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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  02. 69 ।।

।। अध्याय    02. 69  ।।  

श्रीमद्भगवद्गीता 2.69

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः 

“yā niśā sarva-bhūtānāḿ,

tasyāḿ jāgarti saḿyamī..I

yasyāḿ jāgrati bhūtāni,

sā niśā paśyato muneḥ”..II

भावार्थ : 

जो सभी प्राणीयों के लिये रात्रि के समान है, वह बुद्धि-योग में स्थित मनुष्य के लिये जागने का समय होता है और जो समस्त प्राणीयों के लिये जागने का समय होता है, वह स्थिर-प्रज्ञ मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है ॥६९॥

Meaning:

That which is night for all beings, the balanced individual is awake in that. And that in which all beings are awake, the person of contemplation views as night.

Explanation:

Here we encounter one of the most poetic shlokas in the second chapter, again, having several layers of meaning. Let us try to understand it to the best of our ability.

The idea that Krishna wants to convey is this. That is both a jñāni and ajñāni face the same world. It is not that they are going to face a special world, which is going to be all fine; it is not so; the world is going to be the same. The world cannot be changed.  because Vēdānta does not attempt to change the world; because it is impractical. Vēdānta’s attempt is only to change the way that I look at the world; the way that I look at the people; the way that I respond to situations; and therefore, since a vēdāntin never accomplished any worldly changes, the world is going to be same, corrupt world and with lot of problems, cheating people, lying people, misbehaving people; insulting people, all the people would be the same for a jñāni also.

And more than that even a jñāni has got prārabdha; (luck) because jñāna will not destroy prārabdha. We saw in Tatva bōdha, jñāni destroys his past sañcita karmas, jñāni avoids fresh āgāmi karma, but jñāni also has to face prārabdham, which means ups and downs in life, which are going to continue for a jñāni also.

So therefore what are the two dṛṣṭis? advaita-dṛṣṭi, and dvaita-dṛṣṭi; jñāni has got advaita-dṛṣṭi, which is the essence of the creation. Behind all the varieties of ornaments, gold is one. Behind all the types of furniture, wood is one. Behind all the types of waves, water is one. That non-duality one who does not forget, he has got advaita-dṛṣṭi; he does not see birth and death. Whereas the one got dvaita-dṛṣṭi, he is going to cry of and on. Therefore, ajñāni has got dvaita-dṛṣṭi, jñāni has got Advaita-dṛṣṭi; where? Not in a different place, both of them live in the same world.

There was once a Khade Shree Baba (the standing ascetic), whose disciples claimed he was a very big sage. He had not slept in thirty-five years. He would stand in his room, resting on a hanging rope under his armpits. He used the rope to help him remain in the standing position. On being asked what his motivation was for this destructive kind of austerity, he would quote this verse of the Bhagavad Gita: “What all beings see as night, the enlightened sage sees as day.” So to practice it, he had given up sleeping at night. What a misunderstanding of the verse! From all that standing, his feet and lower legs were swollen, and so he could practically do nothing except stand.

When a lay person and a professional artist enter a museum, both of them find joy in appreciating the works of art. The lay person may get excited about seeing how accurately an artist has painted a portrait. But the professional artist may find joy in more subtler aspects of the very same painting, e.g. what brush strokes were used, which time period was the painting commissioned in, what were the influences and so on – aspects that the lay person is probably totally oblivious to. 

So therefore, in this shloka, Shri Krishna is speaking about two groups of individuals: ones who maintain the state of equanimity and ones who don’t. Both groups have to live in this world of material objects, and both of them have to face ups and downs in life. The key difference in both groups is their vision.

In this verse, an ignorant person is going to be compared to an owl or āntai, which is a type of bird which keeps awake during the night and which is awake to the night-life alone. Therefore ajñāni is compared to an owl by Krishna. And jñāni is compared to a human being. Very careful. Jñāni is compared to a human being; and ajñāni is compared to an owl. Two comparisons. And two more comparisons we should remember. The day time Krishna is going to compare to advaitam. Day time is compared to advaitam, and the night time is compared to dvaitam. So jñāni is equal to human being; ajñāni is equal to owl; day is equal is to advaitam and night is equal to dvaitam. With these four comparisons, we have to understand the slōkā.

