।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 71 ।।
।। अध्याय 02. 71 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 2.71॥
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥
“vihāya kāmān yaḥ sarvān,
pumāḿś carati niḥspṛhaḥ..I
nirmamo nirahańkāraḥ,
sa śāntim adhigacchati”..II
भावार्थ :
जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है ॥७१॥
Meaning:
That individual who walks having abandoned all desires, cravings, mine-ness and ego, he attains peace.
Explanation:
Earlier in the chapter, Arjuna asked Shri Krishna to point out the signs of a person of steady wisdom. To that end, he asked Shri Krishna to answer the following questions: how does he sit, speak and walk. In this shloka, hence the use of the word “charati” meaning “walks” is used to denote the conclusion of the answer to the question, “how does a person of steady intellect walk?”.
Shri Krishna summarizes the entire topic of the signs of a wise person in four points. He first asks us to give up selfish desires using the technique of karma yoga. Next, he asks us to give up cravings for things we already possess, which is the second point here. And to eliminate even the slightest trace of selfishness, he finally asks us to give up the sense of “I-ness” and “mine-ness” which we had seen in the first chapter, also known as “ahankaara”‘ and “mamataa”. The goal attained by giving up these four things is also repeated here for emphasis: it is everlasting peace.
The moment we harbor a desire, we walk into the trap of greed and anger. Either way, we get trapped. So the path to inner peace does not lie in fulfilling desires, but instead in eliminating them.Firstly, greed for material advancement is a great waste of time. Secondly, it is an endless chase. Most of the quarrels that erupt between people stem from the ego.The feeling of proprietorship is based upon ignorance because the whole world belongs to God. We came empty- handed in the world, and we will go back empty-handed. How then can we think of worldly things as ours?
Krishna continues with the topic of the jñāni’s state of mind. From this it is very clear that any mystic experience is not mokṣaḥ but enjoying a poise mind alone is called mokṣaḥ. And this poised mind is not unknown to you; we do have a poised mind with regard to neighbours’ problem. When we read news paper, we are peaceful and calm while reading all news of accidents, theift etc. But it is for particular time only.
Who Am I? This basic question can not be answered by other person as there is always gap between person who wants to know himself and person who tells for him. When you want to know yourself, it is search inside not outside. Therefore, jeevan mukti means knowing oneself i.e. Braham.
Therefore, what is jīvan muktiḥ? Everyone knows. With regard to neighbors problem, how you are jīvan muktaḥ, extend it to your problem; you are able to have the same state of mind. You are able to look at the neighbours’ problem. Or your problem also on par with that.
As a point of clarification, let us remember that for most of us, abandoning these four things will not happen overnight. We have to follow a disciplined technique to do so, and only after having applied this technique for a period of time will be begin to see the desires, cravings, ego and mine-ness slowly lose their grip.
With this shloka, Shri Krishna concludes the final topic of the second chapter, that of the signs of a wise person. The next shloka will be the last shloka in the second chapter, a wonderful milestone in our journey. This shloka is the seed of the fifth and sixth chapters of the Gita that cover the topic of renunciation of actions.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन ने 54वे श्लोक में प्रश्न पूछा था कि स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है। भावार्थ में अर्जुन स्थित प्रज्ञ के विषय उस के सोचने, किसी बात की प्रतिक्रिया देने एवम व्यवहार के बारे में जानना चाहता था। अतः अब चलना यानी कैसे व्यवहार करता है को हम समझने की चेष्ठा करेगे।
परम शान्ति को प्राप्त पुरुष के मन की स्थिति को प्रथम पंक्ति में बताया गया है कि वह पुरुष सब कामनाओं का तथा विषयों के प्रति स्पृहा लालसा आसक्ति का सर्वथा त्याग कर देता है। दूसरी पंक्ति में ऐसे पुरुष की बुद्धि के भावों को बताते हुए कहते हैं कि उस पुरुष में अहंकार और ममत्व का पूर्ण अभाव होता है। जहाँ अहंकार नहीं होता जैसे निद्रावस्था में वहाँ इच्छा आसक्ति आदि का अनुभव नहीं होता। इस प्रकार प्रथम पंक्ति में अज्ञान के कार्यरूप लक्षणों का निषेध किया गया है और दूसरी पंक्ति में उस कारण का ही निषेध किया गया है जिससे इच्छायें उत्पन्न होती हैं।
