।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 17 ।।
।। अध्याय 02. 17 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 2.17॥
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
“avināśi tu tad viddhi,
yena sarvam idaḿ tatam..I
vināśam avyayasyāsya,
na kaścit kartum arhati”..II
भावार्थ :
जो सभी शरीरों में व्याप्त है उस आत्मा को ही तू अविनाशी समझ, इस को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥ १७॥
Meaning:
But know that (eternal essence) to be indestructible by which all this is pervaded. Nothing ever can destroy that, the imperishable.
Explanation:
The theme of the ongoing shlokas has been understanding the nature of the eternal essence. This verse gives us two qualities that the eternal essence possesses. Note that the sanskrit word “tat” meaning “that” refers to the eternal essence in this shloka.
Firstly, the eternal essence is imperishable. It cannot be destroyed, nor is it created. In the bangle example from the prior verse, the pawn shop owner only cared about the gold content of the bangle and not its shape and form. He could melt that bangle into another ornament, melt it again and make it into another ornament, and so on. In doing so, each subsequent ornament was “created” and “destroyed”, but the gold essence was imperishable and indestructible. Similarly, the eternal essence spoken of in these verses is imperishable.
Shree Krishna establishes the relationship between the body and the soul, by saying that the soul pervades the body. The soul is sentient, i.e. it possesses consciousness. The body is made from insentient matter, devoid of consciousness. However, the soul passes on the quality of consciousness to the body as well, by residing in it. Hence, the soul pervades the body by spreading its consciousness everywhere in it. The Vedas state that the soul resides in the heart:
Vinasi means perishable- Destructible. Avinasi means indestructible. So when there is pot; its essence; its Atma is what? Clay. Pot is what? Anatma. Because pot may destructed but clay remained.
Therefore, body can be destroyed. But nobody can destroy this atma. Even the God cannot destroy. Even atom bombs cannot destroy. And therefore why are you saying Bhiṣma is killed; Droṇa is killed, Bhiṣma is who? Atma. Because this is discussion from which angle. Philosophical angle, Bhiṣma is nothing but atma, Droṇa is Atma. So atma is here; you are not going to destroy anything. So why are you crying? Whatever will be destroyed, the same shall be body only. Which will be destroyed even you do not killed them as the same is perishable.
Secondly, the eternal essence pervades “all this”, which means the eternal essence pervades the entire universe. If we immerse a piece of cloth into water, water pervades each and every fibre of the cloth. There is no part of the cloth that isn’t dry. In the same way, from a rock, to plants, to animals, and to humans, the eternal essence pervades everything that is part of the universe. Now He says this whole creation is pervaded by this atma.
Tatam means pervaded, vyaptam. Not only atmais eternal, Atma is also all pervading like space, atma is all pervading. So if atma is all pervading, how many atmas will be there? It has to be just one, as one space is there; similarly one atma alone is there, in you, in me, in an ant, in a plant, even in God; bodies are many but the atma is one alone.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन की दुविधा थी कि वह कैसे पितामह भीष्म, गुरु द्रोण एवम अपने बांधव का वध कर सकता है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते है।
शरीर उत्पत्ति के पहले भी नहीं था, मरने के बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमान में भी इस का क्षण प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों में कभी भावरूप से नहीं रहता। अतः यह असत् है। इसी तरह से इस संसार का भी भाव नहीं है यह भी असत् है। यह शरीर तो संसार का एक छोटा सा नमूना है इसलिये शरीर के परिवर्तन से संसारमात्र के परिवर्तन का अनुभव होता है कि इस संसार का पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमान में भी अभाव हो रहा है।
संसार मात्र कालरूपी अग्नि में लकड़ी की तरह निरन्तर जल रहा है। लकड़ी के जलने पर तो कोयला और राख बची रहती है पर संसार को कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीति से जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसार का अभाव ही अभाव कर देती है। इसलिये कहा गया है कि असत् की सत्ता नहीं है।
जो सत् वस्तु है उस का अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था तब भी देही अर्थात ब्रह्म था देह नष्ट होने पर भी देही रहेगा और वर्तमान में देह के परिवर्तनशील होने पर भी देही उस में ज्यों का त्यों ही रहता है। इसी रीति से जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था उस समय भी परमात्मतत्त्व था संसार का अभाव होने पर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमान में संसार के परिवर्तनशील होने पर भी परमात्मतत्त्व उस में ज्यों का त्यों ही है।