For most individuals, the world of material objects is their end goal, they are “awake” to it, and the eternal essence is like night to them. But for the individuals of equanimity, the world of material objects loses importance – that world is like night to them. They are awake to the timeless, changeless eternal essence.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जिन की इन्द्रियाँ और मन वश में नहीं हैं जो भोगों में आसक्त है वे सब परमात्मतत्त्व की तरफ से सोये हुए हैं। जैसे पशु पक्षी आदि दिन भर खाने पीने में लगे रहते हैं ऐसे ही जो मनुष्य रात दिन खाने पीने में सुख आराम में भोगों और संग्रह में धन कमाने में ही लगे हुए हैं उन मनुष्यों की गणना भी पशुपक्षी आदि में ही है। कारण कि परमात्मतत्त्व से विमुख रहने में पशुपक्षी आदि में और मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही परमात्मतत्त्व की तरफ से सोये हुए हैं। हाँ अगर कोई अन्तर है तो वह इतना ही है कि पशुपक्षी आदि में विवेकशक्ति जाग्रत् नहीं है इसलिये वे खानेपीने आदि में ही लगे रहते हैं और मनुष्यों में भगवान् की कृपा से वह विवेक शक्ति जाग्रत है जिससे वह अपना कल्याण कर सकता है प्राणिमात्र की सेवा कर सकता है परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है। अज्ञानी र्मत्य जीव आत्मस्वरूप के प्रति सोया हुआ है जिसके प्रति ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से जागरूक है। जिन सांसारिक विषयों के प्रति अज्ञानी लोग सजग होकर व्यवहार करते हैं और दुख भोगते हैं स्थितप्रज्ञ पुरुष उसे रात्रि अर्थात् अज्ञान की अवस्था ही समझते हैं।

वास्तव में प्रकृति में जो कुछ हम जीवन व्यापन के लिए सीखते है, वह मोक्ष के लिए अज्ञान है। मनुष्य प्रकृति से अपना संबंध कर्ता एवम भोक्ता का जोड़ लेता है। फिर जन्म, पढ़ाई, रोजी रोटी कमाना, शादी करना और बच्चे पैदा करना, समाज और देश में कर्म करते हुए मृत्यु को प्राप्त होना। यह अज्ञान ज्ञानी के लिए उस रात्रि के समान है जिसे अज्ञानी प्रकाश या दिन समझता है। ज्ञानी पुरुष मोक्ष को लक्ष्य बना कर संसार में निर्लिप्त और निर्योगी हो कर कर्म करता है, इसलिए पूर्व के परालब्ध के कर्मों को भोगते हुए, नए कर्मों के फलों को संचित नही करता। वह प्रकृति की माया एवम तीनो गुण से परे ब्रह्म में अपना ध्यान स्थापित करता है। इसलिए ज्ञानी के अज्ञानी का दिन रात्रि के समान है। और अज्ञानी ब्रह्म के प्रकाश से दूर प्रकृति की माया में रहता में रहता है, इसलिए मोक्ष की कल्पना उस के रात्रि है और ज्ञानी के लिए दिन अर्थात प्रकाश की ओर बढ़ने का मार्ग है।

काव्य की भाषा मे बताया यह श्लोक दिन और रात के माध्यम से एक कहावत को भी बताता है कि ” जागे तब सवेरा” । एक रोचक कथा भी माया के विषय में है।

एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार नारद मुनि ने भगवान विष्‍णु से पूछा कि भगवन माया क्या है? जिस में अज्ञानी पुरुष फस कर अपना अमूल्य मनुष्य जीवन व्यर्थ व्यतीत कर देता है।जगत पालक विष्णुजी यह प्रश्न सुनकर मुस्कराए और बोले-किसी दिन दिखा देंगे।

बहुत दिन व्यतीत होने के बाद एक दिन भगवान विष्णु नारद मुनि को साथ लेकर चल दिए। रास्ते में एक जगह एक वृक्ष के नीचे विष्णु ने रुककर कहा, नारदजी थोड़ा पानी लेकर लाओ, प्यास लगी है।

नारद कमंडल लेकर चल दिए। थोड़ा आगे चलने पर उन्हें नींद सताने लगी तो वे खजूर के झुरमुट के पास झपकी लेने के इरादे से लेट गए। लेकिन उन को गहरी नींद आ गई और इतनी गहरी कि वे सपना देखने लगे। सपने में देखा कि वह किसी वनवासी के दरवाजे पर कमंडल लेकर पहुंचे हैं। द्वार खटखटाया, तो एक सुंदर युवती को द्वार पर देखकर ठगे से रह गए।

