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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  02. 11 ।।

।। अध्याय    02. 11  ।।    

श्रीमद्भगवद्गीता 2.11

श्री भगवानुवाच,

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः

śrī-bhagavān uvāca,

“aśocyān anvaśocas tvaḿ,

prajñā-vādāḿś ca bhāṣase..I

gatāsūn agatāsūḿś ca,

nānuśocanti paṇḍitāḥ”..II

भावार्थ : 

श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! तू उन के लिये शोक करता है जो शोक करने योग्य नहीं है और पण्डितों की तरह बातें करता है। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित प्राणी के लिये और न ही मृत प्राणी के लिये शोक करते॥ ११॥

Meaning:

Shri Bhagavaan said:

You are grieving for those who are not worthy of sorrow, yet seemingly speaking words of wisdom. The wise grieve not for the departed, nor for those who have not yet departed.

Explanation:

In the verses so far, Arjuna thought he was wise in lamenting the war by making a plea for peace. But Shri Krishna here pointed out that Arjuna “seemingly spoke wise words”, i.e. in reality what Arjuna said was not correct. His assessment of the situation was clouded by emotion instead of being driven by logic and reason. On one hand, he was displaying grief, on the other hand, he was trying to display logic. Logic and grief cannot go together.

There are several instances in life where what we thought was correct knowledge, no longer applies. For example, let’s say you get promoted to your first managerial job. It is your first day at work and you get invited to 10 meetings from different teams. If you were at a job right out of college, you would ensure that you attended all the meetings that you were invited to, and doing so would be the right thing to do at that stage in your career. But as a manager, you have the advantage of seniority to choose which meetings to go to, and which to avoid. You no longer assess the situation like you previously used to. You use different reasoning and logic.

Shri Krishna’s wanted to correct Arjuna’s logic. He pointed to Arjuna that there was no need to grieve for the living nor for the dead. Death is inevitable. We should enjoy and appreciate the living, just like one appreciates a colourful soap bubble blown by a child. The bubble will last for a few seconds, but inevitably, it will burst. Some bubbles burst quickly, some last for a longer time. But there is never a surprise when a bubble eventually bursts.

Ignorance is the cause of all human problems. And by ignorance we mean self-ignorance. So self-ignorance is the cause of all human problems and therefore self-knowledge is the only solution for all human problems.

Therefore Shri Krishna instructs Arjuna, and us, to assess any life situation with logic and reason, and not to get swayed by emotion. Of course, it will not always be possible to check our emotions, but it should be what we strive for constantly. We saw what happened to Arjuna when he let his emotions run wild, resulting in a panic attack. A wise person who uses “viveka” or discrimination (logic and reasoning about correct and incorrect) is called a “pandit”. He need not necessarily have formal degrees, but is one who uses reason all the time.

 A bubble will eventually burst, and the body will eventually perish. But is that the end? The next verse goes deeper into this topic.

 Footnotes

1. “Moha” is delusion is reverse thinking. Mistaking the real for the unreal, impermanent as permanent, something that was never ours as ours, is delusion. The first line of the shloka addresses moha.

2. “Shoka” or grief is excessive dwelling in the past, or in other words, reliving past memories repeatedly. The second line of the shloka addresses shoka.

3. Per Shankaracharya’s commentary, shoka and moha were the two primary reasons that Arjuna resisted fighting against his relatives.

4. One does not need to go far into the Gita to find a wise person above lamentation, for Grandsire Bheeshma himself was the perfect example. He was a sage who had fathomed the mysteries of life and death, and risen above the dualities of circumstances. Serene in any eventuality, he had even consented to taking the side of the wicked, if it served the Lord. He thus demonstrated that those who are surrendered to God simply do their duty in all situations, without being affected by outcomes. Such persons never lament because they accept all circumstances as God’s grace.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जब हम अर्जुन के विषाद को ठीक से समझने का प्रयत्न करते हैं तब यह पहचानना कठिन नहीं होगा कि यद्यपि उस का तात्कालिक कारण युद्ध की चुनौती है परन्तु वास्तव में मानसिक संताप के यह लक्षण किसी अन्य गम्भीर कारण से हैं। जैसा कि एक श्रेष्ठ चिकित्सक रोग के लक्षणों का ही उपचार न कर के उस रोग के मूल कारण को दूर करने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार यहाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के शोक मोह के मूल कारण (आत्मअज्ञान) को ही दूर करने का प्रयत्न करते हैं। पंडित शब्द का अर्थ है ज्ञानी। अर्जुन अपने मोह, अहंकार और भय को शास्त्रोचित एवम तर्क युक्त बना कर स्वजनों की हत्या एवम युद्ध से घर के मुखिया समाप्त होने से स्त्रीयों के दूषित होने और आने वाली पीढ़ी वर्णसंकर होने का भय दिखा कर पलायन करना चाहता है।

