।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 51 ।।
।। अध्याय 02. 51 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 2.51॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥
“karma-jaḿ buddhi-yuktā hi,
phalaḿ tyaktvā manīṣiṇaḥ..I
janma-bandha-vinirmuktāḥ,
padaḿ gacchanty anāmayam”..II
भावार्थ :
समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।
Meaning:
Thus, the wise individual who performs actions with equanimity is liberated from the entanglements of birth, and attains the immaculate state.
Explanation:
With this shloka, Shri Krishna concludes the introduction to Karmayoga in this chapter. Here, he tells us that one who continually practices Karmayoga frees himself from the entanglements of birth. Let’s look at this in more detail.
The paradox of life is that we strive for happiness, but reap misery; we crave love, but we meet with disappointment; we covet life, but know we are moving toward death at every moment. if people could realize that nobody has ever achieved happiness by engaging in fruitive works, they would then understand that the direction in which they are running is futile, and they would think of doing a U-turn toward spiritual life.
Our experience tells us that desires are never ending. Most material desires, once fulfilled, give rise to new ones. For instance, most immigrants to a country such as the US usually arrive with modest means. They rent a flat till they know where they plan to settle long term. And then the desires begin to manifest.
In a few years they take out a loan to buy a house. A house usually has a lawn. So you need a lawnmover, a leafblower, fertilizer, sprinkler system and so on to take care of the lawn. In addition, you need a car to get around. In time, one car is not enough – you need two. And since the neighbour has a Mercedes, you need to get one as well. Similarly with a TV – you start with 32 inch, then 60 inch, then 3D capability, home theatre system etc. Each desire, once fulfilled, gives birth to a new one.
So the shloka here says that this endless cycle of desire after desire entangles us in the material world. And therefore, one uses the discipline of Karmayoga to break out of it so that you reach that state where there are no desires or blemishes in one’s personality – what is termed here as the immaculate state.
Those whose intellects have become steadfast with spiritual knowledge understand that God is the Supreme Enjoyer of everything. Consequently, they renounce attachment to the fruits of their actions, offer everything to him, and serenely accept everything that comes as his prasad (mercy). In doing so, their actions become free from karmic reactions that bind one to the cycle of life and death.
Let’s summarize the key points of Karmayoga that we have seen in this chapter. Karmayoga is the performance of actions with equanimity of mind. We also looked at a 3-step toolkit to implement Karmayoga in our lives:
1. Reduce unnecessary thoughts of material objects that do not pertain to our svadharma
2. Improve quality of necessary thoughts by removing extreme attachment and hatred
3. Perform actions focusing on the present moment, without attachment to the result of action
।। हिंदी समीक्षा ।।
जो मनुष्य अकुशल कर्मों से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मों में राग नहीं करता वह मेधावी (बुद्धिमान्) है। कर्म तो फल के रूप में परिणत होता ही है। उस के फल का त्याग कोई कर ही नहीं सकता। जैसे कोई खेती में निष्कामभाव से बीज बोये तो क्या खेती में अनाज नहीं होगा बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है तो उस को कर्म का फल तो मिलेगा ही। अतः यहाँ कर्मजन्य फल का त्याग करने का अर्थ है कर्मजन्य फल की इच्छा, कामना, ममता और वासना का त्याग करना। इस का त्याग करने में सभी समर्थ हैं। समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। कारण कि समता में स्थित हो जाने से उन में रागद्वेष कामना वासना ममता आदि दोष किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहते अतः उन के पुनर्जन्म का कारण ही नहीं रहता। वे जन्ममरण रूप बन्धन से सदा के लिये मुक्त हो जाते हैं।
