।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 55 ।। Additional II
।। अध्याय 02. 55 ।। विशेष II
।।विशेष – कर्म योग – संक्षिप्त टिप्पणी ।। गीता 2.55।।
गीता में मोक्ष प्राप्ति में योग में सन्यास योग और भक्ति योग में लुप्त होते कर्म योग को पुनः प्रतिपादित किया गया है जिस में जीव संसार में रहता हुआ, कर्म करता हुआ भी, मुक्ति को प्राप्त कर सकता है।
योग का अर्थ है जुड़ना, कर्म योग का अर्थ है अपने समस्त कार्य को परमात्मा से जोड़ना। सदाहरणतय: जीव अपने समस्त कार्य सांसारिक सुखों और दायित्व को निभाते हुए, सांसारिक सुखों के लिए करता है। क्योंकि वह अज्ञान वश अपने को प्रकृति के अंतर्गत कर्ता एवम भोक्ता मानता है। पूर्व धारणा में मुक्ति के लिए प्रवृति और निवृति के मार्ग में कर्म का त्याग करते हुए ज्ञानयोग अर्थात सन्यास को श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। किंतु युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन को कर्म योगी की भांति अपने कर्तव्य धर्म का पालन करने का उपदेश गीता में दिया गया है। जिस से जीव निर्लिप्त और निर्योग हो कर वासना और इच्छा रहित हो कर, बिना फल की आशा के कर्म करते हुए भी सन्यासी की भांति मुक्ति को प्राप्त कर सकता है।
गीता में श्लोक 2.40 से 2.53 कर्मयोग में स्थितप्रज्ञ हो कर समबुद्धि से निष्काम भाव से कर्म करने को कहा है। यहां अर्जुन अपने मोह से मुक्त हो कर यह समझ लेता है कि जो भी अध्यात्म उस ने पढ़ा या समझा है वह प्रकृति का ही ज्ञान है। वास्तविक ज्ञान तो प्रकृति के तीनों गुणों सत, रज और तम से परे का है। उस का भाग्य ही था कि उसे वह ज्ञान देने स्वयं ब्रह्म अर्थात कृष्ण उस के सारथी बन कर दे रहे थे। 2.54 में वह ऐसे जीव के व्यवहारिक स्वरूप को जानने की जिज्ञासा करता है। भगवान स्पष्ट भी करते है कि जीव का कर्म के फलों पर कोई अधिकार नही है एवम न ही किसी फल की प्राप्ति पर वह अपने को कर्ता कह सकता है।
श्लोक 2.55 से गीता में भगवान द्वारा अर्जुन की जिज्ञासा को पूर्ण करने के लिए कर्म योग और मोक्ष का ज्ञान अध्याय की समाप्ति तक देते है, जिस को सुन कर अर्जुन लगभग 9 जिज्ञासा और प्रकट करता है। अतः अध्याय 3 से 18 गीता में अध्याय 2 का ही विस्तार पूर्वक अध्ययन है।
बचपन से आज तक हम जो भी कार्य करते है वह उस के अच्छे फल की प्राप्ति के लिये करते है। किसान खेत अन्न उत्पन्न करने के खेती करता है, विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के जी तोड़ पढ़ाई करता है और व्यापारी लाभ कमाने के लिये व्यापार करता है। यदि फल की आशा न हो तो कोई काम क्यों करना चाहेगा।
