।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 71 ।। Additional II
।। अध्याय 02. 71 ।। विशेष II
।। स्थितप्रज्ञ और आदर्श गुरु।। विशेष 2.70 II
स्वामी विवेकानंद के अनुसार स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के कई लोग अनुयायी बन जाते है किंतु स्थितप्रज्ञ का अनुयायी कोई हो ही नही सकता। अधिकांश लोग सांसारिक लालसा, सुख एवम भोग में फसे होने से अपने दुखों का निवारण चाहते है किंतु उन की लालसा, मोह एवम लोभ बना रहता है। यह लोग सुख भी इन्द्रियों के भोग में खोजते है। स्थितप्रज्ञ कभी अनुयायी नही बनाता वो जीवन जीता है जिस को देख कर कोई भी स्थित प्रज्ञ का जीवन जीने की चेष्टा करता है किंतु स्थितप्रज्ञ होने के बाद उस को किसी की आवश्यकता नही, उस की बुद्धि ने इन्द्रियों को वश में कर है परमात्मा में स्थापित कर दिया। अतः उस का कोई अनुयायी हो ही नही सकता। प्रत्येक व्यक्ति या जीव जब तक प्रकृति के आधीन है तब तक ही विभिन्न है अन्यथा नित्य तो अविभाजित, अजन्मा और अकर्ता है। उस का कोई कैसे अनुसरण कर सकता है, जीव तो जब भी मोह, लालसा, लोभ एवम कर्म कारण में कर्ता भाव से किये कार्यो ने मुक्त होता है तो मोक्ष को प्राप्त हो नित्य हो जाता है।
किंतु जैसे ही स्वार्थ, लोभ, राग – द्वेष में डूबे लोगो को किसी भी संत महात्मा का पता चलता है, तो उस से उन के सांसारिक क्लेश मिट जाए, लोग उन्हे पूजने लगते है। उन्हे उन से किसी अलौकिक चमत्कार की आशा रहती है। प्रकृति की माया यही है कि स्थितप्रज्ञ की स्थिति व्यक्तिगत प्रयासों से प्राप्त होती है, कोई सामूहिक तकनीक नही होती। न ही यह अनुवांशिक होती है।
अतः स्थितप्रज्ञ का अनुसरण किया जाता है उस का अनुयायी होना तो सांसारिक ही मोह, लोभ एवम लालसा का ही मायाजाल है। देवी, देवताओं, संत और महात्माओं को पूरा संसार ही किसी न किसी रूप में पूजता है किंतु उन में स्थितप्रज्ञ कितने है? अनुसरण करने का अर्थ है, उस के गुणों को अपनाना और अपने दुर्गुणों को त्यागना, यही कठिन है, यही योग और तप है, इसलिए लोग अनुयायी बनते है, अनुसरण नही करते।
जो साधु- संत आश्रम चलाते है या प्रवचन देते है, उत्तम वचन बोलते है, उन का आचरण भी वैसा हो – आवश्यक नही। कर्मयोगी लोकसंग्रह के लिये काम करता है, लोक कर्म योगी का अनुशरण करते है और अपेक्षाएं रखते है किंतु कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ हो कर न तो कोई अपेक्षा रखता है न ही अनुशरण करता है और समुंदर की भांति उस मे समाहित अपेक्षाएं अपने आप ही शांत हो जाती है।
गीता के दूसरे अध्याय के समापन से पूर्व दो ही श्लोक बाकी है जिन में सन्यास को महत्व मोक्ष प्राप्ति के लिए दिया है और इसे हम आगे पढ़ेंगे।
अभी तक गीता को पढ़ने के बाद आगे के अध्याय अभी तक अध्याय दो में दिए समस्त ज्ञान को विस्तार से समझने के लिए है। यह कुछ ऐसा ही है कि विषय एवम उस के अध्याय बता देने के बाद प्रत्येक विषय पर गंभीर अध्ययन करना। कक्षा में नर्सरी के बाद अब कविताएं, निबन्ध कहानियों एवम गूढ़ विषय समझना। इसलिये अपना शब्द कोश एवम एकाग्रता को अब केंद्रित करें और जुड़े रहे।
गीता मानवीय मूल्यों का सही अर्थों में मूल्यांकन है जो किसी धर्म, जाति विचारधारा या साम्प्रदाय से ऊपर मानवीय जीवन को कैसा होना चाहिये, पर बेवाक अपनी बात कहता है। अंधविश्वास, अंध अनुकरण, मिथ्या विस्वास एवम कर्मकांड छोड़ कर विवेक पूर्वक कर्मयोगी की भांति संसार मे जीना सिखाता है। गीता के अनुगामी चाहे हो न हो, किन्तु संसार के समस्त महान व्यक्तियों में गीता में बताए गुण अवश्य होते है। अनेक विदेशी लेखक जब व्यक्तित्व के उच्चतम विकास की बात करते है तो हिन्दू संस्कृति में वेद-उपनिषद या गीता में बताए गुणों को ही बताते है।
।।हरि ॐ तत सत ।। विशेष 2.70 ।।
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