय था। युद्ध भूमि में कर्मो  से निवृति नही हो सकती थी। अतः कर्म की अनिवार्यता को देखते हुए उसे कर्मयोग की शिक्षा दी गई जिस से वह कर्म भी करे किन्तु उस की प्रवृति चित्त शुद्धि की बनी रहे जिस से वह कर्म फल के बंधन में न फसे। अर्जुन का प्रश्न था जब दोनों ही मार्ग मोक्ष प्राप्ति के मार्ग है तो उस के लिये कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है, वह उसे बताया जाए।

भगवान कहते है कि इन्द्रियों से मन से रोक कर अनासक्त बुद्धि के  द्वारा कर्मेन्द्रियों से कर्म करने की योग्यता अत्यंत विशेष है, इसलिये हर व्यक्ति के लिये संभव नही, अतः अकर्म की स्थिति प्राप्त करना सभी के लिये सम्भव नही। इसलिये अर्जुन तू कर्म ही कर। ज्ञान मार्ग के सन्यासी की अपेक्षा कर्मयोगी की योग्यता अधिक है, इसलिये हे अर्जुन! तू योगी बन और युद्ध करते हुए कर्म कर।

सन्यास मार्ग एवम कर्म मार्ग दोनो ही स्वतंत्र एवम श्रेष्ठ है, इसलिये ब्राह्मण आदि श्रोत ग्रंथो एवम उपनिषद में कहा गया कि सभी को इस अग्निहोत्र रूप सत्र को मरण पर्यंत जारी रखना चाहिये एवम वंश के धागे को टूटने न दो और ” ईशावास्यमिदम सर्वम – संसार मे जो कुछ है, उसे परमेश्वर से अधिषिठत करे अर्थात ऐसा समझे कि मेरा कुछ भी नही, उसी  का है, और इस निष्काम बुद्धि से कर्म करते रह कर ही सौ वर्ष अर्थात आयुष्य की मर्यादा के अंत  तक जीने की इच्छा रखे एवम ऐसी ईशावास्य बुद्धि से जो भी कर्म होगा उस का कोई लेप भी नही होगा।

व्यवहारिक दृष्टिकोण से जब स्वयं की क्षमता का ज्ञान न हो, आप को योग्य गुरु या मार्गदर्शक  न मिले एवम निश्चय में प्रह्लाद या ध्रुव से दृढ़ता न हो तो इन्द्रियों संग मन भटकाव उत्पन्न करता रहता है। मन का नियंत्रण सब से कठिन कार्य है क्योंकि मन के भटकाव में अनेक लोग इन दोनों मार्ग में भी आसक्ति रखते हुए आश्रम, प्रवचन एवम भक्ति और कर्मो में उलझे रहते है। इन के व्यावसायिक करण से मुक्त गुरुसे सही मार्ग दर्शन मिल सकता है।

यद्यपि सांख्य योग एवम कर्मयोग में जो भी स्पर्धा या तुलना करते है  , उन्हें भी यह स्पष्ट होना चाहिये कि कमो का सम्पूर्ण त्याग संभव नही। कर्म की आसक्ति का त्याग ही प्रमुख है, फिर कपिल हो या राजा जनक, शंकराचार्य हो या शहीद भगत सिंह, शिवाजी, रानी लक्मीबाई जैसे योद्धा हो या चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ आदि आदि सभी ने कर्म के द्वारा ही मोक्ष के मार्ग को अपनाया।

कर्म जीवन की अनिवार्यता है, कर्म किये बिना ज्ञानी या कर्मयोगी  दोनो पूर्णतः मुक्त नही हो सकते। इसलिए कहा गया है कर्म तो ज्ञानी और मूर्ख दोनो ही करते है किंतु अंतर यदि कुछ है तो उस बुद्धि का है, जिस के अंतर्गत कर्म किया जाता है। यही बात व्यवहारिक जीवन मे कर्म करने के लिये लागू होती है।

गीता में इन दोनों के अतिरिक्त भक्तियोग के भी वर्णन है किंतु भक्ति मार्ग कोई अन्य निष्ठा न हो कर प्रवृति या निवृति का ही मार्ग है।

अब हम अध्याय दो के बाद इन दो निष्ठाओं को समझते हुए यह जानने की चेष्ठा करेंगे कि क्यों कर्मयोग को गीता में ज्ञान योग से अधिक महत्वपूर्ण बताया गया और क्यों अर्जुन को युद्ध करने को कहा। भक्ति मार्ग में भगवान स्वयं क्यों भार उठाने को तैयार है। अतः अब आगे के गहन अध्ययन में आगे बढ़ते है।

भगवान के साथ भक्त के संवाद के स्वरूप में गीता संसार के किसी भी ग्रंथ से उत्तम इसलिये है कि इस मे मानवीय मूल्यों को वास्तविकता के धरातल पर सरल रूप में प्रस्तुत किया है और यह समस्त वेदों एवम उपनिषदों के सार के रूप में प्रस्तुत है।

।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 3.04 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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