शुद्ध आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण अहंकार उत्पन्न होता है। यह अज्ञान न केवल दिव्य स्वरूप को आच्छादित करता है वरन् उसके उस सत्य पर भ्रान्ति भी उत्पन्न कर देता है। अर्जुन की यह अहंकार बुद्धिया जीव बुद्धि कि वह शरीर मन और बुद्धि की उपाधियों से परिच्छिन्न या सीमित है वास्तव में मोह का कारण है जिससे स्वजनों के साथ स्नेहासक्ति होने से उनके प्रति मन में यह विषाद और करुणा का भाव उत्पन्न हो रहा है। वह अपने को असमर्थ और असहाय अनुभव करता है। मोहग्रस्त व्यक्ति को आसक्ति का मूल्य दुख और शोक के रूप में चुकाना पड़ता है। इन शरीरादि उपाधियों के साथ मिथ्या तादात्म्य के कारण हमें दुख प्राप्त होते रहते हैं। हमें अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान होने से उनका अन्त हो जाता है।

नित्य चैतन्यस्वरूप आत्मा स्थूल शरीर के साथ मिथ्या तादात्म्य के कारण अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों के सम्बन्ध में अपने को बन्धन में अनुभव करती है। वही आत्मतत्त्व मन के साथ अनेक भावनाओं का अनुभव करता है मानो वह भावना जगत् उसी का है। फिर यही चैतन्य बुद्धिउपाधि से युक्त होकर आशा और इच्छा करता है महत्वाकांक्षा और आदर्श रखता है जिनके कारण उसे दुखी भी होना पड़ता है। इच्छा महत्वाकांक्षा आदि बुद्धि के ही धर्म हैं।

इस प्रकार इन्द्रिय मन और बुद्धि से युक्त शुद्ध आत्मा जीवभाव को प्राप्त करके बाह्य विषयों भावनाओं और विचारों का दास और शिकार बन जाती है। जीवन के असंख्य दुख और क्षणिक सुख इस जीवभाव के कारण ही हैं।

अर्जुन इसी जीवभाव के कारण पीड़ा का अनुभव कर रहा था। श्रीकृष्ण जानते थे कि शोकरूप भ्रांति या विक्षेप का मूल कारण आत्मस्वरूप का अज्ञान आवरण है और इसलिये अर्जुन के विषाद को जड़ से हटाने के लिये वे उस को उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मज्ञान का उपदेश करते हैं।

मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक विधि के द्वारा मन को पुन शिक्षित करने का ज्ञान भारत ने हजारों वर्ष पूर्व विश्व को दिया था। यहाँ श्रीकृष्ण का गीतोपदेश के द्वारा यही प्रयत्न है। आत्मज्ञान की पारम्परिक उपदेश विधि के अनुसार जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण सीधे ही आत्मतत्त्व का उपदेश करते हैं।

भगवान का यह प्रश्न जैसा जवाब अर्जुन के रटत विद्या की ओर इंगित है, जो अपने मोह को सिद्ध करने के शास्त्रो का सहारा ले रहा है। “ब्रह्म ही सत्य है, नित्य है और जगत मिथ्या ” इस को कौन नही जानता। “अहम ब्रह्मोस्मि” का पाठ करने वाले भी जब संकट स्वयं या अपने परिजनों पर आता है, तो प्रकृति स्वरूप शरीर के व्यवहार करने लगते है। अर्जुन को मालूम के जीव नित्य है और शरीर अनित्य, इसलिये भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से पूछते है कि आज तक तुम ने जो पढ़ा, क्या वह भूल गया है।

भीष्म और द्रोण के अन्तकरण शुद्ध होने के कारण उनमें चैतन्य प्रकाश स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। वे दोनों ही महापुरुष अतुलनीय थे। इस युद्ध में मृत्यु हो जाने पर उन को अधोगति प्राप्त होगी यह विचार केवल एक अपरिपक्व बुद्धि वाला ही कर सकता है। इस श्लोक के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन का ध्यान जीव के उच्च स्वरूप की ओर आकर्षित करते हैं।

हमारे व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं और उन में से प्रत्येक के साथ तादात्म्य कर उसी दृष्टिकोण से हम जीवन का अवलोकन करते हैं। शरीर के द्वारा हम बाह्य अथवा भौतिक जगत् को देखते हैं जो मन के द्वारा अनुभव किये भावनात्मक जगत् से भिन्न होता है और उसी प्रकार बुद्धि के साथ विचारात्मक जगत् का अनुभव हमें होता है।