वह युवती इतनी सुंदर थी कि नारद सब कुछ भूलकर उससे बातें करने लगे। दोनों के भीतर अनुराग की कोंपलें फूटने लगी। इसी बीच नारद ने अपना परिचय देकर लगे हाथ विवाह का प्रस्ताव रख दिया। युवती और उसका परिवार भी राजी हो गया और तुरंत विवाह हो गया। नारद सुंदर पत्नी के साथ बड़े आनंदपूर्वक दिन बिताने लगे। यथा समय उनके तीन पुत्र भी हो गए।

तभी एक दिन भयंकर बारिश हुई। घर के पास बहने वाली नदी में बाढ़ आ गई। नारद अपनी पत्नी और तीन पुत्रों के साथ बाढ़ से बचने के लिए भागे लेकिन पीठ और कंधे पर लदे हुए तीनों बच्चे उस बाढ़ में बह गए। देखते ही देखते पत्नी भी बाढ़ में बह गई। नारद किसी तरह खुद को बचाते हुए किनारे पर निकल तो आए लेकिन किनारे बैठकर परिवार को खोने के दुख के चलते फूट-फूट कर रोने लगे।

दुख में रोना इतना गहरा रहा कि सपने से वे हकीकत में भी रोने लगे। वह रोना इतना गहन था कि सोते-सोते उनके मुंह से रोने की आवाज निकल रही थी। इसी दौरान विष्णु भगवान नारद को ढूंढते हुए खजूर के झुरमुट के पास पहुंचे। उन्होंने नारद को सोते से जगाया, आंसू पोंछे और रुदन रुकवाया। नारद हड़बड़ाकर बैठ गए। कुछ देर तक तो उन्हें समझ नहीं पड़ी की ये सपना है या हकीकत।

तब भगवान ने पूछा- तुम हमारे लिए पानी लाने गए थे, क्या हुआ? कुछ देर में नारद को भी समझ में आ गया कि यह सपना था। तब उन्होंने सपने में परिवार बसने और बाढ़ में बहने के दृश्य में समय चले जाने के लिए भगवान से क्षमा मांगी। उन्होंने देखा कि उनकी वह दशा देख विष्णु मुस्करा रहे हैं। तब धीरे से विष्णुजी ने कहा कि अब तो तुम्हें तुम्हारे सवालों का जवाब मिल गया होगा कि जगत में फैली माया क्या है?

प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान की जो सीमा होती है, वह अज्ञान की परिधि में बंधी रहती है। यही अज्ञान उसे बता भी नही सकता कि उस का ज्ञान कितना परिपूर्ण है, इसलिये जिसे वह अपूर्ण ज्ञान के कारण प्रकाश समझता है, वह सम्पूर्ण ज्ञानी की भाषा मे उस का अज्ञान ही है अर्थात रात्रि ही है। व्हाट्सएप्प में बीमारियों के इलाज के सैंकड़ो इलाज आते है जो व्यक्ति बीमारी नही समझता, वह भी इलाज जानता है, इसे डॉक्टर लोग अज्ञान अर्थात रात्रि ही कहते है।

ज्ञानी व्यक्ति जब अज्ञानी लोग अपने अज्ञान के ज्ञान से संतुष्ट रहते है, वह अभ्यास द्वारा, योग द्वारा ज्ञान के लिये जुटा रहता है, इसलिये उन की रात इस का दिन और उन का दिन इसकी रात होती है।

अतः जो व्यक्ति ने अपने नित्य को पहचान लिया है वो उस को प्राप्त करने के लिए जाग्रत है और जो व्यक्ति अनित्य यानी संसार मे ही सुख दुख खोजता है वो अभी भी रात्रि में सोया हुआ है। उस के लिए दिन और रात यह संसार है। ऐसा व्यक्ति कभी समझ ही नही पाता कि बिना कर्मफल की आशा के कर्म कैसे किया जा सकता है।