इसलिए यह जो नित्य तत्व है वह आत्मा ही सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है, जिसे से शरीर में संवेदनशीलता है। यह हृदय में रह कर संपूर्ण शरीर को संचालित करता है। शरीर नष्ट हो जाता है किंतु नित्य आत्मा नही।
संसार को हम एक ही बार देख सकते हैं दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी दूसरे क्षण में वह वैसी नहीं रहती जैसे सिनेमा देखते समय परदे पर दृश्य स्थिर दीखता है पर वास्तव में उस में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीन पर फिल्म तेजी से घूमने के कारण वह परिवर्तन इतनी तेजी से होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं। इस से भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तव में संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि जिन करणों से हम संसार को देखते हैं अनुभव करते हैं वे करण भी संसार के ही हैं। अतः वास्तव में संसार से ही संसार दीखता है। जो शरीर संसार से सर्वथा सम्बन्ध रहित है उस स्वरूप से संसार कभी दीखता ही नहीं तात्पर्य यह है कि स्वरूप में संसार की प्रतीति नहीं है। संसार के सम्बन्ध से ही संसार की प्रतीति होती है। इस से सिद्ध हुआ कि स्वरूप का संसार से कोई सम्बन्ध है ही नहीं।
दूसरी बात संसार (शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि) की सहायता के बिना चेतनस्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इस से सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसार में ही है स्वरूप में नहीं। स्वरूप का क्रिया से कोई सम्बन्ध है ही नहीं।
सर्वत्र सत्बुद्धि और असत्बुद्धि ऐसी दो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। असत बुद्धि से यह परिवर्तन शील संसार सत के समान दिखता के किन्तु जिस पदार्थ को विषय करनेवाली बुद्धि बदलती नहीं वह पदार्थ सत् है और जिस को विषय करनेवाली बुद्धि बदलती हो वह असत् है। इस प्रकार सत् और असत् का विभाग बुद्धि के अधीन है।
सभी जगह समानाधिकरण में ( एक ही अधिष्ठानमें ) सब को दो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। कोई घड़ा देख कर उसे सत कहता है तो कोई मिट्टी जिस से घड़ा बना है उसे सत मानता है।
इस प्रकार सत् आत्मा और असत् अनात्मा इन दोनों का ही यह निर्णय तत्त्वदर्शियों द्वारा देखा गया है अर्थात् प्रत्यक्ष किया जा चुका है कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है।
तत् यह सर्वनाम है और सर्व ब्रह्म ही है। अतः उसका नाम तत् है उसके भावको अर्थात् ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप को तत्त्व कहते हैं उस तत्त्व को देखना जिनका स्वभाव है वै तत्त्वदर्शी हैं उनके द्वारा उपर्युक्त निर्णय देखा गया है।
तू भी तत्त्वदर्शी पुरुषों की बुद्धि का आश्रय लेकर शोक और मोह को छोड़कर तथा नियत और अनियतरूप शीतोष्णादि द्वन्द्वों को इस प्रकार मन में समझकर कि ये सब विकार है ये वास्तव में न होते हुए ही मृगतृष्णाके जलकी भाँति मिथ्या प्रतीत हो रहे हैं ( इनको ) सहन कर, इस प्रकार कृष्ण अर्जुन को ज्ञान के असत भाव से सत स्वरूप की ओर ले जा रहे है।
इसी सत् को ‘परा प्रकृति’, ‘क्षेत्रज्ञ’, ‘पुरुष’ और ‘अक्ष’ कहा गया है तथा असत् को ‘अपरा प्रकृति क्षेत्र प्रकृति’ और ‘क्षर’ कहा गया है।
अर्जुन भी शरीरों को लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करने से ये सब मर जायँगे। इस पर भगवान् कहते हैं कि क्या युद्ध न करने से ये नहीं मरेंगे असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है। परन्तु इस में जो सत स्वरूप है उस का कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है।
गीता हमे उस मोड़ पर ले जा रही है जहां आत्मा ही नित्य है, फिर भी कभी हम कृष्ण द्वारा द्रोपती के चीर हरण से प्रभावित होते, तो कभी सुदामा के चावल खाने से प्रेम में प्रभावित होते देखते है। कहने का अर्थ यही है कि आत्म तत्व एक होने के बावजूद हम किसी को उस के शरीर और उस की क्रियाओं से पहचानते है। शरीर पर पहला अधिकार प्रकृति का होता है और प्रकृति शरीर की सुरक्षा से ले हम मानसिक एवम भावनात्मक विषयो का आनंद लेते है।
जो हम इन्द्रियों से देखते है, शरीर से भोगते है, मन से सुख और दुख का आनन्द लेते है, उस मे हमारी असत बुद्धि होने से हम पहचान नही पाते। संसार मे सांसारिक वस्तुए अस्थिर है, अनित्य है, दिन-प्रतिदिन परिवर्तन शील है, अतः हमारे आनन्द के लिये स्थायी नही है।
अर्जुन पर असत बुद्धि का प्रभाव होने से वह युद्ध भूमि में अपने विरुद्ध जो लोग खड़े है, उन से संबंध को जोड़ कर देख रहा है, जो पूर्णतः प्राकृतिक है। इसलिए युद्ध में जो वह समझ रहा है कि मैं इन्हे मार रहा हूं, वह असत का भ्रम है। सत यही है कि प्राकृतिक शरीर ही नष्ट होगा, आत्मा नही।
यह अध्ययन भी उसी का पठन है और इसी में धीरे धीरे उच्च स्थल को प्राप्त कर के उस “” तत सत”” को जानते है। गीता में इस तत्व को कैसे प्राप्त किया जा सकता है और प्रकृति को कैसे आनन्द द्वारा पूरा जिया जाए यह ही आगे पढ़ेंगे, क्योंकि यह अभी शुरुवात है औऱ गीता 700 श्लोकों में समाप्त होगी जिस में से अभी 64 श्लोक ही हुए है। जिस में से कृष्ण भगवान ने सिर्फ 7 श्लोक ही बोले है। अतः इस अतह सागर में पूरी तरह अपने उन तमाम प्रश्नों के साथ तैयार रहे जिस का उत्तर सिवाय गीता के कोई नही दे सकता।
।। हरि ॐ तत सत ।। 02.17 ।।
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