कर्म का हेतु उस का फल है क्योंकि कोई भी कार्य बिना फल के हो ही नही सकता। कर्म-कारण-कार्य के सिंद्धांत के अनुसार कोई भी कार्य बिना करता है संभव नही। कोई भी वाक्य बिना कर्ता के अधूरा है, तो क्या कर्म के फल का त्याग संभव है? इसे अपरिपक्व ज्ञान पर किसी भी बात का विवेचन करना कहते है जो हम अक्सर देखते है। किसी विषय को पूर्ण रूप से जानने से या पढ़ने से पूर्व उस की समीक्षा तैयार करना, जब कि 700 श्लोक की गीता में अभी तो 100 के आसपास के श्लोक पढ़े है। मनुष्य को किसी भी ज्ञान प्राप्ति के लिये जिज्ञासु हो कर अपनी शंकाओ का समाधान करना चाहिए किन्तु हम समाधान की बजाए उस की समीक्षा कर के, अपने अधूरे और अपूर्ण ज्ञान द्वारा सही और गलत का निर्णय लेने लगते है, यही प्रकृति की माया है और अहम भी है। यही कारण है कि ज्ञान की अंतिम सीढ़ी तक पहुचने से पहले ही हम अपने ही बनाये मकड़जाल में उलझ कर फस जाते है और अपने अज्ञान में संतोष पैदा कर के संतुष्ट भी हो जाते है। याद रखे सत्य आप को तब तक नही छोड़ता जब तक आप पूर्ण ज्ञान नही प्राप्त कर लेते। इसलिये आप बार बार ज्ञान की ओर जाने- अनजाने में बढ़ते ही रहते है, यही जीवचक्र है जो कोई जल्दी और कोई 84 लाख योनियों को भुगत कर भी प्राप्त नही कर पाता।
यद्यपि अज्ञान वश मनुष्य किसी भी कार्य में स्वयं को कर्ता मान लेता है किंतु किसी भी कार्य को पांच विभिन्न तत्व से पूरा किया जा सकता है। क्या खेत में बीज बोने से फसल तैयार हो सकती है?, फसल के लिए उपयुक्त जमीन, मौसम, बीज के प्रकार और समय आदि सभी का योगदान है। यही जीव के कर्म का कार्य है, जो करती प्रकृति है किंतु जीव उसे अपना मान लेता है।
भगवान कहते है कि जीव प्रकृति से जुड़ा एक अंश है। इस के 25 तत्व से बना जीव में 24 तत्व प्रकृति के ही है। इसे विस्तार से हम आगे पढ़ेंगे। अतः प्रकृति की समस्त क्रियाए बिना जीव के संभव नही। सृष्टि की रचना का मूल आधार भी जीव एवम प्रकृति का संयोग ही है। जीव अकर्ता, साक्षी, नित्य एवम परब्रह्म का अंश है, प्रकृति परब्रह्म का स्वरूप होते हुए भी, माया से नियमबद्ध है। जीव जब भी परब्रह्म को छोड़ कर प्रकृति से सम्बन्ध जोड़ता है तो वह कर्म के फल के बंधन में फस जाता है, और फिर जब तक उन फलों को नही भोगता, तब तक वह बंधन से मुक्त नही होता।
जब तक जीव प्रकृति से बंधा है, वह कर्म के बंधन से मुक्त भी नही है। हम आगे पढ़ेंगे की कर्म नियमित, नैमित्तिक एवम काम्य अर्थात कामना से किये कर्म। नियमित जो प्रकृति करती है जैसे सांस लेना आदि। नैमित्तिक जो स्वयं को शुद्ध एवम स्वस्थ रखने के लिये आवश्यक है, जैसे स्नान, भोजन आदि एवम काम्य जो कामना के साथ किये जायें। अतः जब तक जीव प्रकृति से जुड़ा है, वह कर्म मुक्त नही हो सकता।
जीव को कर्म बंधन में बांधने का कार्य प्रकृति करती है, क्योंकि जीव अकर्ता है और प्रकृति क्रियाशील। इसलिये प्रकृति ही समस्त कर्म जीव के चारो ओर घूम घूम कर नृत्य करती हुई करती है और जीव अज्ञान वश प्रकृति के आकर्षण में आ कर अपने को कर्ता मान लेता है। यही बंधन है।
