।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 32 ।।
।। अध्याय 02. 32 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 2.32॥
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥
“yadṛcchayā copapannaḿ,
svarga-dvāram apāvṛtam
sukhinaḥ kṣatriyāḥ pārtha,
labhante yuddham īdṛśam”
भावार्थ :
हे पार्थ! वे क्षत्रिय भाग्यवान है जिन्हे ऎसॆ युद्ध के अवसर अपने-आप प्राप्त होते है जिस से उन के लिये स्वर्ग के द्वार खुल जाते है ॥३२॥
Meaning:
Fortunate are those warriors who will fight such a war, O Paartha. Indeed, it is like a door to heaven that has opened without any effort.
Explanation:
As we can see, the Bhagavad Gita is a call to action, not to inaction. When people are exposed to lectures on spirituality, they often question, “Are you asking me to give up my work?” However, verse after verse, Shree Krishna is giving Arjun the reverse instruction. While Arjun wishes to abandon his duty, Shree Krishna repeatedly coaxes him to discharge it.
The proper discharge of one’s occupational duties is not a spiritual act in itself, and it does not result in God- realization. It is merely a virtuous deed with positive material rewards. Shree Krishna brings his instructions a step lower and says that even if Arjun is not interested in spiritual teachings, and wishes to remain at the bodily platform, then also his social duty as a warrior is to defend righteousness.
Any singer or musician will look forward to performing in a large auditorium like Carnegie Hall rather than perform in a small 20 seat theatre. A doctor who genuinely cares about saving lives will tirelessly and joyfully work extra hard if she is handling an emergency room with a huge number of patients rather than serving only 1-2 patients a day.
In other words, a person performing his or her svadharma would always prefer working hard towards a challenging assignment rather than simply pulling along in a mediocre one. Shri Krishna pointed this out to Arjuna by reminding him that a true warrior would look forward to the challenge of fighting the Kaurava army, which was filled with world-renowned warriors.
We shall not forget that opportunity to prove the capacity and ability is not come in life on regular basis. But only courageous person grapes the opportunity where others lost in thinking or in fear.
How is this relevant to us? Our work should give us joy, our work should be its own reward. If we have chosen a profession that feels like drudgery, if we feel that any new work given to us is a chore rather than a challenge, if all we can do is complain, then we should re-examine whether we are really following our svadharma, or we are qualified to do something else.
।। हिंदी समीक्षा ।।
गीता कर्म प्रधान ग्रंथ है, यहां उपदेश सन्यास लेने की बात करने वाले शिष्य को सन्यास नही लेते हुए, कर्तव्य कर्म की दीक्षा दी जा रही है। इसलिए अध्यात्म से सामाजिक लोक ज्ञान तक भगवान अर्जुन को अपना कर्तव्य कर्म ही करने को कहते है। प्रकृति क्रियाशील है, भूत के गर्त में अनेक लोग आते गए और समा गए, जिन्होंने लोकसंग्रह के लिए कार्य किया, उन्हे ही आने वाली पीढ़ी में सम्मान मिला, जिन्होंने देश की रक्षा और आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, उन के लिए कहा जाता है कि उन के लिए स्वर्ग के द्वारा हमेशा खुले रहते है।
क्षत्रिय शब्द का तात्पर्य यहाँ जन्म से निश्चित की हुई क्षत्रिय जाति से नहीं है। यह व्यक्ति के मन की कतिपय विशिष्ट वासनाओं की ओर संकेत करता है। क्षत्रिय प्रवृति का व्यक्ति वह है जिस में सार्मथ्य और उत्साह का ऐसा उफान हो कि वह दुर्बल और दरिद्र लोगों की रक्षा के साथ संस्कृति के शत्रुओं से राष्ट्र का रक्षण, अपने प्राणों की परवाह किए बिना, कर सके। हिन्दू नीतिशास्त्र के अनुसार ऐसे नेतृत्व के गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को स्वयं ही संस्कृति का विनाशक और आक्रमणकारी नहीं होना चाहिये।