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति सर्वप्रथम इन्द्रियों को वश में करता है, द्वितीय वो अपनी समस्त इन्द्रियों को परमात्मा में स्थापित कर के निष्काम एवम निर्लिप्त हो जाता है और तृतीय स्थितप्रज्ञ निःस्पृह एवम अहंकार एवम ममता को त्याग कर अद्वेत हो जाता है।
तृतीय अवस्था अत्यंत उच्च कोटि की अवस्था है जिसे सन्यास भी कहा जाता है।
निःस्पृह में स्थितप्रज्ञ का ध्यान शरीर से हट जाता है, शरीर की भौतिक आवश्यकताओं को निर्वाह तो वो करता है किंतु उस पर कोई ध्यान नही देता। उस का अहम यानि मैं भी परम तत्व में विलीन हो जाता है जिस से वो पूर्ण ब्रह्म की स्थित में होता है और उस मे मोह भी नष्ट हो जाता है।
चित्त शुद्धि है तीन स्वरूप में प्रथम बाह्य शुद्धि है जिसे हम भोजन, संगति, अध्ययन एवम योग द्वारा स्वच्छ रह कर पूजा पाठ और यज्ञ से प्राप्त करते है।, द्वितीय आंतरिक शुद्धि है जिस में इन्द्रियों का शमन, मन की एकाग्रता एवम बुद्धि के विकास एवम मन पर बुद्धि के नियंत्रण करते हुए सत गुणों को प्राप्त करते हुए करते है।
तृतीय शुद्धि परम् अंतर्मन शुद्धि है जिसे गुणातीत हो कर योगी हो कर प्राप्त किया जा सकता है। इसे हम आगे भी पढ़ेंगे।
यह अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को यदि जानना हो तो रामकृष्ण परमहंस या चैतन्य महाप्रभु को पढ़े। उन के जीवन मे स्थित प्रज्ञ कैसे चलता है जान जायेगे। जब व्यक्ति अद्वेत में प्रवेश कर लेता है कर्म कारण के सिंद्धांत से निर्लिप्त होता है। कुछ का मत है कर्म का फल तो मिलता ही है और उस के अनुसार कर्म का निर्धाहरन भी होता है, किन्तु मनुष्य जन्म में बुद्धि द्वारा पूर्व कर्मो के फल के अनुसार कर्म करते हुए स्वयं को निर्लिप्त एवम निष्काम रखता है तो आगे के लिए निर्लिप्त एवम निष्काम भाव के कर्म से मुक्त भी होता है।
व्यवहारिक जीवन मे सन्यास की अवस्था को प्राप्त करना अत्यंत कठिन प्रतीत होता है क्योंकि मोह एवम अहम को तोड़ पाना संभव नही लगता। किन्तु जीव का उद्देश्य पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त करना ही है, और बार बार जन्म मृत्यु के चक्कर द्वारा वो शनैः शनैः पूर्ण ब्रह्म की ओर मुक्त होने के गति शील है। मनुष्य जन्म में यदि विवेक जाग्रत होता है तो यह गति बढ़ जाती है। यहां सब यात्री है सब की मंजिल एक ही है, कोई पैदल, कोई रेंगकर, कोई साइकल पर चल रहा है। स्थित प्रज्ञ अपने मंजिल की और मोटर या हवाई यात्रा से बढ़ कर पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त होता है।
शंकराचार्य जी कहते कि अविद्या की दूसरी शक्ति — विक्षेप , रजोगुण के कारण है । यह शक्ति पुरुष की निरन्तर प्रवृत्ति का कारण होती है । विक्षेप शक्ति, आत्मा में स्थूल से बुद्धि पर्यन्त समस्त असत् ( मिथ्या ) वस्तुओं को आरोपित करती है ।जैसे निद्रा अत्यंत सावधान व्यक्ति को भी अपने वश में कर लेती है ; वैसे ही आवरण – शक्ति अन्तःकरण में विक्षेप-शक्ति को बढ़ाती हुई आत्मा को ढक लेती है ।
आवरण नामवाली बड़ी भारी शक्ति के द्वारा स्वच्छरूप आत्मा के आवरणयुक्त हो जानेपर , पुरुष अज्ञान से अनात्मा देह आदि में ‘ यह मैं ही हूँ ‘, ऐसा मानकर आत्मपन का ज्ञान स्थापित कर बैठता है। जैसे सुषुप्तिकाल में भासनेवाले देह में ‘ यही मैं हूँ , यही मेरी आत्मा है ‘ , ऐसी बुद्धि होती है ; वैसे ही यह पुरुष उस अनात्मा के जन्म-मरण, भूख-प्यास , भय, थकावट आदि धर्मों को आत्मा में आरोपित करते है ।।
अर्जुन एक कर्मयोगी है और हम गीता अध्ययन भी अर्जुन की भांति कर्मयोगी की भांति कर रहे है। अतः सन्यास की अवस्था तो गीता में कम स्थान देते हुए अर्जुन को कृष्ण ने कर्मयोगी का उपदेश दिया जिस के अनुसार समय एवम स्थान के अनुसार निष्काम भाव एवम निर्लिप्त हो कर कार्य करने को कहा गया है।
महाभारत के युद्ध मे कौरव की तरफ खड़े योद्धाओं में भीष्म, द्रोण एवम कर्ण स्थितप्रज्ञ लोग ही है जिन का युद्ध मे खड़ा होना निष्काम एवम निर्लिप्त भाव से था एवम वो सभी समय एवम स्थान के हिसाब से युद्ध करने को तैयार थे उन के मन मे कोई द्वेष या लालसा नही थी।
समाचार पत्र पढ़ते वक्त हम निर्लिप्त भाव में संसार के समाचार पढ़ते है क्योंकि यह सब हमे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित नही करते किंतु यही भाव यदि हमारे अंदर अपनो के समाचार पढ़ते वक्त नहीं रहते। जबकि स्थितप्रज्ञ दोनो स्थिति में समान होता है।
मैं कौन हूं? इस का उत्तर जब तक बाहर किसी व्यक्ति, शास्त्र या स्थान में खोजेंगे तो वह और आप दो रहेंगे। आप ही ब्रह्म का अंश है तो आप के अतिरिक्त किसी की खोज बाहर नहीं अंदर ही होगी। यही जीव मुक्ति है। जब जीव अपने ब्रह्म स्वरूप को जान लेता है तो फिर प्रकृति की किसी भी वस्तु से उसे कोई फर्क नहीं रहता।
कल का अंतिम श्लोक भी सन्यास के बारे में ही है जिस के साथ यह द्वितीय अध्याय समाप्त होगा।
।। हरि ॐ तत सत ।। 2.71 ।।
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