किसी वस्तु या कर्मफल की आशा रखना, उस आशा के कर्म करना है ठीक वैसा ही, अशांत चित्त से वैज्ञानिक अनुसंधान करना या पढ़ाई करना । लक्ष्य के अनुसार कार्य करना और यदि शांत एवम एकाग्र चित्त से कर्म करे तो फल अच्छा होगा ही। फल की आशा एवम फल की आसक्ति में भी अंतर है। आशा यानि धेय तय करते हुए कर्म करना किन्तु आसक्ति न रखना। भगवान श्री कृष्ण कहते है समबुद्धि योग से मनुष्य शनैः शनैः मोह, ममता एवम कामना से मुक्त होता हुआ अहंकार को छोड़ता है और मोक्ष को प्राप्त करता है। समबुद्धि योग ही तत्वदर्शी, फिर ब्रह्मविद और ब्रह्मसन्ध होनी की प्रथम सीढ़ी है।
गीता में कर्मयोग एवम सम बुद्धि योग कृष्ण द्वारा अर्जुन को कहा है। कृष्ण यानी पूर्ण ब्रह्म और अर्जुन यानि जीव। जीव पूर्ण ब्रह्म हो कर भी मन, बुद्धि, शरीर एवम इन्द्रियों से जुड़ा पृथिवी पर एक प्राणी है। जीव को नियंत्रित प्रकृति करती है जिस का नियम जन्म, वृद्धि, क्षय एवम मृत्य और जन्म मरण का क्रम है। यह कार्य कारण के सिंद्धांत पर कार्य करती है । जिस के कारण जीव जो भी कार्य करेगा उस के कारण स्वरूप उसे फल मिलेगा। अतः जीव अज्ञानवश उस फल पर अपना अधिकार कर्ता भाव का रखता है।
जब कोई पढ़ाई करेगा तो एग्जाम में पास भी होगा। फिर कमाने भी लगेगा। घर, सुख सुविधा भी बटोर लेगा , और इस के आगे भी और और ही लगा रहेगा किन्तु जीवन अपने नियम से क्षय की प्राप्त कर मृत्यु को प्राप्त करेगा। यह और और कि लालसा उसे पुनः जन्म देगी फिर इस लालसा के किये यह जीव कार्य करने लग जायेगा। कर्मयोग ही एक मात्र रास्ता है जिस के कारण यदि मृत्यु पूर्व जीव कोई लालसा ले कर नही मरता तो पुनः जन्म नही होगा और वो अपने पूर्ण ब्रह्म स्वरूप को पहचान लेगा।
कोई भी कार्य बिना फल के संभव नही। फल को चखने पर स्वाद कड़वा या मीठा न मिले यह भी संभव नही। एक बार स्वाद लगने के बाद पुनः मीठे फल को प्राप्त करने के लिए प्रेरित भी न हो यह लालसा मिटे यह भी संभव नही। क्योंकि यह सब ही तो माया है जो जीव को प्रकृति के साथ जीव को बांध कर रखता है। अतः इस से मुक्ति सम बुद्धि योग द्वारा कर्म करने से ही प्राप्त होगी। जो व्यक्ति सम बुद्धि योग से कर्म करेगा वो फल को भोगेगा किन्तु कर्ता भाव को छोड़ कर, जिस के कारण न मिटने वाली लालसा से दूर रहेगा और पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त होगा। कर्म एवम उस के फल से मुक्ति नही हो सकती किन्तु कर्म के फल पर अधिकार से मुक्त हो सकते है। राजा जनक की भांति पूर्ण राज्य का संचालन विदेह के रूप में करते हुऐ सभी कर्मो को समय एवम स्थान के अनुसार पालन किया जा सकता है।
गीता में इस को और भी विस्तृत रूप में आगे हम पढ़ेगे किन्तु यदि मानसिकता में इस को ध्यान में रखे तो शायद हमारे जीवन मे इस उपदेश का प्रवेश हो जाये।
समत्व भाव को बुद्धि योग भी कहा गया है क्योंकि कर्म करने की प्रेरणा में भावनात्मक एवम कर्ता भाव को दूर करते हुए कर्म करने के बुद्धि अर्थात विवेक से कार्य किया जाता है। इसलिए जब कार्य किसी कर्ता या भोक्ता भाव से मुक्त होगा तो उस के फल पर कोई आशा नहीं होगी और फल को जीव प्रसाद समझ कर स्वीकार करेगा। इस से वह फल के बंधन से मुक्त भी होगा और जन्म मरण के चक्र से मुक्त होने की दिशा में प्रवेश करेगा।
पुनः इस बात को दोहराना है कि ज्ञान होना एवम ज्ञान का आत्मसात होना, दोनों में अंतर है। सन्यास ले कर आश्रम चलाना एवम वहाँ भी पूर्ण सुख सुविधा के साथ रहना, सन्यास धर्म नहीं, सांसारिक ही गृहस्थ कर्म है।
किन्तु राजा जनक के समान पूर्ण राज्य को चलाना पूर्ण सन्यास है। आप व्यापार, व्यवसाय या नॉकरी कुछ भी करे, सम बुद्धि योग भाव से कर्म करते हुए भी आनंद के साथ कर सकते है और मुक्त हो सकते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 2.51 ।।
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