भौतिक दृष्टि से जिसे मैं केवल एक स्त्री समझता हूँ उसी को मन के द्वारा अपनी माँ के रूप में देखता हूँ। यदि बुद्धि से केवल वैज्ञानिक परीक्षण करें तो उस का शरीर जीव द्रव्य और केन्द्रक वाली अनेक कोशिकाओं आदि से बना हुआ एक पिण्ड विशेष ही है। भौतिक वस्तु के दोष अथवा अपूर्णता के कारण होने वाले दुखों को दूर किया जा सकता है यदि मेरी भावना उसके प्रति परिवर्तित हो जाये। इसी प्रकार भौतिक और भावनात्मक दृष्टि से जो वस्तु कुरूप और लज्जाजनक है उसी को यदि बुद्धि द्वारा तात्त्विक दृष्टि से देखें तो हमारे दृष्टिकोण में अन्तर आने से हमारा दुख दूर हो सकता है।

इसी तथ्य को और आगे बढ़ाने पर ज्ञात होगा कि यदि मैं जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि से देख सकूँ तो शारीरिक मानसिक और बौद्धिक दृष्टिकोणों के कारण उत्पन्न विषाद को आनन्द और प्रेरणादायक स्फूर्ति में परिवर्तित किया जा सकता है। यहाँ भगवान् अर्जुन को यही शिक्षा देते हैं कि वह अपनी अज्ञान की दृष्टि का त्याग करके गुरुजन स्वजन युद्धभूमि इत्यादि को आध्यात्मिक दृष्टि से देखने और समझने का प्रयत्न करे।

इस महान् पारमार्थिक सत्य का उपदेश यहाँ इतने अनपेक्षित ढंग से अचानक किया गया है कि अर्जुन की बुद्धि को एक आघातसा लगा। आगे के श्लोक पढ़ने पर हम समझेंगे कि भगवान् ने जो यह आघात अर्जुन की बुद्धि में पहुँचाया उसका कितना लाभकारी प्रभाव अर्जुन के मन पर पड़ा।

इन के लिये शोक करना उचित क्यों नहीं है क्योंकि वे नित्य हैं। कैसे भगवान् कहते हैं।

विशेष भगवान के वचन जब अर्जुन ने यह कहा कि उस का मुख सूख रहा है, हाथ कांप रहे है और वो गांडीव छोड़ कर बैठ गया, तब भी उन्होंने ने उस के स्वाभिमान को ललकारते हुए उस की असहाय अवस्था को अपने शिष्यत्व की मोड़ा। अब जब अर्जुन ने यह कह कर की मैं युद्ध नही करूँगा, अब आप मुझे समझाए तो एक अच्छे वक्ता के नाते सब से पहले उन्होंने उस के अर्ध ज्ञान को बताया कि बाते तो ज्ञानी वाली करते हो और हरकत अज्ञानी वाली।

मोह में अपने निर्णय को सही ठहराने के लिए अर्जुन ने कई तर्क दिए, इसलिए भगवान ने कहा कि ज्ञानी पुरुष मोह नही करते या जो मोह रखते है वो ज्ञानी की भांति तर्कों का सहारा नही लेते। जब तुम ज्ञानवान हो तो मोह के वश ज्ञान हो ज्ञान की बात न करो।

भावना में बह कर यदि कोई उस को उचित ठहराने की कोशिश करे तो यह उस व्यक्ति का अज्ञान ही है। श्रोता जिसे अपने ज्ञान का अहंकार हो, तो वह प्रवक्ता को या तो सुनता नहीं है, या फिर अपने ज्ञान से छान छान कर सुनता है। जिस से प्रवक्ता जो कुछ कहता है, वह श्रोता के ज्ञान के अहम के कारण अनसुना रहता है। भगवान श्री कृष्ण कुशल प्रवक्ता एवम कुशल गुरु है, इसलिए पहले एक व्यंगात्मक मुस्कान के बाद अर्जुन के ज्ञान को ही आधार बना कर उस के शास्त्रों के तर्क एवम ज्ञान के अहंकार को प्रहार करते है। 

माँ की ममता अपने बच्चे पर रहती है और यदि माँ ममता वश अपने बच्चे के हर कृत्य को उचित माने तो यह अज्ञान ही है। शोक भावना का रूप है जैसे मोह है और ज्ञानी पुरुष हर होने वाले काम को जानता है वो शोक नही करता।

अर्जुन को सही दिशा में सोचने का अवसर देने के यह श्लोक हर सलाहकार के महत्वपूर्ण के उस के पास कोई सलाह लेने आये व्यक्ति को प्रथम यह ही बताना चाहिए कि गलती कहाँ हो रही है।

।। हरि ॐ तत सत ।। 02.11।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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