यह प्रकृति ज्ञानी और अज्ञानी पुरुष के एक समान है। संसार सभी के साथ एक जैसा है। अंतर दृष्टिकोण एवम ज्ञान का है। जिस ने मोक्ष का मार्ग अपना लिया, उस के प्रकृति मात्र कर्तव्य कर्म भूमि है, वह उस के बंधन से परे है। किंतु अज्ञानी प्रकृति को सब कुछ मान कर जीता है, उस के लिए देवता भी सुख प्रदान के लिए माध्यम है। मृत्युलोक से ब्रह्मलोक तक उस ब्रह्म के संकल्प के विकल्प से बना है अतः जो स्वयं में नित्य नही है, उस में की गई, कोई भी क्रिया या प्राप्ति स्थायी कैसे हो सकती है। इस लिए जो अज्ञानी के रात्रि है, ज्ञानी के लिए दिन है।

कर्मयोगी इस रात्रि में कर्तव्य का पालन करता है, सांसारिक जीवन जीता है किंतु निष्काम भाव से। वो अपने को कर्ता नहीं मानता एवम संसार मे कार्य कारण के सिंद्धांत के अनुसार अपने कर्मो को भोग कर मोक्ष को प्राप्त होता है, उस के लिए जो रात्रि है वो सांसारिक लोगो के लिए दिन है क्योंकि उन का अपनी इन्द्रियों पर कोई नियंत्रण नही।

आत्मा  एक, अखंड और निरवयव है।इसी  तरह मन और चित्त  एक, अखंड है। हम जो अपने को अलग अलग महसूस  करते हैं,  वह स्थानीय अनुभव है। जैसे रसोईघर में  किसी एक उंगली पर चाकू  लग जाना, या तो सिर्फ  सर में  दर्द होना।समस्त संसार एक था, है और रहेगा।

इसे  हिंदु धर्म में  अद्वैत कहते हैं; और बौद्ध  धर्म में शुन्यता  कहते हैं ।एक ब्रह्मन् पुरे संसार में अनंत अनुभव करता है। अनुभव करते ब्रह्मन् को सगुण ब्रह्मन् कहते हैं और निर्लेप ब्रह्मन् को निर्गुण ब्रह्मन् कहते हैं ।

अद्वैत के बारे में  सनातन  धर्म में भी अलग-अलग विचार है जो एक दूसरे से विरोधाभासी है। कुछ योगी कहते हैं- यह संसार मिथ्या है, आभास है या तो स्वप्नवत है।

दूसरा मत – संत लोग कहते हैं-यह संसार ही ईश्वर का  व्यक्त  रूप है। योगी लोग संसार छोड़कर मोक्ष  के लिए प्रयत्न करते हैं । योगी ज्ञानयोग करते हैं ।

संत लोग संसार को प्रेम करते हैं। मोक्ष तो मिलना ही है। मोक्ष के लिए  कोई प्रयत्न की जरूरत नहीं है । सिर्फ चित्त शुद्धि चाहिए । चित्त शुद्धि के लिए संत भक्ति योग करते हैं और समाज सेवक कर्म योग करते हैं । गीता में  भगवान  श्री कृष्ण कहते हैं- तीन में से कोई भी योग करो, या तीनों साथ में करो।

हिंदु (खास कर वेदांती) जैन और बौद्ध – तीनों धर्म के कुछ साधु कहते हैं: आप अभी ईसी वक्त ब्रह्मन् का ही व्यक्त रूप हैं। आप को कुछ भी करने की जरूरत नहीं है । जो दिल ने चाहा, वही कर लो।

विरोधाभासी* शब्द  का अर्थ है:यह विरोध भी एक आभास है, भ्रमणा है।तत्वतः सत्य एक ही है। जहाँ भी विरोध है, अनेकांत का अस्तित्व है; वहाँ  संसार है। जिन्होंने  ब्रह्म को पा लिया  उन्हें  किसीसे  कोई विरोध नहीं है । वो चर्चा भी नहीं करते। शांत हो जातें हैं । अष्टावक्र और जनक राजा की तरह। वे सिर्फ  सत्संग करते हैं,  चर्चा  नहीं ।

जिसने समस्त कामनाओं का त्याग किया वही ज्ञानी भक्त मोक्ष प्राप्त करता है और कामी पुरुष कभी नहीं। इसे एक दृष्टान्त द्वारा भगवान् समझाते हुए स्थितप्रज्ञ मनुष्य की संसारी व्यक्ति से विचार, आचरण, विवेक, कर्म और बुद्धि के अंतर को स्पष्ट करते  हैं।

।। हरि ॐ तत सत ।। 2.69 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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