किन्तु अधर्म का प्रतिकार न करने की कायरतापूर्ण भावना भी हिन्दुओं की परम्परा नहीं है। जब भी कभी ऐसा सुअवसर प्राप्त हो तो क्षत्रियों का कर्तव्य है कि वे इसे स्वर्ण अवसर समझ कर राष्ट्र का रक्षण करें। इस प्रकार के धर्मयुद्ध स्वर्ग की प्राप्ति के लिए खुले हुए द्वार के समान होते हैं। ऐसा धर्ममय युद्ध जिन को प्राप्त हुआ है वे क्षत्रिय बड़े सुखी हैं।
यहाँ सुखी कहने का तात्पर्य है कि अपने कर्तव्य का पालन करने में जो सुख है वह सुख सांसारिक भोगों को भोगने में नहीं है। सांसारिक भोगों का सुख तो पशुपक्षियों को भी होता है। अतः जिन को कर्तव्य पालन का अवसर प्राप्त हुआ है उन को बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिये।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने तर्क प्रस्तुत करते हुए वेदान्त के सर्वोच्च सिद्धांत से उतर कर भौतिकवादियों के स्तर पर आये और उस से भी नीचे के स्तर पर आकर वे जगत् के एक सामान्य व्यक्ति के दृष्टिकोण से भी परिस्थिति का परीक्षण करते हैं।
परोपकार, दया, क्षमा, सत्य, अहिंसा के साथ साथ धर्म अपनी सभ्यता एवम संस्कृति की रक्षा भी करने हेतु संघर्ष एवम युद्ध तक करने की आज्ञा देता है जिस से आगे मानव जाति का कल्याण हो। अर्जुन इस युद्ध से पीछे हट रहा है जब कि युद्ध दुर्योधन के हट से शुरू हुआ जिस में उस ने बनवास से लौटे पांडव को उन की भूमि लुटाने से मना कर दिया। अतः यह युद्ध अर्जुन ने नही चुना था, यह युद्ध दुर्योधन के अधर्म के विरुद्ध था। क्षत्रियो के जीवन मे महान लक्ष्य की पूर्ति के अवसर कभी कभी आते है, जिस में वह अपने जीवन को किसी की रक्षा के दावे पर लगा देते है। देश की रक्षा के लिये मरने वाला सैनिक स्वर्ग का अधिकारी होता है क्योंकि उस ने अपना जीवन का त्याग महान कार्य के लिये किया है। यही बात सरल रूप में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के समक्ष रखते है।
हमे यह भी नही भूलना चाहिए कि प्रकृति किसी उच्चतम कार्य को करने का मौका कभी कभार ही किसी व्यक्ति तो देती है। साहसी और उद्यमी उस अवसर में अपनी योग्यता सिद्ध करते है जब कि अधिकतर वह मौका डर कर या विचार आदि करने में गवां देते है।
इन विभिन्न दृष्टिकोणों से वे अर्जुन को यह सिद्ध कर दिखाते हैं कि उस का युद्ध करना उचित है। इतिहास गवाह है कि श्रीमद्भगवद् गीता जैसे ग्रंथो की प्रेरणा से मुगल काल से अंग्रेजो तक स्वाधीनता की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीरों में नवयुवक, सभी वर्ग के स्त्री – पुरुषो और साधु – सन्यासियो थे। सिख गुरुओं, स्वार्थ स्वामी रामदास आदि की कथाएं आज भी प्रेरणा देती है। अर्जुन की आशंका युद्ध के कारण वर्णसंकर जाति के उत्पन्न होने की शंका भी निर्मूल नही थी। आज भी ऐसे लोग दीमक की भांति हिंदू धर्म को चाट रहे है किन्तु जिस धर्म की ध्वजा सहिष्णुता, दया, अहिंसा, समानता और वसुदेव कुटुम्बकम पर आधारित हो, उसे कौन झुका या मिटा सकता है।
आज के युग मे भी जब भी किसी मनुष्य को किसी भी कार्य की करने का अवसर मिले तो उसे पूर्ण निपुणता से करना चाहिए क्योंकि स्वधर्म यही कहता है। हर मनुष्य जब किसी को ज्ञान देता है तो वो ब्राह्मण का कार्य कर रहा है, जब परिवार, मित्र या देश की रक्षा कर रहा है तो क्षत्रिय, जब बाजार में मोल भाव कर के सामान खरीद या बेच रहा है या कोई सौदे की तैयारी कर रहा है तो वैश्य एवम जब सेवा दे रहा है तो शुद्र। कालांतर में सेवा भाव की निम्न सिद्ध करने की कोशिश की गई जब कि स्वधर्म की यह चार अवस्था जन्म से नही कर्म से निश्चित की जाती थी। यह भी विस्तार से गीता में हम आगे पढ़ेंगे। किन्तु यदि हम अपने स्वधर्म को निपुणता से पूरे मन के साथ करते है तो ही हम कर्मयोगी बनेंगे एवम सफल होंगे। यहाँ सफल होने का अर्थ समय निकल जाने से बाद यह अफसोस न होना की यदि मैने उस समय ध्यान दिया होता तो यह नही होता।
युद्ध न करने से क्या हानि होती है इसका आगे के चार श्लोकों में वर्णन करते हैं।
।। हरि ॐ तत सत ।।2.32 ।।
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