।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 02. 06 -1 ।। Additional II
।। अध्याय 02. 06 -1 ।। विशेष II
।। कर्म – योग – धर्म विश्लेषण और अर्जुन की दुविधा ll विशेष 2.6 (2) ।।
किसी को ज्ञान प्राप्ति के लिये लग्न एवम जिज्ञासा न हो तो उसे ज्ञान नही दे सकते, वह अपने आप मे संतुष्ट प्राणी होता है। अर्जुन की समस्या यही थी कि क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करना उस का धर्म है किंतु धर्म शास्त्र के अनुसार पितृ वध, गुरु वध या बंधुओ का वध करना अनुचित एवम पाप था। इस समय भगवान श्री कृष्ण द्वारा उसे युद्ध के लिए कहना कुछ तो अर्थ रखता ही होगा।
क्या करना चाहिये एवम क्या नही करना चाहिये यह किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति लगभग हर व्यक्ति के जीवन मे आती है, जिस में वह कर्म एवम अकर्म के चक्कर मे पड़ कर निष्क्रिय हो जाता है।
विचारवान पुरुषो को ऐसे समय ऐसी युक्ति अर्थात योग का उपयोग करना चाहिये जिस से सामाजिक कर्म भी हो जाये और कर्माचरण करने वाला किसी पाप के बंधन में भी नही फसे। इसी योग युक्त कर्म को कर्मयोग शास्त्र कहा गया है।
कर्म कृ धातु से बना है जिस का अर्थ है करना, व्यापार या हलचल। सभी धर्मों में ईश्वर की प्राप्ति के कुछ कुछ कर्म करना ही पड़ता है। यज्ञ याग के जो कुछ भी कर्म करे उस का फल उस के यज्ञ में छुपा है, इसलिये यज्ञ के धन धन्य के संग्रह या अर्थ उपार्जन का पृथक कोई फल नही होता। किंतु किसी भी प्रिय वस्तु की प्राप्ति के लिये किया कर्म पुरुषार्थ कहलाता है। यज्ञार्थ कर्म ब्रह्म ज्ञान को जानने वाले के अतिरिक्त फल के बंधन से बांधते है। मनु में चतुर्वर्ण आश्रम के अनुसार जो भी कर्म बताये गए है वह भी गुण धर्म के कर्म है, जो बन्धन में बांधते है। इन्हें स्मार्त कर्म या स्मार्त यज्ञ है।इस के अतिरिक्त पुराणों में भी कुछ कर्मो का उल्लेख है जिन्हें पुराणिक कर्म कहते है।
कर्मो का विभाजन नित्य, नैमित्तिक और काम्य भेद किये गए है। नित्य कर्म शरीर की आवश्यकता जैसे स्नान, संध्या आदि है। नैमित्तिक कर्म किसी कर्म किसी कारण करना पड़े जैसे प्रायश्चित एवम काम्य कर्म जिसे कामनाओ की पूर्ति के लिये किया जाए। इस के अतिरिक्त निषिद्ध कर्म है जैसे हत्या, चोरी आदि।
शास्त्रो में जिन कर्मो की आज्ञा है उसे विहित कर्म कहते है और जिस की आज्ञा नही है उसे निषिद्ध कर्म कहते है।
शास्त्रो के अनुसार यज्ञ याग के कर्म करने चाहिये किन्तु चतुर्वर्ण व्यवस्था में अपने अपने कर्म करने से कोई परहेज नही होना चाहिये।
प्रत्येक प्रकार के कर्मो एवम उन्हें करने की आज्ञा शास्त्रो में दी गई है, इस हिसाब से अर्जुन को क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना चाहिये, किन्तु क्षत्रिय सिर्फ युद्ध ही करे, ऐसा नही कहा गया है। विभिन्न धर्म शास्त्रों के परस्पर विरोधी कर्म बताने से मनुष्य दुविधा में फस ही जाता है।
इसी प्रकार योग का सामान्य अर्थ हम प्रणायामदिक साधनों से चित्त वृतियों या इन्द्रियों का निरोध करना ही अर्थ लेते है। योग ‘युज’ धातु से बना है, जिस का अर्थ होता है जोड़ना, मिलाप, एकता, अव्यवस्थित को एकत्र करना आदि। इस के अतिरिक्त उपाय, साधन, युक्ति या कर्म को भी योग कहते है। गीता में योग का अर्थ पतंजलि योग के अतिरिक्त अर्थो में भी आया है। जैसे द्रव्य उपार्जन अर्थात धन कमाने की विभिन्न युक्तियां में मेहनत, भीख मांगना, जालसाजी, चोरी, ऋण लेना आदि मिल कर द्रव्य उपार्जन योग बनता है।
भगवान श्री कृष्ण ने योग की स्वतंत्र व्याख्या “कर्म कौशलम” अर्थात कर्म करने की विशेष युक्ति को योग कहा। जब धर्म शास्त्र एवम कर्म शास्त्र में दुविधा हो तो विहित कर्म बुद्धि को अव्यग्र, स्थिर या शांत रख कर आसक्ति को छोड़ दे, परंतु कर्मो को छोड़ देने के आग्रह में न पड़ते हुए योगस्थ हो कर कर्मो का आचरण करे। इसी प्रकार समत्वबुद्धि से ज्ञानी लोगो को कैसे रहना चाहिये, बताया गया।
श्री शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के कर्मो का त्याग करना चाहिये, वहां गीता हमे सिखाती है कि कर्मो को बिना त्यागे किस प्रकार ज्ञान मार्ग को प्राप्त कर सके। सांख्य योग से कर्म के योग की युक्ति ही कर्मयोग है।
योग का एक अर्थ युक्ति अर्थात किसी कार्य को पूर्ण करने का मार्ग खोजना। भगवान श्री कृष्ण ने योग से अर्जुन को अपने कर्तव्य धर्म का पालन करना सिखाया। इसलिए गीता को योग शास्त्र कहा गया।
इसी प्रकार धर्म शब्द धृ धातु से बना है जिस का अर्थ है धारण करना है। जिस कर्म को प्रजा धारण करती है, जो सब के हित मे है एवम जिस से सभी एक सूत्र में बंधे है वही धर्म है। अतः कोई भी कार्य जो समाज की संरचना न खराब करें, वही धर्म है।
अतः जो कर्म हमारे मोक्ष अथवा हमारी आध्यत्मिक उन्नति के अनुकूल हो वही पुण्य है, वही शुभ कर्म है। यहां से हो कर्तव्य-अकर्तव्य, धर्म-अधर्म एवम कार्य- अकार्य का प्रादुर्भाव हुआ।
अर्जुन की समस्या पर कर्म के करने या न करने अर्थात आज के जीवन मे कर्म को त्याग न कर के किस प्रकार करना चाहिये, इस का विस्तृत स्वरूप गीता में हम पढ़ेंगे।
इस कड़ी में हमे अब यही विचार करना है कि कर्म करने वाले कुछ न कुछ उद्देश्य सामने रख कर ही कर्म करता है, इस पर विचार की प्राथमिक रूप रेखा स्पष्ट कर देने से जब गीता के ज्ञान पर भगवान श्री कृष्ण को पढ़ेंगे, तो अपने प्रश्न का उत्तर भी मिल जाएगा।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 2.06 (2) ।।
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