इसलिये यह भी तय है कि समस्त क्रियाए प्रकृति करती है और जीव अज्ञान के कारण अपने को कर्ता मान लेता है और कर्मो के फलों को भोगने लग जाता है। जिस दिन जीव को इस सत्य का ज्ञान हो जाता है कि वह नित्य, अकर्ता, साक्षी एवम दृष्टा मात्र है, प्रकृति का समस्त नृत्य समाप्त हो जाता है, उस के समस्त कार्य, अकार्य हो जाते है। वह अपने शेष जीवन लोककल्याण एवम लोकसंग्रह के करता हुआ मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। जरूरत सिर्फ अज्ञान से मोह भंग होने की है और यह बात उतनी सरल नही है जितनी एक बालक द्वारा स्वयं को डॉक्टर घोषित करना है। इस के MBBS तक की पढ़ाई करने तक का तप करना होता है और हर परीक्षा में पास भी होना होता है।
कर्मयोग में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि यह आसक्ति, कर्ता भाव, एवम भोक्ता भाव का त्याग कर के यदि हम प्रकृति के समस्त कार्य निमित हो कर करे तो वह समस्त कार्यो का उद्देश्य सृष्टि के संचालन में भागीदार बिना किसी बन्धन के करने वाला होगा। हमे हमारा कर्म पूर्ण दक्षता, अनुशासन, कर्मठता एवम नियमित हो कर करना चाहिए जिस से वह लोकसंग्रह के लिये किया कार्य सिद्ध हो और हमे उस के फल की कोई आसक्ति न हो। आसक्ति न होने का सही अर्थ यही है कि हम अपने कर्म के लिये सांसारिक समस्त वस्तुओं का अनासक्त भाव से उपयोग करे और संसार का आनंद ले। किन्तु किसी अभाव से विचलित न हो, न ही किसी वस्तु के आभाव से हम अपने लक्ष्य को त्याग दे। भगवान राम और कृष्ण राज परिवार से ही थे और वर्षो राज्य कर के उस का सुख भोगा। दोनो के जीवन मे इतने उतार चढ़ाव थे किंतु दोनो ही समबुद्धि एवम कर्मयोगी थे, इसलिये कभी भी विचलित नही हुए। संसार मे कर्मयोगी का इस से उत्तम उदाहरण कोई हो ही नही सकता।
सुकरात, नानकदेव, तुलसीदास, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, अब्राहिम लिंकन, चाणक्य, शंकराचार्य आदि आदि अनादि अनेक महापुरुष समय समय पर कर्मयोगी बन कर आते है और संसार का मार्ग प्रशस्त कर के पुनः ब्रह्म में लीन हो जाते है। यह वह लोग है जो सत की ज्योति को धूमिल नही होने देते। यह निष्काम कर्मयोगी हमारे ही बीच मे अनाम हो लोकसंग्रह के कार्य कर रहे है और करते रहेंगे। सृष्टि का संचालन यही कर्मयोगी करते है क्योंकि यह स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी है। क्या आप कभी किसी कर्मयोगी से मिले है, आप को पता लग जायेगा कि स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी कैसे दिखते है, बोलते है, काम करते है और रहते है। यदि नही तो इन का जीवन पढ़े। अलंकृत कर्मयोगियों से बच कर रहे। जो आश्रम चलाते है, धन एवम पद के लिये झगड़ते है, यह लोग कर्मयोगी नही हो सकते।
अतः यह कहना गलत होगा कि बिना कर्मफल की आशा के जीवन में कर्म व्यर्थ है, गीता कर्मयोग का ग्रंथ है जो हमे लोकसंग्रह के लिये कर्म करने की प्रेरणा तो देता ही है, यह भी बताता है कि निष्काम भाव से अनासक्त हो कर कर्म करने से हम कर्म फल से बन्धन से मुक्त भी होंगे एवम किसी भी किस्म के पाप या पुण्य के भागी भी नही होंगे।
गीता का अध्याय दो अर्जुन की मानसिकता में योग के बीज रोपण करना है, जिस से वह अपने युद्ध न करने के संकल्प से हट कर ज्ञान को सुनने के तैयार हो। श्रोता जब तक पूर्वाग्रह से ग्रसित रहता है तो उस को कितना भी ज्ञान दो, वह चिकने घड़े पर पानी डालना ही है। स्वयं दुर्योधन का भी कहना है कि उसे भी ज्ञान की समस्त बाते मालूम है किंतु वह अपनी प्रकृति से विवश है।
यही बात हम पर लागू होती है, जब हम गीता का अध्ययन तो करना चाहते है किन्तु अपनी प्रकृति से विवश हो कर 15-20 का समय भी अध्ययन के लिये नही निकाल सकते चाहे वह समय हमारा वार्तालाप, व्हाट्सएप्प या दुकानदारी या अन्य किसी कार्य मे अनर्थक ही व्यतीत क्यों न हो रहा हो। हमे भी प्रकृति के अपने संबंध के अज्ञान से बाहर आना होगा, इसलिए गीता जितनी बार भी हम पढ़ते जाएंगे, उतनी ही बार हमारी भ्रांति दूर होती जायेगी।
ज्ञान कोई चमत्कार या आसमान से उतर कर किसी की झोली में पड़ने वाला फल नही है, इसे आत्मशुद्धि के लिये किये हुए यज्ञ के समान समझना चाहिये। चितशुद्धि के साधना चाहिये जिस की प्रथम सीढ़ी कर्म के फलों से निवृति ही है। अतः जब तक कर्म योग द्वारा कर्म के फलों से निवृति नही होगी, साधना का मार्ग शुरू होना मुश्किल है।
गीता कर्मयोग ज्ञानयोग, बुद्धियोग, भक्तियोग सभी का वर्णन करती है, सभी निवृति के मार्ग है किंतु एक गृहस्थ एवम संसार मे कर्म करते हुए निवृति को प्राप्त करने का सब से सरल मार्ग कर्मयोग ही है क्योंकि कर्म जीवन की अनिवार्य शर्त है।
कुछ लोग मुक्ति को व्यर्थ एवम जन्म-मरण को ढोकोसला कहते है, उन के लिये भी गीता में वर्णन है क्योंकि जीव का मुख्य धैय मुक्ति है, किन्तु यह संसार भी चलता रहे, इसलिये विचारों की विभिन्नता भी होनी चाहिये।
जीव अर्थात मनुष्य अन्य प्रकृति के किसी भी जीव और वनस्पति से पृथक है क्योंकि उस में बुद्धि अर्थात अपनी चेतना शक्ति को जानने की शक्ति है। किंतु यदि वह इस का दुरुपयोग मुक्ति की बजाय पशु की भांति सांसारिक सुख – दुख के लिए करे तो इस से बढ़ कर मनुष्य का दुर्भाग्य क्या होगा।
गीता की यह कर्मयोग में कर्म की एक छोटी सी भूमिका है जिन्हें हम अब हम विस्तार से एक एक अध्याय में पढ़ेंगे। अर्जुन आप ही है, इसलिये अर्जुन द्वारा पूछे प्रत्येक प्रश्न को आप अपना ही प्रश्न समझे, इस का अध्ययन एकाग्रचित हो कर करे, यदि जिज्ञासा हो तो प्रश्न भी लिख कर भेजे। सामाजिक जीवन मे जो भी रोजमर्रा के ज्ञान की बाते होती है वह और कुछ नही आप के अंदर की छुपी उस आध्यात्मिक ज्ञान एवम प्रकाश की किरण है जिस के आगे का पर्दा हटना जरूरी है।
श्रीगुरुदेव (आदि शंकराचार्य जी) कह्ते हैं कि आत्मा सावयव नहीं है और वह किसी का विषय भी नहीं होता है । आत्मा अद्वितीय है , यह आत्मज्ञान का अर्थात स्व की अनुभूति का विषय है । सभी प्रकार से अपरोक्ष होने के कारण भी , यह किसी का विषय नहीं होता है ।
अतः जुड़े एवम अध्ययन करे और जीवन में आत्मसात करने का प्रयत्न करते है। आप का प्रयत्न व्यर्थ नही हो सकता इस की गारंटी स्वयं भगवान भी आगे चल कर देंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 2.55 ।।
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